12-04-2019, 01:08 AM
तुम सब कुछ तो जानते थे. मैं उन दिनों एक दम नर्वस ब्रेक डाउन की हालत तक जा पहुंची थी. उन दिनों प्रोबेशन पर थी, एकदम नए माहौल, नई ज़िम्मेवारियों से एडजस्ट कर पाने का संकट, घर के तनाव, उधर ससुराल वालों की अकड़ और ऊपर से तुम्हारी हालत, तुम्हारे पागल कर देने वाले बुलावे. मैं ही जानती हूं, मैंने शुरू के वे दो एक साल कैसे गुज़ारे थे. कितनी मुश्क़िल से ख़ुद को संभाले रहती थी कि किसी भी मोर्चे पर कमज़ोर न पड़ जाऊं.
-मैं इन्हीं वजहों से तुमसे मिलना चाहता रहा कि किसी तरह तुम्हारा हौसला बनाए रखूं. कुछ बेहतर राह सुझा सकूं और मज़े की बात कि तुम भी इन्हीं वजहों से मिलने से कतराती रहीं. आख़िर हम दो दोस्तों की तरह तो मिल ही सकते थे.
-तुम्हारे चाहने में ही कोई कमी रह गई होगी .
रहने भी दो. उन दिनों हमारे कैलिबर का तुम्हें चाहने वाला शहर भर में नहीं था. यह बात उन दिनों तुम भी मानती थीं.
-और अब?
-अब भी इम्तहान ले लो. इतनी दूर से भी तुम्हारी पूरी खोज ख़बर रखते हैं. देख लो, बीस बरस बाद ही सही, मिलने आए हैं. फ़ोन भी हमीं कर रहे हैं.
-लेकिन हो कहां? मुझे तो तुम्हारी रत्ती भर भी ख़बर नहीं मिली कभी.
-ख़बरें चाहने से मिला करती हैं. वैसे मैं अब भी वहीं, उसी विभाग में वही सब कुछ पढ़ा रहा हूं जहां कभी तुम मेरे साथ पढ़ाया करती थी. कभी आना हुआ उस तरफ़ तुम्हारा?
-वैसे तो कई बार आई लेकिन...
-लेकिन हमेशा डरती रही, कहीं मुझसे आमना-सामना न हो जाए...
-नहीं वो बात नहीं थी. दरअसल, मैं किस मुंह से तुम्हारे सामने आती. बाद में भी कई बार लगता रहा, काफ़ी हद तक मैं ख़ुद ही उन सारी स्थितियों की ज़िम्मेवार थी. उस वक़्त थोड़ी हिम्मत दिखाई होती तो...
-तो क्या होता?
-होता क्या, मिस्टर धवन के बच्चों के पोतड़े धोने के बजाये तुम्हारे बच्चों के पोतड़े धोती.
-तो क्या ये सारी जद्दोजहद बच्चों के पोतड़े धुलवाने के लिए होती है?
-दुनियाभर की शादीशुदा औरतों का अनुभव तो यही कहता है.
-तुम्हारा ख़ुद का अनुभव क्या कहता है?
-मैं दुनिया से बाहर तो नहीं.
-विश्वास तो नहीं होता कि एक आईएएस अधिकारी को भी बच्चों के पोतड़े धोने पड़ते हैं.
-श्रीमान जी, आईएएस हो या आईपीएस, जब औरत शादी करती है तो उसकी पहली भूमिका बीवी और मां की हो जाती है. उसे पहले यही भूमिकाएं अदा करनी ही होती हैं, तभी ऑफ़िस के लिए निकल पाती है. तुम्हीं बताओ, अगर तुम्हारे साथ पढ़ाती रहती, मेरा मतलब, वहां रहती या तुमसे रिश्ता बन पाता तो क्या इन कामों से मुझे कोई छूट मिल सकती थी?
-बिलकुल मैं तुमसे ऐसा कोई काम न कराता. बताओ, जब तुम मेरे कमरे में आती थी तो कॉफ़ी कौन बनाता था?
-रहने भी दो. दो-एक बार कॉफ़ी बनाकर क्या पिला दी, जैसे ज़िंदगीभर सुनाने के लिए एक क़िस्सा बना दिया.
-अच्छाल एक बात बताओ, अभी भी तुम्हारा चश्मा नाक से बार-बार सरकता है या टाइट करा लिया है?
-नहीं, मेरी नाक अभी भी वैसी ही है, चाहे जितने महंगे चश्मे ख़रीदो, फिसलते ही हैं.
-पुरानी नकचड़ी जो ठहरी. बताऊं क्या?
