12-04-2019, 01:09 AM
हैलो
-हुंम...
-चुप क्यों हो गईं?
-कुछ सोच रही थी.
-क्या?
-यही कि कई बार हमें ऐसे गुनाहों की सज़ा क्यों मिलती है, जो हमने किए ही नहीं होते. किसी एक की ग़लती या ज़िद से कितने परिवार टूट बिखर जाते हैं.
-जाने दो दीप्ति, अगर ये चीज़ें मेरे हिस्से में लिखी थीं तो मैं उनसे बच ही कैसे सकता था. ख़ैर, ये बताओ तुमसे मुलाक़ात हो सकती है. यूं ही, थोड़ी देर के लिए. यूं समझो, तुम्हें अरसे बाद एक बार फिर पहले की तरह जीभर कर देखना चाहता हूं.
-नहीं...
-क्यों ?
-नहीं, बस नहीं.
-दीप्ति, तुम्हें भी पता है, अब मैं न तो तुम्हारी ज़िंदगी में आ सकता हूं और न ही तुम मुझे ले कर किसी भी तरह का मोह या भरम ही पाल सकती हो. मेरे तो कोई भी भरम कभी थे ही नहीं. वैसे भी इन सारी चीज़ों से अरसा पहले बहुत ऊपर उठ चुका हूं.
-शायद इसी वजह से मैं न मिलना चाहूं.
-क्या हम दो परिचितों की तरह एक कप कॉफ़ी के लिए भी नहीं मिल सकते?
-नहीं.
-इसकी वजह जान सकता हूं.
-मुझे पता है और शायद तुम भी जानते हो, हम आज भी सिर्फ़ दो दोस्तों की तरह नहीं मिल पाएंगे. हो ही नहीं पाएगा. यह एक बार मिलकर सिर्फ़ एक कप कॉफ़ी पीना ही नहीं होगा. मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानती हूं. तुम बेशक अपने आप को संभाल ले जाओ, इतने बड़े हादसे से ख़ुद को इतने बरसों से हुए ही हो. लेकिन मैं आज भी बहुत कमज़ोर पड़ जाऊंगी. ख़ुद को संभालना मेरे लिए हमेशा बहुत मुश्क़िल होता है.
-मैं तुम्हें क़त्तई कमज़ोर नहीं पड़ने दूंगा.
-यही तो मैं नहीं चाहती कि मुझे ख़ुद को संभालने के लिए तुम्हारे कंधे की ज़रूरत पड़े.
-अगर मैं बिना बताए सीधे ही तुम्हारे ऑफ़िस में चला आता तो?
-हमारे ऑफ़िस में पहले रिसेप्शन पर अपना नाम पता और आने का मकसद बताना पड़ता है. फिर हमसे पूछा जाता है कि मुलाक़ाती को अंदर आने देना है या नहीं.
-ठीक भी है. आप ठहरी इतने बड़े मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रुतबे वाली वरिष्ठ अधिकारी और मैं ठहरा एक फटीचर मास्टर. अब हर कोई ऐरा गैरा तो...
-बस करो प्लीज़. मुझे ग़लत मत समझो. इसमें कुछ भी ऑफ़िशियल नहीं है. ऐसा नहीं है कि मैंने इस बीच तुम्हें याद न किया हो या तुम्हें मिस न किया हो. बल्कि मेरी ज़िंदगी का एक बेहतरीन दौर तुम्हारे साथ ही गुज़रा है. ज़िंदगी के सबसे अर्थपूर्ण दिन तो शायद वही रहे थे. आईएएस की तैयारियों से लेकर नितांत अकेलेपन के पलों में मैंने हमेशा तुम्हें अपने आसपास पाया था. सच कहूं तो अब भी मैं तुमसे कहीं न कहीं जुड़ाव महसूस करती हूं, बेशक उसे कोई नाम न दे पाऊं या उसे फिर से जोड़ने, जीने की हिम्मत न जुटा पाऊं. संस्कार इज़ाजत नहीं देंगे. हैलो... सुन रहे हो न?
-हां हां... बोलती चलो.
-लेकिन अब इतने बरसों के बाद इस तरह मैं तुम्हारा सामना नहीं कर पाऊंगी. मुझे समझने की कोशिश करो प्लीज़.
-ठीक है नहीं मिलते. आमने-सामने न सही, तुम्हें दूर पास से देखने का तो हक़ है मुझे. मैं भी ज़रा देखूं, तुम्हारा चश्मा अब भी फिसलता क्यों है. पहले की तरह उसे ऊपर बेशक न कर पाऊं, कम से कम देख तो लूं. और हमारी दोस्त जॉइंट सेक्रेटरी बनने के बाद कैसे लगती है, यह भी तो देखें.
