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बरसात की वह रात
#30
‘‘अब जीना सीख लिया है. जाओ... चले जाओ...’’ मां का गला रूंध गया और आंसू बहने लगे.
महात्मा के रूप में पिताजी कुछ कह नहीं सके. उन्होंने मां के आंसू पोंछने चाहे, पर मां के सख़्त व्यवहार ने उनको रोक दिया.
सिर्फ़ इतना ही कह पाए,‘‘जाओ... ख़ुश रहो... तुम ठीक कह रही हो, मुझे यहां रहने का कोई अधिकार नहीं है.’’
‘‘बात अधिकार की नहीं है!’’ उनके उत्तर के जवाब में मां ने उनकी तरफ़ देखा. मां की नज़रें, उन्हें अंदर तक छील गईं. पिताजी ज़्यादा देर तक उन नज़रों का सामना नहीं कर पाए और आंखें झुका, फ़र्श की तरफ़ देखने लगे. ‘‘मुझे माफ़ कर दो! मैं सवेरा होने से पहले चला जाऊंगा. ख़ुश रहो.’’
मां रो पड़ीं,‘‘जिससे जीवन है, जो जीवन की रेखा है. आज मैं उसी को अपने हाथों से मिटा रही हूं. हे भगवान, कैसा इम्तिहान है?’’ और वह रोते हुए उनके चरण स्पर्श कर वहां से चली गईं.
मेरा मन बार-बार चीत्कार कर रहा था. मुझे उस महात्मा पर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था. मेरे अनुसार तो वह पिता कहलाने के भी हक़दार नहीं थे. एक बार को तो मन में आया, मैं उनको जाकर ख़ूब सुनाऊं. वह मात्र मेरे जन्म का कारण हैं, लेकिन मेरे कुछ नहीं. मेरी तो मां ही सारी दुनिया है. लेकिन उस मां की ख़ामोशी की, इज़्ज़त की ख़ातिर मैं चुप रही. वह रात मेरी ज़िंदगी की हर चीज़ को बदल गई थी. मेरे मन में ज़िंदगीभर के लिए मां के लिए श्रद्धा और पिता के लिए नफ़रत भर गई थी.
सुबह उठते ही पूरे घर में कोहराम मचा था कि जो महात्मा आए थे, कहां चले गए? दादी भी एक कोने में बैठी हुई रो रही थीं. शायद वह भी अपने पुत्र को पहचान चुकी थीं. और हां, मां शांत खड़ी सब कुछ देख रही थीं.

Vah raat: That night

कुछ सालों बाद एक पत्र मिला. जिससे पता चला पिताजी बहुत बीमार हैं और दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में हैं. तब मैं ख़ुद मां को, उनसे मिलवाने के लिए लेकर गई. पिताजी को कैंसर था, वो भी लास्ट स्टेज का. मां रोए जा रही थीं. मां को देखते ही उन्होंने अपने जर्जर शरीर से बैठना चाहा पर नाक़ामयाब रहे. मैंने आगे बढ़, सहारा देकर बैठाया. उन्होंने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा और नर्स को कमरे से बाहर जाने को कहा. हाथ जोड़कर मां से बोले,‘‘पुष्पा, अब तो माफ़ कर दो मुझे. मेरी ज़िंदगी का क्या है...’’ उनकी सांसें उखड़ने लगी थीं.
‘‘जानते हो तुम्हारे जाने के बाद, ज़िंदगी रोज़, कोई ना कोई नया इम्तिहान लेती रही. दिन गुज़रते रहे... और मैं मन ही मन अपने और तुम्हारे बीच की दूरी को लांघती रही.’’
मां बड़ी ही कातर दृष्टि से महात्मा की ओर देख रही थीं. वह चुपचाप बैठे रहे. शायद इन बिफरती हुई लहरों में नाव खेने का साहस तो मुझमें भी नहीं था. मां ने आगे कहना शुरू किया,‘‘ना जाने कितनी बार सूरज उगा और अस्त हुआ. ना जाने कितनी संध्याएं गहराईं और बिखर गई. तुमने नहीं आना था, तुम नहीं आए. पर मन यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि तुम मुझे धोखा दे गए.’’
मां ने उन्हें बोलने से रोकना चाहा, पर वह बोले,‘‘मुझे माफ़ कर दो! चरस की लत ने मुझे आलसी और निकम्मा बना दिया था. मेरे मन को कभी शांति नहीं मिली. बाद में मैंने सन्यासी का जीवन जीना ही श्रेष्ठ समझा और जीवनभर अपने मन से भागता रहा. मैं तो एक टूटा हुआ पत्ता हूं. ना मेरे कोई आगे, ना पीछे. क्या पता एक हवा का झोंका कहां पर फेंक दे? कम से कम इस सकून से तो मर सकूं कि, तुमने मुझे माफ़ कर दिया. वरना मेरी आत्मा तड़पेगी.’’
उस दिन वो दोनों पास बैठे घंटों रोते रहे थे. मां को भी अपने कहे हुए शब्दों पर बहुत अफ़सोस था. मां से इस मुलाक़ात के बाद पिता जी का मन हल्का हो गया था. शायद इतना हल्का कि उसके बाद उनकी सांसें हमेशा के लिए शांत हो गईं. और मां वह भी तो शांत हो गई थीं. मृत्यु की तरह शांत.
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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RE: बरसात की वह रात - by neerathemall - 12-04-2019, 01:24 AM



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