27-03-2019, 12:02 PM
मैंने उसके ख़यालों के दलदल में फंसे मन को नैतिकता की रस्सी से खींच निकालने की बहुत कोशिश की लेकिन मैं उनमें और फंसती जा रही थी। सोचते-सोचते दिमाग थक गया और सुबह के अलार्म के साथ ही नींद खुली।
मैं नहा-धोकर कॉलेज के लिए तैयार हुई ही थी कि निशा आ पहुंची। मैंने किताबें उठाईं और दोनों घर से बाहर निकल गईं।
जाड़ों का मौसम अपने चरम पर था। धुंध इतनी कि गाड़ी कछुए की चाल चल रही थी। मैं सोच रही थी कि क्यों न निशा से इस बारे में बात करूं। क्या पता यह कुछ सलाह दे दे।
फिर सोचा कि रहने देती हूं, इसे वैसे भी बातें पचती नहीं हैं … कहीं सारे कॉलेज में ही चर्चा होने लगे। क्योंकि देवेन्द्र को कॉलेज के चक्कर लगाते कई दिन हो गए थे। और लगभग हर लड़की से उसकी नज़र एक न एक बार तो मिल ही गई होगी अब तक।
कॉलेज पहुंचकर क्लास शुरू हो गई, लेकिन पढ़ाई में ध्यान लगा नहीं। बैठी तो क्लास में थी लेकिन अंदर ही अंदर उधेड़-बुन चल रही थी।
पूरा दिन ऐसे ही निकल गया। शाम को छुट्टी में कॉलेज के गेट के बाहर निकली तो नज़र सीधी पनवाड़ी की दुकान पर गई। देवेन्द्र आज वहां नहीं था। मैंने सोचा कि आज तो मुसीबत टली। शायद मेरे कल के नेगेटिव रेस्पोन्स की वजह से वो समझ गया कि मैं ऐसा कुछ नहीं करना चाहती।
मन ही मन खुश तो रही थी कि लेकिन हल्का सा दुख भी था क्योंकि कॉलेज टाइम में उसी देवेन्द्र के सपने मैं देखा करती थी। और आज जब वो खुद आगे बढ़ना चाहता है तो मेरे कदम मेरा साथ नहीं दे रहे। उसकी एक वजह ये भी थी कि वो मुझे थोड़ा लड़कीबाज़ लगा। कॉलेज टाइम में उसकी जो छवि मेरे मन में थी वो उससे बहुत बहुत बदला बदला सा लगता था अब।
इतने में ही निशा के भाई मुकेश की गाड़ी कॉलेज से थोड़ी दूरी पर रुक कर हॉर्न देने लगी। निशा और मैं दोनों गाड़ी की तरफ बढ़ने लगे। पहले निशा बैठ गई और उसके पीछे-पीछे मैं भी अपना दुपट्टा संभालते हुए अंदर बैठते हुए दरवाज़ा बंद करने लगी तो नज़र ड्राइवर वाली सीट के साथ बैठे दूसरे इंसान पर गई।
मुकेश के साथ देवेन्द्र भी गाड़ी में बैठा था। उसे गाड़ी के अंदर देख मैं सहम गई। यह यहां भी पहुंच गया। मैंने निशा की तरफ देखा और कंधा मारकर देवेन्द्र की तरफ इशारा करते हुए आंखों ही आंखों में उससे पूछा कि ये यहां क्या कर रहा है?
निशा ने फिर भी मेरे इशारे का कोई जवाब नहीं दिया और वो चुपचाप अपने फोन में लग गई। मैंने सोचा कि मुकेश की वजह से कुछ नहीं बोल रही होगी। लेकिन घर जाने के बाद इससे पूछूंगी ज़रूर कि ये सब चल क्या रहा है.
