12-04-2019, 01:20 AM
‘यहां का मौसम, मैं क्या बताऊं... ठीक ही कहते हैं इसे एसी सिटी. जब दिल करे तब बाहर निकल सकते हैं,’’ नयना अपनी बड़ी बहन से फ़ोन पर बातें करती हुई चहलक़दमी कर रही थी. “भोपाल की तरह नहीं कि भरी दुपहरी में इंसान घर से तो क्या कमरे से भी बाहर न निकलना चाहे.”
“बैंगलोर में ही तो सौरेश भैया रहते हैं, तू कभी मिल क्यों नहीं लेती उनसे?,’’ दीदी से ये बात जानकार नयना का मन सौरेश भैया से मिलने का हो आया.
“हां दीदी, शादी के बाद कभी मिलना ही नहीं हुआ उनसे. पिछली बार जब मिले थे उनकी शादी में तब मैं पोस्टग्रैजुएशन के आख़िरी वर्ष की परीक्षाएं दे रही थी.”
सौरेश, नयना की बुआ का लड़का था. उन दोनों की उम्र में तीन वर्ष का अंतराल होने के कारण उनकी आपस में अच्छी निभती थी. बुआ काफ़ी दूर दूसरे शहर में रहती थीं. फूफाजी का परिवार काफ़ी बड़ा था और सारी ज़िम्मेदारियां उन्हीं पर थीं सो बुआ का आना कम ही हो पता था. दो-तीन वर्षों में चक्कर लगता था एक-दूसरे के घर का, छुट्टियों में. या कोई शादी-ब्याह आ गया तो उसमें सभी की टोली एकत्रित हो जाती थी. बड़े होने तक सभी भाई-बहनों की शादियां हो चुकी थीं. सौरेश भैया की शादी में नयना गई थी पर इसकी शादी में सौरेश विदेश गया होने के कारण नहीं आ पाया था. फिर सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यस्त हो गए. आज ये पता चलने पर कि वो भी इसी शहर में है, नयना को ये शहर कुछ अपना-सा लगने लगा था. उसी दिन बुआ को फ़ोन किया और सौरेश का फ़ोन-नंबर लिया.
“पहचानो कौन बोल रही हूं,’’ बाल-सुलभ हंसी-ठिठोली करने लगी नयना फ़ोन पर.
“आप ही बता दीजिए, हम तो आपकी आवाज़ सुनकर ही हार बैठे हैं,’’ सौरेश की आवाज़ पहले के मुक़ाबले परिपक्व प्रतीत हो रही थी. किन्तु उसके बात करने का रंग-ढंग नयना को किंचित अजीब लगा. न जाने क्यों पर उसके ज़हन में फ़िल्मों के पुराने विलेन रंजीत की छवि अवतरित हो गई, मानो वो मुंह बिचकाए अपनी गर्दन पर हाथ फिराते हुए ये कह रहा हो.
Vachan Sootra
बात को लंबा न खींचते हुए नयना बोल पड़ी,“सौरेश भैया, मैं नयना! मैं अब बैंगलोर में रहने आ गयी हूं. पता चला आप भी यहीं रहते हैं सो फ़ोन घुमा डाला.”
“ओह, नयना तुम!,’’ शायद सौरेश, नयना की आवाज़ से भ्रमित हो किसी और को समझ बैठा था.
“कैसी हो, कहां रह रही हो? तुम्हारे दूल्हे मियां कहां काम करते हैं?” और दोनों का काफ़ी अरसे से छूटा हुआ तार एक बार फिर जुड़ने लगा. नयना ने अपने घर का पता बताया तो सौरेश बोला,“मेरा ऑफ़िस कुछ ख़ास दूर नहीं है. चल, आता हूं तुझसे मिलने अभी.”
“अभी?,’’ नयना का चौंकना स्वाभाविक था. “शाम को आओ न भाभी और गुड़िया को लेकर. इनसे भी मिलना हो जाएगा.”
“तेरे ‘इनसे’ भी मिल लेंगे, पर अभी तुझसे मिलने का मन हो रहा है. देखूं तो सही इतने सालों में कितना बदल गई है. क्या अब भी माथे पर गिरती अपनी लट को फूंक से उड़ाती है?” सौरेश की बात से नयना के मस्तिष्क पटल पर लड़कपन की स्मृतियां तैरने लगीं.
सौरेश एक छोटे क़स्बे में रहता था और नयना महानगर में ही पली-बढ़ी थी. उसकी स्टाइल्स से सौरेश सदैव प्रभावित रहा था. जब भी मिलता और नयना उसे हैलो-हाय करती तब हमेशा कहता,‘ज़रा फिर से हाय बोल कर दिखा, तेरे मुंह से बहुत अच्छा लगता है.’ सौरेश को अब तक याद है कि नयना माथे पर गिरती अपनी लट को फूंक से उड़ाती थी ये सोच कर उसे हंसी आ गई.