-कसम ले लो, तुम्हारी नाक के नखरे तो जगज़ाहिर थे.
-लेकिन तुम्हारी नाक से तो कम ही. जब देखो, गंगा जमुना की अविरल धारा बहती ही रहती थी. वैसे तुम्हारे ज़ुकाम का अब क्या हाल है?
-वैसा ही है.
-कुछ लेते क्यों नहीं?
-मैं इन्हीं वजहों से तुमसे मिलना चाहता रहा कि किसी तरह तुम्हारा हौसला बनाए रखूं. कुछ बेहतर राह सुझा सकूं और मज़े की बात कि तुम भी इन्हीं वजहों से मिलने से कतराती रहीं. आख़िर हम दो दोस्तों की तरह तो मिल ही सकते थे.
-तुम्हारे चाहने में ही कोई कमी रह गई होगी .
रहने भी दो. उन दिनों हमारे कैलिबर का तुम्हें चाहने वाला शहर भर में नहीं था. यह बात उन दिनों तुम भी मानती थीं.
-और अब?
-अब भी इम्तहान ले लो. इतनी दूर से भी तुम्हारी पूरी खोज ख़बर रखते हैं. देख लो, बीस बरस बाद ही सही, मिलने आए हैं. फ़ोन भी हमीं कर रहे हैं.
-लेकिन हो कहां? मुझे तो तुम्हारी रत्ती भर भी ख़बर नहीं मिली कभी.
-ख़बरें चाहने से मिला करती हैं. वैसे मैं अब भी वहीं, उसी विभाग में वही सब कुछ पढ़ा रहा हूं जहां कभी तुम मेरे साथ पढ़ाया करती थी. कभी आना हुआ उस तरफ़ तुम्हारा?
-वैसे तो कई बार आई लेकिन...
-लेकिन हमेशा डरती रही, कहीं मुझसे आमना-सामना न हो जाए...
-नहीं वो बात नहीं थी. दरअसल, मैं किस मुंह से तुम्हारे सामने आती. बाद में भी कई बार लगता रहा, काफ़ी हद तक मैं ख़ुद ही उन सारी स्थितियों की ज़िम्मेवार थी. उस वक़्त थोड़ी हिम्मत दिखाई होती तो...
-तो क्या होता?
-होता क्या, मिस्टर धवन के बच्चों के पोतड़े धोने के बजाये तुम्हारे बच्चों के पोतड़े धोती.
-तो क्या ये सारी जद्दोजहद बच्चों के पोतड़े धुलवाने के लिए होती है?
-दुनियाभर की शादीशुदा औरतों का अनुभव तो यही कहता है.
-तुम्हारा ख़ुद का अनुभव क्या कहता है?
-मैं दुनिया से बाहर तो नहीं.
-विश्वास तो नहीं होता कि एक आईएएस अधिकारी को भी बच्चों के पोतड़े धोने पड़ते हैं.
-श्रीमान जी, आईएएस हो या आईपीएस, जब औरत शादी करती है तो उसकी पहली भूमिका बीवी और मां की हो जाती है. उसे पहले यही भूमिकाएं अदा करनी ही होती हैं, तभी ऑफ़िस के लिए निकल पाती है. तुम्हीं बताओ, अगर तुम्हारे साथ पढ़ाती रहती, मेरा मतलब, वहां रहती या तुमसे रिश्ता बन पाता तो क्या इन कामों से मुझे कोई छूट मिल सकती थी?
-बिलकुल मैं तुमसे ऐसा कोई काम न कराता. बताओ, जब तुम मेरे कमरे में आती थी तो कॉफ़ी कौन बनाता था?
-रहने भी दो. दो-एक बार कॉफ़ी बनाकर क्या पिला दी, जैसे ज़िंदगीभर सुनाने के लिए एक क़िस्सा बना दिया.
-अच्छाल एक बात बताओ, अभी भी तुम्हारा चश्मा नाक से बार-बार सरकता है या टाइट करा लिया है?
-नहीं, मेरी नाक अभी भी वैसी ही है, चाहे जितने महंगे चश्मे ख़रीदो, फिसलते ही हैं.
-पुरानी नकचड़ी जो ठहरी. बताऊं क्या?
-कसम ले लो, तुम्हारी नाक के नखरे तो जगज़ाहिर थे.
-लेकिन तुम्हारी नाक से तो कम ही. जब देखो, गंगा जमुना की अविरल धारा बहती ही रहती थी. वैसे तुम्हारे ज़ुकाम का अब क्या हाल है?
-वैसा ही है.
-कुछ लेते क्यों नहीं?
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
