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बरसात की वह रात
#6
-हैलो, क्या मैं इस नम्बर पर दीप्ति जी से बात कर सकता हूं?
-हां, मैं मिसेज़ धवन ही बात कर रही हूं.
-लेकिन मुझे तो दीप्ति जी से बात करनी है.
-कहा न, मैं ही मिसेज दीप्ति धवन हूं. कहिए, क्या कर सकती हूं मैं आपके लिए?
-कैसी हो?
-मैं ठीक हूं, लेकिन आप कौन?
-पहचानो.. ..
-देखिए, मैं पहचान नहीं पा रही हूं. पहले आप अपना नाम बताइए और बताइए, क्या काम है मुझसे?
-काम है भी ओर नहीं भी
-देखिए, आप पहेलियां मत बुझाइए. अगर आप अपना नाम और काम नहीं बताते तो मैं फ़ोन रखती हूं.
-यह ग़ज़ब मत करना डियर, मेरे पास रुपए का और सिक्का नहीं है.
-बहुत बेशरम हैं आप. आप को मालूम नहीं है, आप किससे बात कर रहे हैं.
-मालूम है तभी तो छूट ले रहा हूं, वरना दीप्ति के ग़ुस्से को मुझसे बेहतर और कौन जानता है.
-मिस्टर, आप जो भी हैं, बहुत बदतमीज़ हैं. मैं फ़ोन रख रही हूं.
-अगर मैं अपनी शराफ़त का परिचय दे दूं तो?
-तो मुंह से बोलिए तो सही. क्यों मेरा दिमाग ख़राब किए जा रहे हैं.
-यार, एक बार तो कोशिश कर देखो, शायद कोई भूला भटका अपना ही हो इस तरफ़.
-मैं नहीं पहचान पा रही हूं आवाज़. आप ही बताइए.
-अच्छा, एक हिंट देता हूं, शायद बात बन जाए.
-बोलिए.
-आज से बीस बरस पहले 1979 की दिसम्बर की एक सर्द शाम देश की राजधानी दिल्ली में कनॉट प्लेस में रीगल के पास शाम छः बजे आपने किसी भले आदमी को मिलने का टाइम दिया था.
-ओह गॉड, तो ये आप हैं जनाब. आज... अचानक... इतने बरसों के बाद?
-जी हां, यह खाकसार आज भी बीस साल से वहीं खड़ा आपका इंतज़ार कर रहा है.
-बनो मत, पहले तो तुम मुझे ये बताओ, तुम्हें मेरा ये नम्बर कहां से मिला? इस ऑफ़िस में यह मेरा चौथा ही दिन है और तुमने...
-हो गए मैडम के सवाल शुरू. पहले तो तुम्हीं बताओ, तब वहां आई क्यों नहीं थी, मैं पूरे ढाई घंटे इंतज़ार करता रहा था. हमने तय किया था, वह हमारी आख़िरी मुलाक़ात होगी, इसके बावजूद...
-तुम्हारा बुद्धूपना ज़रा भी कम नहीं हुआ. अब मुझे इतने बरस बाद याद थोड़े ही है कि कब, कहां और क्यों नहीं आई थी. ये बताओ, बोल कहां से रहे हो और कहां रहे इतने दिन?
-बाप रे, तुम दिनों की बात कर रही हो. जनाब, इस बात को बीस बरस बीत चुके हैं. पूरे सात हज़ार तीन सौ दिन से भी ज़्यादा.
-होंगे. ये बताओ, कैसे हो, कहां हो, कितने हो?
-और ये भी पूछ लो क्यों हो?
-नहीं, यह नहीं पूछूंगी. मुझे पता है तुम्हारे होने की वजह तो तुम्हें ख़ुद भी नहीं मालूम.
-बात करने का तुम्हारा तरीक़ा ज़रा भी नहीं बदला.
-मैं क्या जानूं. ये बताओ इतने बरस बाद आज अचानक हमारी याद कैसे आ गई? तुमने बताया नहीं, मेरा ये नम्बर कहां से लिया?
-ऐसा है दीप्ति, बेशक मैं तुम्हारे इस महानगर में कभी नहीं रहा. वैसे बीच बीच में आता रहा हूं, लेकिन मुझें लगातार तुम्हारे बारे में पता रहा. कहां हो, कैसी हो, कब कब और कहां-कहां पोस्टिंग रही और कब-कब प्रोमोशन हुए. बल्कि चाहो तो तुम्हारी सारी फ़ॉरेन ट्रिप्स की भी फ़ेहरिस्त सुना दूं. तुम्हारे दोनों बच्चों के नाम, कक्षाएं और हाबीज़ तक गिना दूं, बस, यही मत पूछना, कैसे ख़बरें मिलती रहीं तुम्हारी.
-बाप रे, तुम तो यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे. ये इंटैलिजेंस सर्विस कब से जॉइन कर ली? कब से चल रही थी हमारी ये जासूसी?
-ये जासूसी नहीं थी डियर, महज़ अपनी एक ख़ास दोस्त की तरक़्क़ी की सीढ़ियों को और ऊपर जाते देखने की सहज जिज्ञासा थी. तुम्हारी हर तरक़्क़ी से मेरा सीना थोड़ा और चौड़ा हो जाता था, बल्कि आगे भी होता रहेगा.
-लेकिन कभी खोज ख़बर तो नहीं ली हमारी.
-हमेशा चाहता रहा. जब भी चाहा, रुकावटें तुम्हारी तरफ़ से ही रहीं. बल्कि मैं तो ज़िंदगी भर के लिए तुम्हारी सलामती का कान्ट्रैक्ट लेना चाहता था, तुम्हीं पीछे हट गईं. तुम्हीं नहीं चाहती थीं कि तुम्हारी खोज ख़बर लूं, बल्कि टाइम दे कर भी नहीं आती थीं. कई साल पहले, शायद तुम्हारी पहली ही पोस्टिंग वाले ऑफ़िस में बधाई देने गया था तो डेढ़ घंटे तक रिसेप्शन पर बिठाए रखा था तुमने, फिर भी मिलने नहीं आई थीं. मुझे ही पता है कितना ख़राब लगा था मुझे कि मैं अचानक तुम्हारे लिए इतना पराया हो गया कि... तुम्हें आमने-सामने मिलकर इतनी बड़ी सफलता की बधाई भी नहीं दे सकता.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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RE: बरसात की वह रात - by neerathemall - 12-04-2019, 01:07 AM



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