कुछ ही देर पश्चात घंटी बजी तो नयना समझ गई कि सौरेश भैया होंगे. उनके आने से पूर्व उसने भोजन की तैयारी कर ली थी फटाफट आलू-टमाटर की तीखी रसेदार सब्ज़ी, और मिक्स-वेज बना डाली थी. आटा भी मल कर रख दिया था, बस रोटियां सेंकनी बाक़ी थीं. इन्हीं सब कामों को निबटाते उसे लिपस्टिक लगाने तक का समय नहीं मिला था. बालों को जूड़े में बांधते हुए उसने दरवाज़ा खोला. सौरेश भैया समकक्ष खड़े थे. काफ़ी बदलाव आ गया था उनमें बाल उड़ गए थे, चेहरे पर परिपक्वता आ गई थी और चश्मा भी लग गया था.
“भैया,’’ कहते हुए नयना जैसे ही आगे बढ़ी सौरेश ने लगभग खींचते हुए उसे अपनी बाहुपाश में जकड़ लिया. और फिर इतना कसकर गले लगाया कि उसकी ब्रा का हुक उसकी पीठ में धंस गया. उसने सौरेश की मुट्ठियों को अपनी पीठ पर महसूस किया जैसे वो उसे सौरेश की छाती में चिपकाए डाल रही हों. नयना कसमसा उठी. ये क्या तरीक़ा है मिलने का? कोई भाई-बहन ऐसे गले मिलते हैं भला? जैसे ही वो छिटककर दूर हुई, सौरेश हंसते हुए सोफ़े पर विराजमान हो गया.
“और सुना, क्या हाल-चाल हैं तेरे? यहां कैसे आ गई, हमने तो भोपाल में ब्याही थी,’’ सौरेश सामान्य ढंग से बातचीत करने लगा. नयना ने अपना मूड ठीक किया, सोचा शायद इतने वर्षों से संयुक्त परिवार और एक बी-ग्रेड शहर में रहने के कारण वो हर चीज़ को संकीर्णता से देखने लगी है. उसने बरसों बाद मिले अपने भाई से खूब गप्पें लगाईं, उन्हें खाना परोसा और अपनी शादी का एल्बम भी दिखाया. जल्दी ही फिर मिलने का वादा कर सौरेश चलने को हुआ. नयना उसे विदा करने लिफ़्ट तक आई. “एक सेल्फ़ी तो बनती है,’’ कह सौरेश ने नयना के साथ दो-तीन सेल्फ़ी लीं. जाने से पहले एक बार फिर सौरेश ने नयना को अपने सीने से एकमेक कर लिया. एक बार फिर नयना को सौरेश की मुट्ठियों का धक्का महसूस हुआ. क्या ये ग़लतफ़हमी है या फिर... नयना एक अजीब उलझन अनुभव करने लगी. बरसों बाद मिला भाई, उसके बारे में ऐसी शंका अपने पति से भी नहीं बांट सकती थी.
“बैंगलोर में ही तो सौरेश भैया रहते हैं, तू कभी मिल क्यों नहीं लेती उनसे?,’’ दीदी से ये बात जानकार नयना का मन सौरेश भैया से मिलने का हो आया.
“हां दीदी, शादी के बाद कभी मिलना ही नहीं हुआ उनसे. पिछली बार जब मिले थे उनकी शादी में तब मैं पोस्टग्रैजुएशन के आख़िरी वर्ष की परीक्षाएं दे रही थी.”
सौरेश, नयना की बुआ का लड़का था. उन दोनों की उम्र में तीन वर्ष का अंतराल होने के कारण उनकी आपस में अच्छी निभती थी. बुआ काफ़ी दूर दूसरे शहर में रहती थीं. फूफाजी का परिवार काफ़ी बड़ा था और सारी ज़िम्मेदारियां उन्हीं पर थीं सो बुआ का आना कम ही हो पता था. दो-तीन वर्षों में चक्कर लगता था एक-दूसरे के घर का, छुट्टियों में. या कोई शादी-ब्याह आ गया तो उसमें सभी की टोली एकत्रित हो जाती थी. बड़े होने तक सभी भाई-बहनों की शादियां हो चुकी थीं. सौरेश भैया की शादी में नयना गई थी पर इसकी शादी में सौरेश विदेश गया होने के कारण नहीं आ पाया था. फिर सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यस्त हो गए. आज ये पता चलने पर कि वो भी इसी शहर में है, नयना को ये शहर कुछ अपना-सा लगने लगा था. उसी दिन बुआ को फ़ोन किया और सौरेश का फ़ोन-नंबर लिया.
“पहचानो कौन बोल रही हूं,’’ बाल-सुलभ हंसी-ठिठोली करने लगी नयना फ़ोन पर.
“आप ही बता दीजिए, हम तो आपकी आवाज़ सुनकर ही हार बैठे हैं,’’ सौरेश की आवाज़ पहले के मुक़ाबले परिपक्व प्रतीत हो रही थी. किन्तु उसके बात करने का रंग-ढंग नयना को किंचित अजीब लगा. न जाने क्यों पर उसके ज़हन में फ़िल्मों के पुराने विलेन रंजीत की छवि अवतरित हो गई, मानो वो मुंह बिचकाए अपनी गर्दन पर हाथ फिराते हुए ये कह रहा हो.
