28-04-2021, 08:58 PM
फागुन
फागुन दिन रात बरसता। और उर्मी तो…
बस मन करता था कि वो हरदम पास में रहे… हम मुँह भर बतियाते…
कुछ नहिं तो बस कभी बगीचे में बैठ के कभी तालाब के किनारे… और होली तो अब जब वह मुझे छेड़ती तो मैं कैसे चुप रहता… जिस सुख से उसने मेरा परिचय करा दिया था। तन की होली मन की होली… मेरा मन तो सिर्फ उसी के साथ…
लेकिन वह खुद मुझे उकसाती।
एक दिन उसकी छोटी बहन रूपा… हम दोनों साथ-साथ बैठे थे सर पे गुलाल छिड़क के भाग गई।
मैं कुछ नहीं बोला।
वो दोनों हाथों में लाल रंग लेकर मेरे गालों पे।
उर्मी ने मुझे लहकाया।
जब मैंने पकड़ के गालों पे हल्का सा रंग लगाया तो मुझे जैसे चुनौती देते हुए, रूपा ने अपने उभार उभारकर दावत दी।
मैंने जब कुछ नहीं किया तो उर्मी बोली-
“अरे मेरी छोटी बहन है, रुक क्यों गये मेरी तो कोई जगह नहीं छोड़ते…और खुद उसका दुप्पटा खींच के दूर फेंक दिया, कान में बोली तेरी साली लगेगी ”
फिर क्या था मेरे हाथ गाल से सरक कर।
रूपा भी बिना हिचके अपने छोटे छोटे।
पर उर्मी… उसे शायद लगा की मैं अभी भी हिचक रहा हूँ, बोली- “अरे कपड़े से होली खेल रहे हो या साली से। मैं तेरे भैया की साल्ली हूँ तो ये तुम्हारी…”
मैं बोला- “अभी बच्ची है इसलिये माफ कर दिया…”
वो दोनों एक साथ बोलीं- “चेक करके तो देखो…”
फिर क्या था… मेरे हाथ कुर्ते के अंदर कच्चे उभरते हुए उभारों का रस लेने लगे, रंग लगाने के बहाने।
उर्मी ने पास आके उसका कान पकड़ा और बोली- “क्यों बहुत चिढ़ाती थी ना मुझे, दीदी कैसे लगता है तो अब तू बोल कैसे लग रहा है?”
वो हँसकर बोली- “बहुत अच्छा दीदी… अब समझ में आया की क्यों तुम इनसे हरदम चिपकी रहती हो…” और छुड़ा के हँसती हुई ये जा… वो जा।
दिन सोने के तार की तरह खिंच रहे थे।
मैं दो दिन के लिये आया था चार दिन तक रुका रहा। भाभी कहती- “सब तेरी मुरली की दीवानी हैं…”
मैं कहता- “लेकिन भाभी अभी आपने तो हाथ नहीं लगाया, मैं तो इतने दिन से आपसे…”
तो वो हँसकर कहतीं-
“अरे तेरे भैया की मुरली से ही छुट्टी नहीं मिलती। और यहां तो हैं इतनी… लेकिन चल तू इतना कहता है तो होली के दिन हाथ क्या सब कुछ लगा दूंगी…”
और फिर जाने के दिन… उर्मी अपनी किसी सहेली से बात कर रही थी।
होली के अगले दिन ही उसका गौना था। मैं रुक गया और उन दोनों की बात सुनने लगा। उसकी सहेली उसके गौने की बात करके छेड़ रही थी। वो उसके गुलाबी गालों पे चिकोटी काट के बोली-
“अरे अबकी होली में तो तुझे बहुत मजा आयेगा। असली पिचकारी तो होली के बाद चलेगी… है ना?”