इतने में गाड़ी चल पड़ी और जल्दी ही निशा का घर आ गया। लेकिन ये क्या … निशा के साथ-साथ मुकेश भी गाड़ी से उतर गया।
उतरते हुए मुकेश ने देवेन्द्र से कहा- मुझे कुछ देर में किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना है इसलिए इनको (रश्मि को) घर छोड़कर तू गाड़ी मेरे घर वापस ले आइयो।
मैं चुपचाप बैठी रही और देवेन्द्र उतरकर सामने से घूमकर ड्राइवर वाली खिड़की खोलकर गाड़ी में बैठ गया और गाड़ी का एस्केलेटर दबा दिया। मैंने सामने वाले शीशे में देखा तो वो मुझे ही देख रहा था।
मैंने नज़र झुका ली।
इतने में वो बोल पड़ा- के होया …? कॉलेज मैं तो बड़ी छुप-छुप के देख्या करती … इब इतनी शरम आने लगी तनै माणस?
मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।
वो फिर बोला- अरै बात तो कर ले। मैं के खाऊं हूं तन्नै?
मैंने कहा- ये सब क्या ड्रामा चल रहा है। आज गाड़ी में तुम कैसे आ गए?
वो बोला- क्यूं … पसंद कोनी के तन्नै मैं …?
उसके इस सवाल का जवाब तो वो भी जानता था लेकिन वो मेरे मुंह से कहलवाना चाहता था … और इस वक्त मैंने इसको ये जतलाया कि मैं इसको पसंद करती हूं तो फिर ये ज़बरदस्ती करना शुरू न कर दे, इसलिए मैंने जवाब नहीं दिया, मैं चुप ही रही।
देवेन्द्र ने सफेद टाइट पैंट और गहरे केसरिया रंग की टी-शर्ट पहन रखी थी और उसके ऊपर ब्लेज़र डाला हुआ था। उसे देखकर कोई भी लड़की उस पर फ्लैट हो सकती थी लेकिन मैं अभी रिस्क नहीं लेना चाहती थी।
हम शहर से बाहर आ चुके थे और खेतों का एरिया शुरू हो गया था। शाम के 4 बजने को थे लेकिन सूरज जैसे आज निकला ही नहीं था। बाहर हल्की-हल्की धुएं जैसी पतली धुंध की चादर खेतों के ऊपर अभी से गिरना शुरू होने लगी थी।
जब आधे रास्ते में पहुंच गए तो देवेन्द्र ने गाड़ी धीमी करते हुए एक तरफ सड़क के किनारे रोक दी। वो गाड़ी से उतरा और दरवाज़ा बंद करते हुए कुछ पल सड़क पर बाहर खड़ा रहने के बाद पीछे वाली खिड़की खोलकर अंदर झांका और बोला- ज़रा उस तरफ सरक ले … मुझे कुछ बात करनी है तेरे से।
मैं सीट पर दूसरी तरफ सरक गई और उसने गाड़ी का दरवाज़ा बंद करके उस पर काली जालीदार चिपकने वाली स्क्रीन लगा दी। मेरे दूसरी तरफ खेत थे जहां दूर-दूर तक कोई इंसान नज़र नहीं आ रहा था और ढलती हुई शाम की वजह से सड़क पर भी कोई वाहन दिखाई नहीं दे रहा था।
देवेन्द्र आकर मेरी बगल में बैठ गया और उसने बिना मेरी इजाज़त के मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और सीधा अपने सीने पर रखवा दिया। मुझे उसकी धड़कन अपनी हथेली पर धक-धक करती हुई महसूस हो रही थी। मैंने उसको नज़र उठाकर देखा तो वो भी मेरी आंखों में देखने लगा। उसकी आंखों में अजीब सी कशिश थी।
मेरे कुछ पूछने से पहले उसने बोल दिया- नाराज़ है के मेरे से?
मैंने नीचे देखते हुए ना में गर्दन हिला दी।
“तो फिर बात क्यों नहीं करती मुझसे?” उसने पूछा।
“कोई देख लेगा देवेन्द्र, चलो यहां से … ये सब ठीक नहीं है।” मैंने कहा.
