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बरसात की वह रात
#3
राहुल भी लगता है वाक्चातुर्य में पीछे नहीं रहना चाहता था,‘जब चांद-सा रौशन चेहरा सामने हो तो कैंडल लाइट की भी क्या ज़रूरत है? बुझा दो इन्हें भी ख़ुशी की बज़्म में क्या काम है जलनेवालों का?’
राहुल के मुंह से अपने लिए यह सुनना कितना अच्छा लग रहा था! इस क्षणिक मुलाक़ात में ही राहुल अपने विनोदी स्वभाव के कारण कितना अपना-सा लगने लगा था! और फिर इस सावन की रात में माहौल भी कितना रूमानी हो गया था. मोमबत्ती की मद्धम रौशनी में राहुल की प्लेट में आग्रहपूर्वक खाना परोसते हुए मेरे हाथ उसके हाथों से टकराते रहे. हो सकता है जानबूझकर भी दोनों ओर से ऐसा हो रहा हो.
डिनर के बाद हम दोनों सोफ़े पर बैठकर गप्पें लगाते रहे. यहां-वहां की, न जाने कहां कहां की बातें. राहुल का विनोदी स्वभाव मुझे हंसा-हंसाकर लोटपोट करता रहा. मुझे याद नहीं, मैं कभी इतना खुलकर हंसी होऊं.
बातों में मशगूल न जाने कब राहुल की बांहें सोफ़े के पीछे से हौले-हौले मेरे कंधों को स्पर्श करने लगीं मालूम ही नहीं पड़ा. और झूठ क्या बोलूं, मुझे भी यह अच्छा ही लग रहा था. इस श्रावणी रात में मानों मैं स्वयंवरा बन गई थी. बस कल भैया-भाभी के आते ही इस संबंध पर रिश्ते की मुहर लगवाने में देर नहीं करूंगी. राहुल की आंखों में जो नशा उतर रहा था उससे लग रहा था कि मैं भी उसकी पसंद पर खरी उतरी हूं.
इधर मेरी ओर से कोई प्रतिकार न होता देख राहुल और क़रीब और क़रीब आता जा रहा था. पर तभी एक झटके से मानों नींद से जागी. मेरे संस्कारों में शादी से पहले इस तरह के संबंध बनाना गवारा नहीं था. मैंने उसे और आगे बढ़ने से रोकते हुए कहा,‘नहीं राहुल अभी नहीं. कल भैया-भाभी आ जाएं. पहले वे इस रिश्ते को ओके कर दें. फिर बारात लेकर आने में देर न करना, समझे?’ मैंने उसके कान खींचते हुए कहा.
राहुल को जैसे कोई करंट लगा हो. बग़ैर कुछ कहे वह एकदम से उठ खड़ा हुआ और दरवाज़ा खोलकर बालकनी में चला गया. मैंने सुखिया को गहरी नींद से जगाया और अपने कमरे में सुला लिया. राहुल बाद में वहीं ड्राइंग रूम में सोफ़े पर आकर सो गया.
पर मेरी आंखों में नींद कहां थी? मन ही मन राहुल को लेकर सपने बुन रही थी. लग रहा था मुझे मेरी मंज़िल मिल गई है. कुछ ही घंटों में राहुल मुझे कितना अपना-सा लगने लगा था. भैया-भाभी की ओर से इस रिश्ते को नकारने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. कल्पनाओं में मैं राहुल की परिणीता बनी इतराती रही.
सुबह-सुबह थोड़ी झपकी लगी होगी कि मैं अचकचाकर उठी. बारिश थम चुकी थी. सुखिया किचन में रात के बर्तन समेट रही थी. मैंने चारों ओर नज़र दौड़ाई. राहुल कहीं नज़र नहीं आया. मुझे लगा बाथरूम में होगा. बाथरूम में भैया का कुर्ता पायजामा टंगा था, जो राहुल ने रात को पहना था. इधर उसकी अटैची भी नहीं दिखाई दी.
मैंने सुखिया को पुकारा,‘सुखिया तुम्हारे मेहमान कहां गए? ज़रा चाय तो बना दो उनके लिए.’
‘दीदी वो तो मुंह अंधेरे ही उठकर चल दिए. मुझे कहा कि मेरी सुबह की ट्रेन है इसलिए चलता हूं. आपको उठाने लगी तो उन्होंने मना कर दिया कि रहने दो, मैं फिर आऊंगा.’