“अरे अपनी होली तो हो ली। होली आज जरे चाहे, काल जरे फागुन में पिया…”
उसकी आवाज में अजब सी उदासी थी। मेरी आहट सुन के दोनों चुप हो गई।
मैं अपना सूट्केस ढूँढ़ रहा था। भाभी से पूछा तो उन्होंने मुश्कुरा के कहा- “आने पे तुमने जिसको दिया था उसी से मांगों…”
मैंने बहुत चिरौरी मिनती की तो जाके सूटकेस मिला लेकिन सारे कपड़ों की हालत… रंग लगे हाथ के थापे, आलू के ठप्पों से गालियां और सब पे मेरी बहन का नाम ले लेकर एक से एक गालियां…
वो हँसकर बोली- “अब ये पहन के जाओ तो ये पता चलेगा की किसी से होली खेल के जा रहे हो…” मजबूरी मेरी… भाभी थोड़ी आगे निकल गई तो मैं थोड़ा ठहर गया उर्मी से चलते-चलते बात करने को।
“अबकी नहीं बुलाओगी…” मैंने पूछा।
“उहुं…” उसका चेहरा बुझा बुझा सा था- “तुमने आने में देर कर दी…” वो बोली और फिर कहा- “लेकिन चलो जिसकी जितनी किश्मत… कोई जैसे जाता है ना तो उसे रास्ते में खाने के लिये देते हैं तो ये तुम्हारे साथ बिताये चार दिन… साथ रहेंगें…”
मैं चुप खड़ा रहा।
अचानक उसने पीठ के पीछे से अपने हाथ निकाले और मेरे चेहरे पे गाढ़ा लाल पीला रंग… और पास में रखे लोटे में भरा गाढ़ा गुलाबी रंग… मेरी सफेद शर्ट पे और बोली-
“याद रखना ये होली…”
मैं बोला- “एकदम…”
तब तक किसी की आवाज आयी- “हे लाला जल्दी करो बस निकल जायेगी…”
रास्ते भर कच्ची पक्की झूमती गेंहूँ की बालियों, पीली-पीली सरसों के बीच उसकी मुश्कान।
फागुन दिन रात बरसता। और उर्मी तो…
बस मन करता था कि वो हरदम पास में रहे… हम मुँह भर बतियाते…
कुछ नहिं तो बस कभी बगीचे में बैठ के कभी तालाब के किनारे… और होली तो अब जब वह मुझे छेड़ती तो मैं कैसे चुप रहता… जिस सुख से उसने मेरा परिचय करा दिया था। तन की होली मन की होली… मेरा मन तो सिर्फ उसी के साथ…
लेकिन वह खुद मुझे उकसाती।
एक दिन उसकी छोटी बहन रूपा… हम दोनों साथ-साथ बैठे थे सर पे गुलाल छिड़क के भाग गई।
मैं कुछ नहीं बोला।
वो दोनों हाथों में लाल रंग लेकर मेरे गालों पे।
उर्मी ने मुझे लहकाया।
जब मैंने पकड़ के गालों पे हल्का सा रंग लगाया तो मुझे जैसे चुनौती देते हुए, रूपा ने अपने उभार उभारकर दावत दी।
मैंने जब कुछ नहीं किया तो उर्मी बोली-
“अरे मेरी छोटी बहन है, रुक क्यों गये मेरी तो कोई जगह नहीं छोड़ते…और खुद उसका दुप्पटा खींच के दूर फेंक दिया, कान में बोली तेरी साली लगेगी ”
फिर क्या था मेरे हाथ गाल से सरक कर।
रूपा भी बिना हिचके अपने छोटे छोटे।
पर उर्मी… उसे शायद लगा की मैं अभी भी हिचक रहा हूँ, बोली- “अरे कपड़े से होली खेल रहे हो या साली से। मैं तेरे भैया की साल्ली हूँ तो ये तुम्हारी…”
मैं बोला- “अभी बच्ची है इसलिये माफ कर दिया…”
वो दोनों एक साथ बोलीं- “चेक करके तो देखो…”
फिर क्या था… मेरे हाथ कुर्ते के अंदर कच्चे उभरते हुए उभारों का रस लेने लगे, रंग लगाने के बहाने।
उर्मी ने पास आके उसका कान पकड़ा और बोली- “क्यों बहुत चिढ़ाती थी ना मुझे, दीदी कैसे लगता है तो अब तू बोल कैसे लग रहा है?”
