12-04-2019, 01:19 AM
नए घर को सजाने की इच्छा नयना में हमेशा से थी. जब किशोरावस्था में प्रवेश किया था, उसने तभी से पत्रिकाओं के गृहसज्जा विशेषांकों पर उसकी दृष्टि अटक जाया करती थी. मां से ज़िद कर वह इन पत्रिकाओं को ख़रीदती और फिर कई-कई बार पन्ने पलटकर अपने घर को सजाने के स्वप्न बुनती रहती. इतने वर्षोंपरांत आज उसकी ये इच्छा पूरी हो रही थी. शाश्वत का तबादला बैंगलोर में होने से वो अपना छोटा-सा नीड़ बसाने यहां आ गए थे. वैसे तो भोपाल की अरेरा कॉलोनी में भी उनका शानदार मकान है, किन्तु एक बसे-बसाए संयुक्त परिवार में ब्याह कर आई नयना को एक भी मौक़ा नहीं मिला था वहां गृहसज्जा का. फ़र्नीचर का कोई हिस्सा हो या शोपीस का कोई टुकड़ा, किसी भी वस्तु की जगह बदलने का अधिकार उसे सासू मां से नहीं मिला था. आख़िर वो घर सासू मां ने अपने टेस्ट से सजाया था. इसीलिए बैंगलोर आकर वो बहुत प्रसन्न थी. बीटीएम लेआउट में एक दो-कमरे के मकान में शिफ़्ट कर लिया था. हालांकि ये घर भोपाल के घर की तुलना में काफ़ी छोटा था,“पर हम बंदे भी तो तीन ही हैं, और कितना बड़ा घर चाहिए हमें!,” शाश्वत का कथन सटीक था. एक कमरे में आठ वर्षीय बेटा आरोह और दूसरे में नयना-शाश्वत सब कुछ ठीक से सेट होने लगा था.
धीरे-धीरे जीवन अपनी रफ़्तार पकड़ने लगा. आरोह सुबह कॉलेज चला जाता और शाश्वत अपने दफ़्तर. फिर घर को सुव्यवस्थित कर नयना अक्सर वॉक पर निकल जाया करती थी.
धीरे-धीरे जीवन अपनी रफ़्तार पकड़ने लगा. आरोह सुबह कॉलेज चला जाता और शाश्वत अपने दफ़्तर. फिर घर को सुव्यवस्थित कर नयना अक्सर वॉक पर निकल जाया करती थी.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.