वो बोला- दुनिया को मार गोली, तू ये बता मुझे पसंद करती है या नहीं?
मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।
उसने मेरा हाथ अपने सीने से हटाकर अपनी जांघ पर रखवा लिया और अपने हाथों से मेरी ठुड्डी को उठाते हुए पूछने लगा- कुछ बोलेगी भी या मैं हवा से बातें कर रहा हूं?
उसने धीरे से मेरा हाथ अपनी जांघों पर ऊपर बढ़ाते हुए अपने लिंग पर रखवा दिया जो उसकी पैंट में पहले से ही तना हुआ था। मेरे हाथ रखते ही लिंग ने एक जोर का झटका दिया जिसके बाद मैंने हाथ हटवाना चाहा लेकिन उसने मेरा हाथ पकड़े रखा।
वो बोला- “रश्मि देख मेरी क्या हालत हो रही है … मान जा ना यार …”
मैंने कहा- यार, कोई देख लेगा … चलो यहां से, मुझे घर जाना है।
वो बोला- जब तक तू मेरी बात का जवाब नहीं देती, मैं आज तुझे घर नहीं जाने दूंगा।
“यार देवेन्द्र, मान जाओ ना …”
“तू भी तो नहीं मान रही …” उसने कहा।
“लेकिन … यार …”
इससे पहले मैं कुछ और बोलती उसने मेरी गर्दन पर पीछे मेरे बालों के नीचे हाथ डालकर अपनी तरफ खींचा और मेरे होंठों पर होंठ रखते हुए मुझे चूसने लगा।
साथ ही दूसरे हाथ से वो सीधा मेरे स्तनों को सूट के ऊपर से ही दबाने-सहलाने लगा।
मैंने छुड़ाना तो चाहा लेकिन उसकी पकड़ मजबूत थी और पहली बार उसके होंठों को चूसने में मुझे भी मज़ा सा आ रहा था। मैं उसकी जवानी के जोश की लहरों में धीरे-धीरे उसके साथ बहने लगी।
मैं नहा-धोकर कॉलेज के लिए तैयार हुई ही थी कि निशा आ पहुंची। मैंने किताबें उठाईं और दोनों घर से बाहर निकल गईं।
जाड़ों का मौसम अपने चरम पर था। धुंध इतनी कि गाड़ी कछुए की चाल चल रही थी। मैं सोच रही थी कि क्यों न निशा से इस बारे में बात करूं। क्या पता यह कुछ सलाह दे दे।
फिर सोचा कि रहने देती हूं, इसे वैसे भी बातें पचती नहीं हैं … कहीं सारे कॉलेज में ही चर्चा होने लगे। क्योंकि देवेन्द्र को कॉलेज के चक्कर लगाते कई दिन हो गए थे। और लगभग हर लड़की से उसकी नज़र एक न एक बार तो मिल ही गई होगी अब तक।
कॉलेज पहुंचकर क्लास शुरू हो गई, लेकिन पढ़ाई में ध्यान लगा नहीं। बैठी तो क्लास में थी लेकिन अंदर ही अंदर उधेड़-बुन चल रही थी।
पूरा दिन ऐसे ही निकल गया। शाम को छुट्टी में कॉलेज के गेट के बाहर निकली तो नज़र सीधी पनवाड़ी की दुकान पर गई। देवेन्द्र आज वहां नहीं था। मैंने सोचा कि आज तो मुसीबत टली। शायद मेरे कल के नेगेटिव रेस्पोन्स की वजह से वो समझ गया कि मैं ऐसा कुछ नहीं करना चाहती।
मन ही मन खुश तो रही थी कि लेकिन हल्का सा दुख भी था क्योंकि कॉलेज टाइम में उसी देवेन्द्र के सपने मैं देखा करती थी। और आज जब वो खुद आगे बढ़ना चाहता है तो मेरे कदम मेरा साथ नहीं दे रहे। उसकी एक वजह ये भी थी कि वो मुझे थोड़ा लड़कीबाज़ लगा। कॉलेज टाइम में उसकी जो छवि मेरे मन में थी वो उससे बहुत बहुत बदला बदला सा लगता था अब।
इतने में ही निशा के भाई मुकेश की गाड़ी कॉलेज से थोड़ी दूरी पर रुक कर हॉर्न देने लगी। निशा और मैं दोनों गाड़ी की तरफ बढ़ने लगे। पहले निशा बैठ गई और उसके पीछे-पीछे मैं भी अपना दुपट्टा संभालते हुए अंदर बैठते हुए दरवाज़ा बंद करने लगी तो नज़र ड्राइवर वाली सीट के साथ बैठे दूसरे इंसान पर गई।
मुकेश के साथ देवेन्द्र भी गाड़ी में बैठा था। उसे गाड़ी के अंदर देख मैं सहम गई। यह यहां भी पहुंच गया। मैंने निशा की तरफ देखा और कंधा मारकर देवेन्द्र की तरफ इशारा करते हुए आंखों ही आंखों में उससे पूछा कि ये यहां क्या कर रहा है?
