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Adultery स्वीटी नहीं जूली को चोद
#7
एक घक्का लगा और उसका शिश्न थोड़ा और भीतर धँस गया। छेद मानो खिंचकर फटने लगी। मैं दर्द से बिलबिला उठी। जोर लगाकर उसे हटाना चाहा मगर उससे खुद को छुड़ा नहीं पाई। ऊपर वह मुझे कंधों से जकड़े हुए था और नीचे मेरे पैरों को मोड़कर सामने से अपने पैरों से चाँपे था। छूटती किस तरह! उसने और जोर से दबाया।

आह, मैं मर जाउंगी। शिश्न की मोटी गर्दन कील की तरह छेद में धँस गई। वह ठहर गया। शायद छेद को फैलने के लिए समय दे रहा था। मैंने उसे बगलों से पकड़कर ठेलकर छुड़ाने की कोशिश की। मगर सफलता नहीं मिली। वह कसकर मुझे जकड़े था। कोई उपाय नहीं। कोई सहायता नहीं। बुरी तरह फँसी हुई थी। योनि के खिंचाव का दर्द कुछ कम होने लगा। हल्की सी राहत मिली। झेल पाने की हिम्मत बंधी।

मगर तभी एक जोरदार धक्का आया और धक्के के जोर से सारा बदन ऊपर ठेला गया। शिश्न मुझे लगभग फाड़ते हुए मेरे अंदर घुस गया। मैं दर्द से चीख उठी मगर उसने मेरा मुँह बंद कर आवाज अंदर ही घोंट दी। वह बेरहम हो रहा था। लगा आज वह मुझे मार ही डालेगा। जिस तरह कुल्हाड़ी लकड़ी को फाड़ती है उसी तरह मैं फटी जा रही थी। वह मुझे छटपटाने भी नहीं दे रहा था, हर तरफ से जकड़े था, मुँह पर हाथ दबाए था और नीचे दोनों पाँव जुड़े हुए उसके पैरों से मेरे नितम्बों पर दबे थे, ऊपर से कंधे जकडे था, हिलना भी मुश्किल था। अब वह कोई दया दिखाने को तैयार नहीं था। छेद पर अपना दवाब बढ़ाता जा रहा था। कील धीरे धीरे मुझमें ठुकती जा रही थी। शिश्न मेरे काफी अंदर घुस चुका था। योनि के चिकने गीलेपन में वह भीतर सरकता ही जा रहा था। मैं दर्द से व्याकुल हो रही थी। नश्तर की एक धार मुझे चीरती जा रही थी।

छोड़ दो ! छोड़ दो ! मगर मुँह बंधे जानवर की तरह उम... उम.... की आवाज भीतर ही घुट रही थी।

उस सुरंग में सरकते हुए उसका शिश्न मानो किसी रुकावट से टकराया। कोई चीज दीवार की तरह उसका रास्ता रोक रही थी। वह चीज उसके नोंक के दबाव में खिंचती हुई भी आगे बढ़ने नहीं दे रही थी। मेरे भीतर मानो फटा जा रहा था। उसने बेरहमी से और जोर लगाया। भीतर का पर्दा मानो फटने लगा। दर्द की इन्तहा हो गई। मैंने जांघें भींच लीं। किस तरह छुड़ाऊँ। कई तरफ से जोर लगाया। मगर कुछ कर नहीं पाई। रस्सी से बंधे बकरे की तरह हलाल हो रही थी। विवशता में रो पड़ी। सिर्फ जांघों को भींचकर खुद को बचाने की कोशिश कर रही थी। मगर जांघें तो फैली थी। भींचने की कोशिश में छेद और सख्त हो रहा था, उससे और पीड़ा हो रही थी।

शायद उसे मुझ पर तरस आया। उसने मेरे बहते आँसुओं पर अपने होंट रख दिए। मुझे उस दर्द में भी उस पर दया आई। यह आदमी फिर भी क्रूर नहीं है। मेरा दर्द समझ रहा है। उसने सारे आँसू चूस लिये। मेरी बंद पलकों पर जीभ फिराकर उन्हें भी सुखा दिया। कैसा विरोधाभास था ! नीचे से लिंग की कठोर, जान निकाल देनेवाली क्रूरता, उपर से उसकी जीभ का कोमल सहानुभूति भरा सांत्वनादायी प्यार।

उसने मेरे चिड़िया की तरह अधखुले मुँह पर बार बार चुम्बन की मुहर लगाई। फिर ठुड्डी को, गले को, कॉलर की हड्डी को चूमता हुआ नीचे उतरा और प्रतीक्षा में फुरफुराती मेरी बाईं चूची को होंठों में अंदर गर्म घेरे में ले लिया। फिर मेरे दाएं कंधे के नीचे से हाथ निकालकर वह मेरी प्रतीक्षारत दूसरी चूची को चुटकी में पकड़कर मसलने लगा। नीचे तड़तड़ाहट के दर्द के बावजूद आनंद की लहरें मुझमें दौड़ने लगीं।

एक तरफ दर्द और दूसरे तरफ आनंद की लहर। किधर जाऊँ! एक तड़पा रही थी दूसरी ललचा रही थी। कुछ क्षण आनंद के हिचकोले मुझे झुलाते रहे और उन हिचकोलों में चुभन की पीड़ा भी कुछ मध्दिम होती सी प्रतीत हुई। हालांकि वह मुझमें उतना ही घुसा हुआ था।

\"स्वीटी आई लव यू... आई लव यू ....\" वह नीचे चूचियों को चूसते हुए वहीं से बुदबुदाया।

‘स्वीटी !’ हाँ, मैं जूली नहीं स्वीटी थी। उसके लिए स्वीटी। संवेदनों की तेज सनसनाहट में मैं भूल गई थी कि मैं स्वीटी नहीं जूली थी। वह इतना प्यार मुझ पर बरसा रहा था कोई और समझकर। मुझे पछतावा हुआ। इच्छा हुई उसे बता दूँ। मगर आनंद और दर्द की लहरों में यह खयाल मुझे निरर्थक लगा। जो कुछ मैं भोग रही थी, जो आनंद, जो दर्द मुझे मिल रहा था उसमें इससे क्या फर्क पड़ता था मैं कौन हूँ। वह भोगना ही था। वह स्त्री देह की अनिवार्य नियति थी। कोई और राह नहीं थी। नीचे उस अनजान अतिथि को मेरी योनि अपनी पहचान के रस में डुबोकर भीतर बुला ही चुकी थी। अब क्या बाकी रहा था?

और तभी आँखों के आगे चिनगारियाँ सी छूटीं और मैं बेसम्हाल उठी दर्द की लहर में बेहोश सी हो गई।

‘धचाक’..! उसने शिश्न को थोड़ा बाहर खींचा था।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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RE: स्वीटी नहीं जूली को चोद - by neerathemall - 28-03-2019, 02:13 AM



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