मैं मन ही मन मुस्कुराई कि राहुल मुझे मालूम है तुम बार-बार वापिस आओगे. पर मुझे अच्छा नहीं लगा कि राहुल मुझसे मिले बग़ैर कैसे चला गया? तभी सोफ़े के कुशन के नीचे दबे क़ागज़ पर मेरी निगाह पड़ी. एक ही सांस में मैं पढ़ गई. लिखा था-गुस्ताख़ी करने जा रहा था. अच्छा हुआ तुमने बहकते क़दमों को रोक दिया. थैंक्यू. बग़ैर मिले जा रहा हूं. माफ़ करना.
femina

तभी दरवाज़े पर भैया-भाभी के आने की आहट आई. वादे के मुताबिक़ वे पहली बस से ही दौड़े चले आए थे. बहुत ख़ुश नजर आ रहे थे. आते ही भाभी ने उत्साह में भरकर कहा,‘रानू, जल्दी से नहाकर तैयार हो जाओ. लड़केवाले आज ही तुम्हें देखने आ रहे हैं. मैंने उन्हें लंच पर बुला लिया है. सब साथ ही मिलकर खाना खाएंगे.’
फिर भाभी मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बग़ैर किचन में घुस गई और सुखिया को बताने लगी कि आज खाने में क्या-क्या बनेगा. मेरी बात सुनने की भाभी को फ़ुरसत ही नहीं थी. मैं अपनी बात कहने के लिए उनके पीछे-पीछे घूमने लगी. पर भैया के सामने कहने की हिम्मत नहीं हुई.
जब भाभी कपड़े बदलने अपने कमरे में गई तो मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दी. समझ नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूं? बड़े संकोच से मैंने कहना शुरू किया,‘भाभी, कल आपकी मौसी का लड़का यहां आया था... हां क्या नाम है उसका...?’ मैंने बनते हुए पूछा.
‘कौन राहुल? कैसे आना हुआ उसका? अकेले ही आया था या उसकी बीवी भी साथ थी?’ भाभी ने साड़ी को तह करते हुए पूछा.
‘राहुल की बीवी?’ सुनते ही मैं मानो आसमान से ज़मीन पर आ गिरी.
भाभी मेरी ओर पीठ किए अलमारी में से कपड़े निकाल रही थीं. उन्हें मेरी इस हालत का बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था.
पर मैंने जल्दी ही अपने आप को संभाल लिया और कहा,‘आया तो अकेला ही था. सुखिया ने बढ़िया खाना बनाकर खिला दिया था. रात को वहीं सोफ़े पर सो गया और सुबह न जाने कब चला गया, मालूम ही नहीं पड़ा. जाते समय मिलकर भी नहीं गया,’ मैं बड़ी सफ़ाई से सारी बातें छुपा गई. अब कहने को क्या बचा था?
‘कोई बात नहीं. उससे तो मैं बाद में निबटूंगी. चल अब तू जल्दी से तैयार हो जा. आज मेरी यह गुलाबी सिल्क साड़ी पहन लेना. तुझपर बहुत खिलती है.’ कहते हुए भाभी ने पलंग पर साड़ी रख दी और कमरे से निकल गई.
मेरे सर पर हज़ारों हथौड़े बरस रहे थे. मुझे ग़ुस्सा आ रहा था कि राहुल ने मुझसे यह बात क्यों छुपाई कि वह शादीशुदा है? हां, पर मैंने ही उससे यह कब पूछा था? या उसे यह सब बताने का मौक़ा ही कहां दिया? यह भावनाओं का ज्वार था या मौसम का ख़ुमार? या अचानक मिले एकांत का लाभ उठा लेने का लोभ? या फिर मेरे अन्तर्मन में छुपी यह भावना कि जल्दी से जल्दी मेरी कहीं शादी तय हो जाए, ताकि भैया मेरी चिंता से मुक्त हो जाएं? क्या यही सोचकर मैं इस श्रावणी रात में स्वयंवरा बनने को आकुल हो गई थी? पर राहुल स्वयं शादीशुदा होते हुए मौक़े का फ़ायदा नहीं उठा रहा था क्या? मुझे ख़ुद पर ग़ुस्सा आ रहा था कि क्यों मैंने एक अजनबी पर इतना विश्वास किया कि उसे जीवनसाथी बनाने के सपने देखने लगी! पर फिर भी, अभी तो कुछ नहीं बिगड़ा था. मैंने ख़ुद को एक फिसलन भरे रास्ते पर फिसलने से रोक लिया था, इस अनुभूति से मुझे जो राहत मिली उसे मैं बयान नहीं कर सकती. साथ ही रात की उस घटना ने मुझे यह सबक दिया कि कभी भी, कहीं भी कोई भी, किसी भी रूप में हमारा फ़ायदा उठा सकता है, उसका प्रतिकार करने का हममें साहस होना चाहिए.
मैं न जाने कितनी देर तक इसी अन्तर्द्वन्द्व से जूझती रही. तभी भाभी ने आकर कमरे में झांका,‘अरे रानू, तू तो अभी तक वैसी की वैसी बैठी है? कब तैयार होगी? देख वो लोग तो आ भी गए हैं.’
ड्रॉइंग रूम से मेहमानों के आने की हलचल की आवाज़ें आ रही थीं. मैंने गुलाबी सिल्क की साड़ी पलंग से उठाते हुए कहा,‘बस भाभी, मैं जल्दी से तैयार होकर अभी आई.’
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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RE: बरसात की वह रात - by neerathemall - 12-04-2019, 01:05 AM



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