12-04-2019, 01:23 AM
आज टीवी पर एक परिचर्चा में ऐंकर बार-बार कह रही थी,‘सिंगल मदर, नया ट्रेंड, नया चलन!’ क्या वाक़ई सिंगल मदर नया ट्रेंड है? मेरी मां भी तो सिंगल मदर थीं? क्या कुछ नहीं झेला उन्होंने? ना चाहते हुए भी मन मुझे पुरानी यादों की तरफ़ खींच ले गया. जब से होश संभाला है, मां को सदा परेशान ही देखा. कुछ पूछने पर रटा-रटाया जवाब दोहरातीं,‘‘बेटी तुम नहीं समझोगी...’’ मैं अक्सर सोचती काश पिताजी भी होते तो मां इतना परेशान न होतीं. पर जब कभी पिताजी के बारे में पूछती तो मां कह देतीं,‘‘वह अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’ इसके आगे कुछ पूछने की गुंजाइश ही नहीं बचती. वक़्त के साथ-साथ मैं इतना तो समझ ही गई थी कि कोई तो बात है, जो मां छुपा रही हैं.
उस दिन हमारे घर में एक महात्मा आए थे. दादी दौड़-दौड़कर तैयारियों में लगी थीं. हर एक सदस्य दादी के आदेशों का पालन कर रहा था. महात्मा के घर में प्रवेश करते ही, उनका आशीर्वाद लेने की सभी लोगों में होड़-सी मच गई. पर मां बिल्कुल पीछे खड़ी रहीं. एकदम शांत. लेकिन उनकी आंखें उनके मन के तूफ़ान को बयां कर रही थीं. तभी दादी ने झिड़का,‘‘क्या खड़ी सोच रही है? आशीर्वाद नहीं लेगी महात्मा जी का?’’
बुझे हुए मन से मां आगे बढ़ीं, तभी एक बार दादी ने फिर झिड़ककर कहा,‘‘थाली तो ढंग से पकड़ो बहू!’’
कुछ अनमनी-सी मां ने हल्का-सा सिर झुकाया और आशीर्वाद लिए बिना आगे बढ़ गईं. रात के समय मैंने देखा, जब घर का हर सदस्य आधी नींद में था, तो मां धीरे से चौके का दरवाज़ा सरकाकर, सीधे महात्मा के कमरे में जा रही थीं. मैं भी उत्सुकतावश, चुपचाप मां के पीछे चल दी. महात्मा एक खाट पर लेटे हुए थे. उनको देखकर लग रहा था कि उनके दिमाग़ में भी कुछ उथल-पुथल मची हुई है. कमरे में मध्यम-सी रौशनी थी, जो कि किसी के भावों को पढ़ने के लिए शायद काफ़ी थी. दरवाज़े की आहट से महात्मा चौंके और उन्होंने दरवाज़े की तरफ़ देखा. दरवाज़ा अपनी पूर्ववत स्थिति में था. महात्मा ने कुछ समझा, कुछ नहीं. जैसे ही उनकी दृष्टि मां पर पड़ी, वह कुछ असमंजस में पड़ गए. एक अजीब-सी घबराहट उनके मुख से साफ़ झलक रही थी. महात्मा की घबराहट देखकर मेरी भी व्याकुलता बढ़ गई. आख़िर सारा माजरा है क्या? मां की आंखें सूजी हुई थीं. मां ने अचानक से महात्मा के पैर पकड़ लिए. महात्मा ने घबराते हुए पैर पीछे धकेले और बैठ गए. शायद उनको अपना पूरा अस्तित्व ख़तरे में दिखाई पड़ रहा था. वहीं दूसरी ओर सामने दीवार पर एक छिपकली दबे पांव कीड़े को झपटने वाली थी. बचते हुए कीड़ा, छिपकली की पकड़ में आने से पहले ही नीचे गिर पड़ता है. और दीवार घड़ी की टिक टिक के साथ, घड़ी का पेंडुलम इधर से उधर, उधर से इधर खेलने लगता है. आंसुओं से भीगा चेहरा और सूजी हुई आंखें लिए मां ऐसे ही बैठी रहीं. उनका चेहरा घड़ी के शीशे में साफ़ दिख रहा था और वह अपने भावों के प्रवाह को रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थीं. पर उनके अंतरमन की पीड़ा विद्रोह कर रही थी. वह अंदर ही अंदर छटपटा रही थीं.
‘‘क्यों आए हो यहां?’’
