12-04-2019, 01:23 AM
‘‘बच्ची?’’
‘‘हां, बच्ची! जब तुम अचानक से चले गए थे, उस समय मैं तीन महीने की गर्भवती थी. जिस आग में जली हूं मैं... मैं ही जानती हूं. तुम्हारे जाने के बाद... मेरे अंदर इतनी शक्ति नहीं थी, जो मैं अपने प्राण त्याग देती. पति के साये से दूर औरत को वेश्या ही समझा जाता है. आख़िरकार इस पुरुष प्रधानसमाज में स्त्री को एक देह से अलग एक इंसान के रूप में देखता ही कौन है? स्त्रियों के लिए ये बारीक़ रेखाएं समाज स्वयं बनाता और बिगाड़ता है. स्त्री की मुक्ति केवल देह की मुक्ति है? स्त्री जिस परंपरा का शिकार है, वह सदियों से हज़ारों शाखाओं, प्रशाखाओं में कटती, बांटती, संकुचित, परिवर्तित, संवर्धित होती इस मुक़ाम तक पहुंची है. उसे गुरु, पिता, पति, भाई, बेटों ने ही मां, दादी, परदादी बनाया है. एक पूरी की पूरी सामूहिकता जिसने स्त्री के वर्तमान को गढ़ा है. अकेली स्त्री का दर्द बहुत बड़ा होता है. पर तुम नहीं समझोगे!’’
‘‘बस, बस और कुछ मत कहो. मैं शर्मिंदा हूं! माफ़ी शब्द भी बहुत छोटा है, तुम्हारे त्याग के आगे पुष्पा.’’
‘‘क्यों... क्या हुआ? तुम्हें सुनने में परेशानी हो रही है? मैंने तो भुगता है. तुम्हारे जाने के बाद समाज के तानों को सहना, अपनी स्थिति को भांपते हुए, अपनी विवशता, दयनीयता को समझते हुए, चुपचाप सब सहन किया. मैं तो तुम्हें भूल ही गई थी. ...और शायद यही मेरे लिए उचित था. मैंने आज तक अपने धर्म का पालन किया है. मुझे इस बात का गर्व है. याद है तुम ही मुझसे कहा करते थे,‘पुष्पा तुम बहुत दंभी हो! बिल्कुल उस लहर की तरह, जो सिर ऊंचा किए किनारों की ओर बढ़ती है.’ ...और मैं यह सुनते ही शर्मा जाती थी. बहुत दिनों से तुम्हारी यादों को, मन की किसी अंधेरी गुफा में बंद कर दिया था.’’
रात गहरा चुकी है. तभी रसोईघर से किसी बर्तन के गिरने की आवाज़ आई. मां पहले तो थोड़ा घबराईं, फिर ख़ुद ही अपनी घबराहट को छिपाने के लिए बोलीं,‘‘शायद कोई बिल्ली है! लगता है खिड़की खुली रह गई है.’’
‘‘हां, बच्ची! जब तुम अचानक से चले गए थे, उस समय मैं तीन महीने की गर्भवती थी. जिस आग में जली हूं मैं... मैं ही जानती हूं. तुम्हारे जाने के बाद... मेरे अंदर इतनी शक्ति नहीं थी, जो मैं अपने प्राण त्याग देती. पति के साये से दूर औरत को वेश्या ही समझा जाता है. आख़िरकार इस पुरुष प्रधानसमाज में स्त्री को एक देह से अलग एक इंसान के रूप में देखता ही कौन है? स्त्रियों के लिए ये बारीक़ रेखाएं समाज स्वयं बनाता और बिगाड़ता है. स्त्री की मुक्ति केवल देह की मुक्ति है? स्त्री जिस परंपरा का शिकार है, वह सदियों से हज़ारों शाखाओं, प्रशाखाओं में कटती, बांटती, संकुचित, परिवर्तित, संवर्धित होती इस मुक़ाम तक पहुंची है. उसे गुरु, पिता, पति, भाई, बेटों ने ही मां, दादी, परदादी बनाया है. एक पूरी की पूरी सामूहिकता जिसने स्त्री के वर्तमान को गढ़ा है. अकेली स्त्री का दर्द बहुत बड़ा होता है. पर तुम नहीं समझोगे!’’
‘‘बस, बस और कुछ मत कहो. मैं शर्मिंदा हूं! माफ़ी शब्द भी बहुत छोटा है, तुम्हारे त्याग के आगे पुष्पा.’’
‘‘क्यों... क्या हुआ? तुम्हें सुनने में परेशानी हो रही है? मैंने तो भुगता है. तुम्हारे जाने के बाद समाज के तानों को सहना, अपनी स्थिति को भांपते हुए, अपनी विवशता, दयनीयता को समझते हुए, चुपचाप सब सहन किया. मैं तो तुम्हें भूल ही गई थी. ...और शायद यही मेरे लिए उचित था. मैंने आज तक अपने धर्म का पालन किया है. मुझे इस बात का गर्व है. याद है तुम ही मुझसे कहा करते थे,‘पुष्पा तुम बहुत दंभी हो! बिल्कुल उस लहर की तरह, जो सिर ऊंचा किए किनारों की ओर बढ़ती है.’ ...और मैं यह सुनते ही शर्मा जाती थी. बहुत दिनों से तुम्हारी यादों को, मन की किसी अंधेरी गुफा में बंद कर दिया था.’’
रात गहरा चुकी है. तभी रसोईघर से किसी बर्तन के गिरने की आवाज़ आई. मां पहले तो थोड़ा घबराईं, फिर ख़ुद ही अपनी घबराहट को छिपाने के लिए बोलीं,‘‘शायद कोई बिल्ली है! लगता है खिड़की खुली रह गई है.’’
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