Vachan Sootra
बात को लंबा न खींचते हुए नयना बोल पड़ी,“सौरेश भैया, मैं नयना! मैं अब बैंगलोर में रहने आ गयी हूं. पता चला आप भी यहीं रहते हैं सो फ़ोन घुमा डाला.”
“ओह, नयना तुम!,’’ शायद सौरेश, नयना की आवाज़ से भ्रमित हो किसी और को समझ बैठा था.
“कैसी हो, कहां रह रही हो? तुम्हारे दूल्हे मियां कहां काम करते हैं?” और दोनों का काफ़ी अरसे से छूटा हुआ तार एक बार फिर जुड़ने लगा. नयना ने अपने घर का पता बताया तो सौरेश बोला,“मेरा ऑफ़िस कुछ ख़ास दूर नहीं है. चल, आता हूं तुझसे मिलने अभी.”
“अभी?,’’ नयना का चौंकना स्वाभाविक था. “शाम को आओ न भाभी और गुड़िया को लेकर. इनसे भी मिलना हो जाएगा.”
“तेरे ‘इनसे’ भी मिल लेंगे, पर अभी तुझसे मिलने का मन हो रहा है. देखूं तो सही इतने सालों में कितना बदल गई है. क्या अब भी माथे पर गिरती अपनी लट को फूंक से उड़ाती है?” सौरेश की बात से नयना के मस्तिष्क पटल पर लड़कपन की स्मृतियां तैरने लगीं.
सौरेश एक छोटे क़स्बे में रहता था और नयना महानगर में ही पली-बढ़ी थी. उसकी स्टाइल्स से सौरेश सदैव प्रभावित रहा था. जब भी मिलता और नयना उसे हैलो-हाय करती तब हमेशा कहता,‘ज़रा फिर से हाय बोल कर दिखा, तेरे मुंह से बहुत अच्छा लगता है.’ सौरेश को अब तक याद है कि नयना माथे पर गिरती अपनी लट को फूंक से उड़ाती थी ये सोच कर उसे हंसी आ गई.
कुछ ही देर पश्चात घंटी बजी तो नयना समझ गई कि सौरेश भैया होंगे. उनके आने से पूर्व उसने भोजन की तैयारी कर ली थी फटाफट आलू-टमाटर की तीखी रसेदार सब्ज़ी, और मिक्स-वेज बना डाली थी. आटा भी मल कर रख दिया था, बस रोटियां सेंकनी बाक़ी थीं. इन्हीं सब कामों को निबटाते उसे लिपस्टिक लगाने तक का समय नहीं मिला था. बालों को जूड़े में बांधते हुए उसने दरवाज़ा खोला. सौरेश भैया समकक्ष खड़े थे. काफ़ी बदलाव आ गया था उनमें बाल उड़ गए थे, चेहरे पर परिपक्वता आ गई थी और चश्मा भी लग गया था.
“भैया,’’ कहते हुए नयना जैसे ही आगे बढ़ी सौरेश ने लगभग खींचते हुए उसे अपनी बाहुपाश में जकड़ लिया. और फिर इतना कसकर गले लगाया कि उसकी ब्रा का हुक उसकी पीठ में धंस गया. उसने सौरेश की मुट्ठियों को अपनी पीठ पर महसूस किया जैसे वो उसे सौरेश की छाती में चिपकाए डाल रही हों. नयना कसमसा उठी. ये क्या तरीक़ा है मिलने का? कोई भाई-बहन ऐसे गले मिलते हैं भला? जैसे ही वो छिटककर दूर हुई, सौरेश हंसते हुए सोफ़े पर विराजमान हो गया.
“और सुना, क्या हाल-चाल हैं तेरे? यहां कैसे आ गई, हमने तो भोपाल में ब्याही थी,’’ सौरेश सामान्य ढंग से बातचीत करने लगा. नयना ने अपना मूड ठीक किया, सोचा शायद इतने वर्षों से संयुक्त परिवार और एक बी-ग्रेड शहर में रहने के कारण वो हर चीज़ को संकीर्णता से देखने लगी है. उसने बरसों बाद मिले अपने भाई से खूब गप्पें लगाईं, उन्हें खाना परोसा और अपनी शादी का एल्बम भी दिखाया. जल्दी ही फिर मिलने का वादा कर सौरेश चलने को हुआ. नयना उसे विदा करने लिफ़्ट तक आई. “एक सेल्फ़ी तो बनती है,’’ कह सौरेश ने नयना के साथ दो-तीन सेल्फ़ी लीं. जाने से पहले एक बार फिर सौरेश ने नयना को अपने सीने से एकमेक कर लिया. एक बार फिर नयना को सौरेश की मुट्ठियों का धक्का महसूस हुआ. क्या ये ग़लतफ़हमी है या फिर... नयना एक अजीब उलझन अनुभव करने लगी. बरसों बाद मिला भाई, उसके बारे में ऐसी शंका अपने पति से भी नहीं बांट सकती थी.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.