निशा ने फिर भी मेरे इशारे का कोई जवाब नहीं दिया और वो चुपचाप अपने फोन में लग गई। मैंने सोचा कि मुकेश की वजह से कुछ नहीं बोल रही होगी। लेकिन घर जाने के बाद इससे पूछूंगी ज़रूर कि ये सब चल क्या रहा है.
इतने में गाड़ी चल पड़ी और जल्दी ही निशा का घर आ गया। लेकिन ये क्या … निशा के साथ-साथ मुकेश भी गाड़ी से उतर गया।
उतरते हुए मुकेश ने देवेन्द्र से कहा- मुझे कुछ देर में किसी ज़रूरी काम से बाहर जाना है इसलिए इनको (रश्मि को) घर छोड़कर तू गाड़ी मेरे घर वापस ले आइयो।
मैं चुपचाप बैठी रही और देवेन्द्र उतरकर सामने से घूमकर ड्राइवर वाली खिड़की खोलकर गाड़ी में बैठ गया और गाड़ी का एस्केलेटर दबा दिया। मैंने सामने वाले शीशे में देखा तो वो मुझे ही देख रहा था।
मैंने नज़र झुका ली।
इतने में वो बोल पड़ा- के होया …? कॉलेज मैं तो बड़ी छुप-छुप के देख्या करती … इब इतनी शरम आने लगी तनै माणस?
मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।
वो फिर बोला- अरै बात तो कर ले। मैं के खाऊं हूं तन्नै?
मैंने कहा- ये सब क्या ड्रामा चल रहा है। आज गाड़ी में तुम कैसे आ गए?
वो बोला- क्यूं … पसंद कोनी के तन्नै मैं …?
उसके इस सवाल का जवाब तो वो भी जानता था लेकिन वो मेरे मुंह से कहलवाना चाहता था … और इस वक्त मैंने इसको ये जतलाया कि मैं इसको पसंद करती हूं तो फिर ये ज़बरदस्ती करना शुरू न कर दे, इसलिए मैंने जवाब नहीं दिया, मैं चुप ही रही।
देवेन्द्र ने सफेद टाइट पैंट और गहरे केसरिया रंग की टी-शर्ट पहन रखी थी और उसके ऊपर ब्लेज़र डाला हुआ था। उसे देखकर कोई भी लड़की उस पर फ्लैट हो सकती थी लेकिन मैं अभी रिस्क नहीं लेना चाहती थी।
हम शहर से बाहर आ चुके थे और खेतों का एरिया शुरू हो गया था। शाम के 4 बजने को थे लेकिन सूरज जैसे आज निकला ही नहीं था। बाहर हल्की-हल्की धुएं जैसी पतली धुंध की चादर खेतों के ऊपर अभी से गिरना शुरू होने लगी थी।
जब आधे रास्ते में पहुंच गए तो देवेन्द्र ने गाड़ी धीमी करते हुए एक तरफ सड़क के किनारे रोक दी। वो गाड़ी से उतरा और दरवाज़ा बंद करते हुए कुछ पल सड़क पर बाहर खड़ा रहने के बाद पीछे वाली खिड़की खोलकर अंदर झांका और बोला- ज़रा उस तरफ सरक ले … मुझे कुछ बात करनी है तेरे से।
मैं सीट पर दूसरी तरफ सरक गई और उसने गाड़ी का दरवाज़ा बंद करके उस पर काली जालीदार चिपकने वाली स्क्रीन लगा दी। मेरे दूसरी तरफ खेत थे जहां दूर-दूर तक कोई इंसान नज़र नहीं आ रहा था और ढलती हुई शाम की वजह से सड़क पर भी कोई वाहन दिखाई नहीं दे रहा था।