-कम से कम सिर पर सींग तो नहीं होते उनके.
-देखने मैं क्या हर्ज़ है?
-जब मुझे सचमुच तुम्हारी ज़रूरत थी या तुम्हें कैसे भी करके मिलने आना चाहिए था तब तो तुमने कभी परवाह नहीं की और अब...
-इस बात को जाने दो कि मैं मिलने के लिए सचमुच सीरियस था या नहीं, सच तो यह है कि एक बार तुम्हारी शादी यह तय हो जाने के बाद तुमने ख़ुद ही तो एक झटके से सारे संबंध काट लिए थे.
-झूठ मत बोलो, मैं शादी के बाद भी तुमसे मिलने आई थी.
-हां, अपना मंगलसूत्र और शादी की चूड़ियां दिखाने कि अब मैं तुम्हारी दीप्ति नहीं मिसेज़ धवन हूं. किसी और की ब्याहता.
-मुझे गाली तो मत दो. तुम्हें सब कुछ पता तो था और तुमने सब कुछ ज्यों का त्यों स्वीकार कर भी कर लिया था जैसे मैं तुम्हारे लिए कुछ थी ही नहीं.
-स्वीकार न करता तो क्या करता. मेरे प्रस्ताव के जवाब में तुम्हारी मम्मी का ज़हर खाने का वो नाटक और तुम्हारा एकदम सरंडर कर देना, मेरा तो क्या, किसी का भी दिल पिघला देता.
-तुम एक बार तो अपनी मर्दानगी दिखाते. मैं भी कह सकती कि मेरा चयन ग़लत नहीं है.
-क्या फ़िल्मी स्टाइल में तुम्हारा अपहरण करता या मजनूं की तरह तुम्हारी चौखट पर सिर पटक पटक कर जान दे देता?
-अब तुम ये गड़े मुरदे कहां से खोदने लग गए. क्या बीस बरस बात यही सब याद दिलाने के लिए फ़ोन किया है?
-मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी. तुम्हीं ने...
-तुम कोई और बात भी तो कर सकते हो.
-हुंम...
-चुप क्यों हो गईं?
-कुछ सोच रही थी.
-क्या?
-यही कि कई बार हमें ऐसे गुनाहों की सज़ा क्यों मिलती है, जो हमने किए ही नहीं होते. किसी एक की ग़लती या ज़िद से कितने परिवार टूट बिखर जाते हैं.
-जाने दो दीप्ति, अगर ये चीज़ें मेरे हिस्से में लिखी थीं तो मैं उनसे बच ही कैसे सकता था. ख़ैर, ये बताओ तुमसे मुलाक़ात हो सकती है. यूं ही, थोड़ी देर के लिए. यूं समझो, तुम्हें अरसे बाद एक बार फिर पहले की तरह जीभर कर देखना चाहता हूं.
-नहीं...
-क्यों ?
-नहीं, बस नहीं.
-दीप्ति, तुम्हें भी पता है, अब मैं न तो तुम्हारी ज़िंदगी में आ सकता हूं और न ही तुम मुझे ले कर किसी भी तरह का मोह या भरम ही पाल सकती हो. मेरे तो कोई भी भरम कभी थे ही नहीं. वैसे भी इन सारी चीज़ों से अरसा पहले बहुत ऊपर उठ चुका हूं.
-शायद इसी वजह से मैं न मिलना चाहूं.
-क्या हम दो परिचितों की तरह एक कप कॉफ़ी के लिए भी नहीं मिल सकते?
-नहीं.
-इसकी वजह जान सकता हूं.
-मुझे पता है और शायद तुम भी जानते हो, हम आज भी सिर्फ़ दो दोस्तों की तरह नहीं मिल पाएंगे. हो ही नहीं पाएगा. यह एक बार मिलकर सिर्फ़ एक कप कॉफ़ी पीना ही नहीं होगा. मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानती हूं. तुम बेशक अपने आप को संभाल ले जाओ, इतने बड़े हादसे से ख़ुद को इतने बरसों से हुए ही हो. लेकिन मैं आज भी बहुत कमज़ोर पड़ जाऊंगी. ख़ुद को संभालना मेरे लिए हमेशा बहुत मुश्क़िल होता है.
-मैं तुम्हें क़त्तई कमज़ोर नहीं पड़ने दूंगा.