महात्मा शायद कोई उत्तर नहीं देना चाहते थे. फिर भी बोले,‘‘क्या हुआ देवी?’’
‘‘देवी?’’ मां ने व्यंग्य भरा तंज कसा.
‘‘तुमको देवता बनना है, तो बनो. पर मुझे देवी मत कहो.’’
‘‘क्यों ऐसा क्या कह दिया मैंने?’’
Vah raat: That night
‘‘मैं तुमको पहचान गई हूं. कब तक छुपाओगे ख़ुद को? डरो मत! किसी से नहीं कहूंगी. लेकिन तुम्हारे आने का कारण जानना चाहती हूं. इतने सालों बाद क्यों वापस आए? क्या ज़रूरत है वापस आने की? बड़ी मुश्क़िलों से जीवन नदी के ज्वार भाटा शांत हुए हैं, क्यों व्यर्थ ही इस शांत जल में कंकड़ फेंकने आए हो तुम? बताओ क्या चाहते हो?’’
‘‘पुष्पा...,’’ बेजान स्वर और उसमें अकुलाहट साफ़ दिख रही थी. ‘‘पुष्पा... ऐसा क्यों कह रही हो? माफ़ कर दो मुझे! मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया, मैं जानता हूं कि मैं दोषी हूं तुम्हारा. बस एक बार तुमको देखने की इच्छा जागृत हो उठी, तो चला आया.’’
एक ही सांस में सब कुछ कह गए थे वे.
‘‘कैसी हो?’’
‘‘ज़िंदा हूं! यही तो देखने आए हो ना? अभी तक सांसें चल रही हैं. मैं एक भारतीय नारी हूं, जिसके लिए उसका पति ही सब कुछ होता है. लेकिन वह बंधन तो तुम कब का तोड़ गए थे. मैं भी कब तक, उस झूठी मोह की चाशनी में फंसी रहती? वक़्त के साथ-साथ तो चाशनी भी सूख जाती है.’’
ओह!!! तो यह पिता हैं मेरे! पर मां ने मुझसे झूठ क्यों बोला? पूरा सिर चकराने लगा था.
‘‘मुझे अपने करे हुए पर बहुत पछतावा है. उसी पछतावे की वजह से मैं तुमसे मिलने चला आया.’’
‘‘तभी मैं तुमसे कह रही हूं, चले जाओ यहां से. वरना मेरी तपस्या नष्ट हो जाएगी.’’
‘‘तपस्या?’’
‘‘हां तपस्या! जाओ तुम अपनी राह जाओ. तिल-तिल जली हूं मैं. मेरी क़िस्मत में तो सिर्फ़ कर्तव्यों का बोझ ही लिखा है. आज मैं ही अपनी बच्ची की पिता हूं. मैं ही माता हूं.’’
उस दिन हमारे घर में एक महात्मा आए थे. दादी दौड़-दौड़कर तैयारियों में लगी थीं. हर एक सदस्य दादी के आदेशों का पालन कर रहा था. महात्मा के घर में प्रवेश करते ही, उनका आशीर्वाद लेने की सभी लोगों में होड़-सी मच गई. पर मां बिल्कुल पीछे खड़ी रहीं. एकदम शांत. लेकिन उनकी आंखें उनके मन के तूफ़ान को बयां कर रही थीं. तभी दादी ने झिड़का,‘‘क्या खड़ी सोच रही है? आशीर्वाद नहीं लेगी महात्मा जी का?’’
बुझे हुए मन से मां आगे बढ़ीं, तभी एक बार दादी ने फिर झिड़ककर कहा,‘‘थाली तो ढंग से पकड़ो बहू!’’