देवेन्द्र आकर मेरी बगल में बैठ गया और उसने बिना मेरी इजाज़त के मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और सीधा अपने सीने पर रखवा दिया। मुझे उसकी धड़कन अपनी हथेली पर धक-धक करती हुई महसूस हो रही थी। मैंने उसको नज़र उठाकर देखा तो वो भी मेरी आंखों में देखने लगा। उसकी आंखों में अजीब सी कशिश थी।
मेरे कुछ पूछने से पहले उसने बोल दिया- नाराज़ है के मेरे से?
मैंने नीचे देखते हुए ना में गर्दन हिला दी।
“तो फिर बात क्यों नहीं करती मुझसे?” उसने पूछा।
“कोई देख लेगा देवेन्द्र, चलो यहां से … ये सब ठीक नहीं है।” मैंने कहा.
वो बोला- दुनिया को मार गोली, तू ये बता मुझे पसंद करती है या नहीं?
मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया।
उसने मेरा हाथ अपने सीने से हटाकर अपनी जांघ पर रखवा लिया और अपने हाथों से मेरी ठुड्डी को उठाते हुए पूछने लगा- कुछ बोलेगी भी या मैं हवा से बातें कर रहा हूं?
उसने धीरे से मेरा हाथ अपनी जांघों पर ऊपर बढ़ाते हुए अपने लिंग पर रखवा दिया जो उसकी पैंट में पहले से ही तना हुआ था। मेरे हाथ रखते ही लिंग ने एक जोर का झटका दिया जिसके बाद मैंने हाथ हटवाना चाहा लेकिन उसने मेरा हाथ पकड़े रखा।
वो बोला- “रश्मि देख मेरी क्या हालत हो रही है … मान जा ना यार …”
मैंने कहा- यार, कोई देख लेगा … चलो यहां से, मुझे घर जाना है।
वो बोला- जब तक तू मेरी बात का जवाब नहीं देती, मैं आज तुझे घर नहीं जाने दूंगा।
“यार देवेन्द्र, मान जाओ ना …”
“तू भी तो नहीं मान रही …” उसने कहा।
“लेकिन … यार …”
इससे पहले मैं कुछ और बोलती उसने मेरी गर्दन पर पीछे मेरे बालों के नीचे हाथ डालकर अपनी तरफ खींचा और मेरे होंठों पर होंठ रखते हुए मुझे चूसने लगा।
साथ ही दूसरे हाथ से वो सीधा मेरे स्तनों को सूट के ऊपर से ही दबाने-सहलाने लगा।
मैंने छुड़ाना तो चाहा लेकिन उसकी पकड़ मजबूत थी और पहली बार उसके होंठों को चूसने में मुझे भी मज़ा सा आ रहा था। मैं उसकी जवानी के जोश की लहरों में धीरे-धीरे उसके साथ बहने लगी।
// सुनील पंडित //
मैं तो सिर्फ तेरी दिल की धड़कन महसूस करना चाहता था
बस यही वजह थी तेरे ब्लाउस में मेरा हाथ डालने की…!!!
बस यही वजह थी तेरे ब्लाउस में मेरा हाथ डालने की…!!!