-यही तो मैं नहीं चाहती कि मुझे ख़ुद को संभालने के लिए तुम्हारे कंधे की ज़रूरत पड़े.
-अगर मैं बिना बताए सीधे ही तुम्हारे ऑफ़िस में चला आता तो?
-हमारे ऑफ़िस में पहले रिसेप्शन पर अपना नाम पता और आने का मकसद बताना पड़ता है. फिर हमसे पूछा जाता है कि मुलाक़ाती को अंदर आने देना है या नहीं.
-ठीक भी है. आप ठहरी इतने बड़े मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रुतबे वाली वरिष्ठ अधिकारी और मैं ठहरा एक फटीचर मास्टर. अब हर कोई ऐरा गैरा तो...
-बस करो प्लीज़. मुझे ग़लत मत समझो. इसमें कुछ भी ऑफ़िशियल नहीं है. ऐसा नहीं है कि मैंने इस बीच तुम्हें याद न किया हो या तुम्हें मिस न किया हो. बल्कि मेरी ज़िंदगी का एक बेहतरीन दौर तुम्हारे साथ ही गुज़रा है. ज़िंदगी के सबसे अर्थपूर्ण दिन तो शायद वही रहे थे. आईएएस की तैयारियों से लेकर नितांत अकेलेपन के पलों में मैंने हमेशा तुम्हें अपने आसपास पाया था. सच कहूं तो अब भी मैं तुमसे कहीं न कहीं जुड़ाव महसूस करती हूं, बेशक उसे कोई नाम न दे पाऊं या उसे फिर से जोड़ने, जीने की हिम्मत न जुटा पाऊं. संस्कार इज़ाजत नहीं देंगे. हैलो... सुन रहे हो न?
-हां हां... बोलती चलो.
-लेकिन अब इतने बरसों के बाद इस तरह मैं तुम्हारा सामना नहीं कर पाऊंगी. मुझे समझने की कोशिश करो प्लीज़.
-ठीक है नहीं मिलते. आमने-सामने न सही, तुम्हें दूर पास से देखने का तो हक़ है मुझे. मैं भी ज़रा देखूं, तुम्हारा चश्मा अब भी फिसलता क्यों है. पहले की तरह उसे ऊपर बेशक न कर पाऊं, कम से कम देख तो लूं. और हमारी दोस्त जॉइंट सेक्रेटरी बनने के बाद कैसे लगती है, यह भी तो देखें.
-कम से कम सिर पर सींग तो नहीं होते उनके.
-देखने मैं क्या हर्ज़ है?
-जब मुझे सचमुच तुम्हारी ज़रूरत थी या तुम्हें कैसे भी करके मिलने आना चाहिए था तब तो तुमने कभी परवाह नहीं की और अब...
-इस बात को जाने दो कि मैं मिलने के लिए सचमुच सीरियस था या नहीं, सच तो यह है कि एक बार तुम्हारी शादी यह तय हो जाने के बाद तुमने ख़ुद ही तो एक झटके से सारे संबंध काट लिए थे.
-झूठ मत बोलो, मैं शादी के बाद भी तुमसे मिलने आई थी.
-हां, अपना मंगलसूत्र और शादी की चूड़ियां दिखाने कि अब मैं तुम्हारी दीप्ति नहीं मिसेज़ धवन हूं. किसी और की ब्याहता.
-मुझे गाली तो मत दो. तुम्हें सब कुछ पता तो था और तुमने सब कुछ ज्यों का त्यों स्वीकार कर भी कर लिया था जैसे मैं तुम्हारे लिए कुछ थी ही नहीं.
-स्वीकार न करता तो क्या करता. मेरे प्रस्ताव के जवाब में तुम्हारी मम्मी का ज़हर खाने का वो नाटक और तुम्हारा एकदम सरंडर कर देना, मेरा तो क्या, किसी का भी दिल पिघला देता.
-तुम एक बार तो अपनी मर्दानगी दिखाते. मैं भी कह सकती कि मेरा चयन ग़लत नहीं है.
-क्या फ़िल्मी स्टाइल में तुम्हारा अपहरण करता या मजनूं की तरह तुम्हारी चौखट पर सिर पटक पटक कर जान दे देता?
-अब तुम ये गड़े मुरदे कहां से खोदने लग गए. क्या बीस बरस बात यही सब याद दिलाने के लिए फ़ोन किया है?
-मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी. तुम्हीं ने...
-तुम कोई और बात भी तो कर सकते हो.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