कुछ अनमनी-सी मां ने हल्का-सा सिर झुकाया और आशीर्वाद लिए बिना आगे बढ़ गईं. रात के समय मैंने देखा, जब घर का हर सदस्य आधी नींद में था, तो मां धीरे से चौके का दरवाज़ा सरकाकर, सीधे महात्मा के कमरे में जा रही थीं. मैं भी उत्सुकतावश, चुपचाप मां के पीछे चल दी. महात्मा एक खाट पर लेटे हुए थे. उनको देखकर लग रहा था कि उनके दिमाग़ में भी कुछ उथल-पुथल मची हुई है. कमरे में मध्यम-सी रौशनी थी, जो कि किसी के भावों को पढ़ने के लिए शायद काफ़ी थी. दरवाज़े की आहट से महात्मा चौंके और उन्होंने दरवाज़े की तरफ़ देखा. दरवाज़ा अपनी पूर्ववत स्थिति में था. महात्मा ने कुछ समझा, कुछ नहीं. जैसे ही उनकी दृष्टि मां पर पड़ी, वह कुछ असमंजस में पड़ गए. एक अजीब-सी घबराहट उनके मुख से साफ़ झलक रही थी. महात्मा की घबराहट देखकर मेरी भी व्याकुलता बढ़ गई. आख़िर सारा माजरा है क्या? मां की आंखें सूजी हुई थीं. मां ने अचानक से महात्मा के पैर पकड़ लिए. महात्मा ने घबराते हुए पैर पीछे धकेले और बैठ गए. शायद उनको अपना पूरा अस्तित्व ख़तरे में दिखाई पड़ रहा था. वहीं दूसरी ओर सामने दीवार पर एक छिपकली दबे पांव कीड़े को झपटने वाली थी. बचते हुए कीड़ा, छिपकली की पकड़ में आने से पहले ही नीचे गिर पड़ता है. और दीवार घड़ी की टिक टिक के साथ, घड़ी का पेंडुलम इधर से उधर, उधर से इधर खेलने लगता है. आंसुओं से भीगा चेहरा और सूजी हुई आंखें लिए मां ऐसे ही बैठी रहीं. उनका चेहरा घड़ी के शीशे में साफ़ दिख रहा था और वह अपने भावों के प्रवाह को रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थीं. पर उनके अंतरमन की पीड़ा विद्रोह कर रही थी. वह अंदर ही अंदर छटपटा रही थीं.
‘‘क्यों आए हो यहां?’’
महात्मा शायद कोई उत्तर नहीं देना चाहते थे. फिर भी बोले,‘‘क्या हुआ देवी?’’
‘‘देवी?’’ मां ने व्यंग्य भरा तंज कसा.
‘‘तुमको देवता बनना है, तो बनो. पर मुझे देवी मत कहो.’’
‘‘क्यों ऐसा क्या कह दिया मैंने?’’
Vah raat: That night
‘‘मैं तुमको पहचान गई हूं. कब तक छुपाओगे ख़ुद को? डरो मत! किसी से नहीं कहूंगी. लेकिन तुम्हारे आने का कारण जानना चाहती हूं. इतने सालों बाद क्यों वापस आए? क्या ज़रूरत है वापस आने की? बड़ी मुश्क़िलों से जीवन नदी के ज्वार भाटा शांत हुए हैं, क्यों व्यर्थ ही इस शांत जल में कंकड़ फेंकने आए हो तुम? बताओ क्या चाहते हो?’’
‘‘पुष्पा...,’’ बेजान स्वर और उसमें अकुलाहट साफ़ दिख रही थी. ‘‘पुष्पा... ऐसा क्यों कह रही हो? माफ़ कर दो मुझे! मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया, मैं जानता हूं कि मैं दोषी हूं तुम्हारा. बस एक बार तुमको देखने की इच्छा जागृत हो उठी, तो चला आया.’’
एक ही सांस में सब कुछ कह गए थे वे.
‘‘कैसी हो?’’
‘‘ज़िंदा हूं! यही तो देखने आए हो ना? अभी तक सांसें चल रही हैं. मैं एक भारतीय नारी हूं, जिसके लिए उसका पति ही सब कुछ होता है. लेकिन वह बंधन तो तुम कब का तोड़ गए थे. मैं भी कब तक, उस झूठी मोह की चाशनी में फंसी रहती? वक़्त के साथ-साथ तो चाशनी भी सूख जाती है.’’
ओह!!! तो यह पिता हैं मेरे! पर मां ने मुझसे झूठ क्यों बोला? पूरा सिर चकराने लगा था.
‘‘मुझे अपने करे हुए पर बहुत पछतावा है. उसी पछतावे की वजह से मैं तुमसे मिलने चला आया.’’
‘‘तभी मैं तुमसे कह रही हूं, चले जाओ यहां से. वरना मेरी तपस्या नष्ट हो जाएगी.’’
‘‘तपस्या?’’
‘‘हां तपस्या! जाओ तुम अपनी राह जाओ. तिल-तिल जली हूं मैं. मेरी क़िस्मत में तो सिर्फ़ कर्तव्यों का बोझ ही लिखा है. आज मैं ही अपनी बच्ची की पिता हूं. मैं ही माता हूं.’’
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.