वो हँसकर बोली- “बहुत अच्छा दीदी… अब समझ में आया की क्यों तुम इनसे हरदम चिपकी रहती हो…” और छुड़ा के हँसती हुई ये जा… वो जा।
दिन सोने के तार की तरह खिंच रहे थे।
मैं दो दिन के लिये आया था चार दिन तक रुका रहा। भाभी कहती- “सब तेरी मुरली की दीवानी हैं…”
मैं कहता- “लेकिन भाभी अभी आपने तो हाथ नहीं लगाया, मैं तो इतने दिन से आपसे…”
तो वो हँसकर कहतीं-
“अरे तेरे भैया की मुरली से ही छुट्टी नहीं मिलती। और यहां तो हैं इतनी… लेकिन चल तू इतना कहता है तो होली के दिन हाथ क्या सब कुछ लगा दूंगी…”
और फिर जाने के दिन… उर्मी अपनी किसी सहेली से बात कर रही थी।
होली के अगले दिन ही उसका गौना था। मैं रुक गया और उन दोनों की बात सुनने लगा। उसकी सहेली उसके गौने की बात करके छेड़ रही थी। वो उसके गुलाबी गालों पे चिकोटी काट के बोली-
“अरे अबकी होली में तो तुझे बहुत मजा आयेगा। असली पिचकारी तो होली के बाद चलेगी… है ना?”
“अरे अपनी होली तो हो ली। होली आज जरे चाहे, काल जरे फागुन में पिया…”
उसकी आवाज में अजब सी उदासी थी। मेरी आहट सुन के दोनों चुप हो गई।
मैं अपना सूट्केस ढूँढ़ रहा था। भाभी से पूछा तो उन्होंने मुश्कुरा के कहा- “आने पे तुमने जिसको दिया था उसी से मांगों…”
मैंने बहुत चिरौरी मिनती की तो जाके सूटकेस मिला लेकिन सारे कपड़ों की हालत… रंग लगे हाथ के थापे, आलू के ठप्पों से गालियां और सब पे मेरी बहन का नाम ले लेकर एक से एक गालियां…
वो हँसकर बोली- “अब ये पहन के जाओ तो ये पता चलेगा की किसी से होली खेल के जा रहे हो…” मजबूरी मेरी… भाभी थोड़ी आगे निकल गई तो मैं थोड़ा ठहर गया उर्मी से चलते-चलते बात करने को।
“अबकी नहीं बुलाओगी…” मैंने पूछा।
“उहुं…” उसका चेहरा बुझा बुझा सा था- “तुमने आने में देर कर दी…” वो बोली और फिर कहा- “लेकिन चलो जिसकी जितनी किश्मत… कोई जैसे जाता है ना तो उसे रास्ते में खाने के लिये देते हैं तो ये तुम्हारे साथ बिताये चार दिन… साथ रहेंगें…”
मैं चुप खड़ा रहा।
अचानक उसने पीठ के पीछे से अपने हाथ निकाले और मेरे चेहरे पे गाढ़ा लाल पीला रंग… और पास में रखे लोटे में भरा गाढ़ा गुलाबी रंग… मेरी सफेद शर्ट पे और बोली-
“याद रखना ये होली…”
मैं बोला- “एकदम…”
तब तक किसी की आवाज आयी- “हे लाला जल्दी करो बस निकल जायेगी…”
रास्ते भर कच्ची पक्की झूमती गेंहूँ की बालियों, पीली-पीली सरसों के बीच उसकी मुश्कान।