27-03-2019, 11:56 AM
अभी तक आपने पढ़ा कि अभी तक आपने पढ़ा कि मेरी सहेली निशा का भाई मुकेश जब कॉलेज के आखिरी दिन मुझे घर छोड़ने जा रहा था तो बीच रास्ते में गाड़ी रोककर वो पेशाब करने के बहाने मुझे अपना लिंग दिखाने की कोशिश करने लगा।
मैं अच्छी तरह जानती थी कि वो ऐसा क्यों कर रहा है … लेकिन मुकेश को मैं भाई जैसा ही मानती थी। वो मेरे साथ ऐसी हरकत कैसे कर सकता था। मगर मैं गलत थी, देवेन्द्र से गुफ्तगू के बाद शायद वो मुझे दूसरी नज़र से देखने लगा था। सारे लड़के एक जैसे ही होते हैं। लड़की देखी और उस पर लाइन मारना शुरू …
ऐसा नहीं था कि मेरा किसी लड़के के साथ हमबदन होने का मन नहीं करता था, कई बार करता था और ये तो स्वाभाविक सी बातें हैं मगर जहां तक लड़कों का सवाल है तो उनको हर लड़की बस मनोरंजन का साधन लगती है।
मैं मुकेश की हरकत को देख चुकी थी और मेरी एक नज़र में ही उसका लिंग तनकर अलग से उसकी जींस में टाइट हो गया था।
मेरे दिल में धक-धक होने लगी। मैंने दोबारा मुड़कर उसको नहीं देखा। मैं चुपचाप गर्दन नीचे करके बैठी रही, जैसे मुझे कुछ समझ आया ही न हो। वैसे भी मेरी कुंवारी चूत में मैंने अभी उंगली तक नहीं डाली थी तो लिंग डलवाने का तो सवाल ही नहीं था। और वो भी उस लड़के का … जिसके लिए मैं मन से भी तैयार नहीं हूँ।
वो कुछ देर वहीं सड़क के किनारे खड़ा रहा। लेकिन ज्यादा देर यूं दिन-दहाड़े बीच सड़क पर खड़े होकर अकेली लड़की के साथ रुकना उसने भी मुनासिब नहीं समझा और वो गाड़ी में आकर बैठ गया। उसने गाड़ी स्टार्ट की और बाकी दिनों से दोगुनी स्पीड से सड़क पर दौड़ा दी। वो शायद मेरी बेरुखी से नाराज़ हो गया था। मुझे भी महसूस हो रहा था।
मुझे घर छोड़कर वो वापस चला गया। कॉलेज की सर्दी की छुट्टियाँ हो गई थी इसलिए मैं भी छुट्टियों में पूरा आराम करना चाहती थी। पापा भी ठीक हो गए थे। सर्दियों के छोटे दिन जल्दी ही बीतने लगे। 15 दिन की छुट्टियाँ जैसे 5 दिनों में ही खत्म हो गई, 16 जनवरी से फिर कॉलेज खुलने वाला था। मूड भी फ्रेश था और कॉलेज की मस्ती को भी मिस कर रही थी।
कॉलेज खुलने के पहले दिन पापा ही मुझे छोड़ने गए और वही छुट्टी में लेने भी आ गए। मैं गेट के बाहर निकली तो वहीं पनवाड़ी की दुकान पर देवेन्द्र खड़ा दिखाई दिया। मैं सहम गई और चुपचाप पापा के पीछे स्कूटी पर जाकर बैठ गई। मैंने नज़र उठाकर भी नहीं देखा।
अभी तक देवेन्द्र और मेरे बीच बात भी नहीं हो पाई थी, मगर उसकी हरकतें देखकर अब मुझे डर लगने लगा था।
दूसरे दिन भी यही हुआ। तीसरे और चौथे दिन भी वही कहानी।
पांचवें दिन शाम को निशा मेरे घर पर आ गई। अब मेरे घरवाले उसे अच्छी तरह जानते थे।
निशा ने माँ से कहा- आंटी, 3 दिन बाद मेरा जन्मदिन है, मैं आप सबको न्यौता देने आई हूँ।
मां ने खुश होते हुए कहा- अरे वाह … बड़ी खुशी की बात है बेटी। हम ज़रूर आएँगे।
उसके बाद यहां-वहां की बातें होने लगीं और बातों-बातों में उसने पापा को टोक दिया- आप बेवजह परेशान होते हो अंकल, हम दोनों पहले की तरह ही साथ में जाया करेंगी। मेरा भी दिल नहीं लगता इसके बिना।
पहले तो पापा ने आना-कानी की लेकिन निशा के कई बार कहने पर वो मान गए। मैं भी चाहती थी कि पापा का कॉलेज तक पहुंचना ठीक नहीं है। क्योंकि देवेन्द्र वैसा नहीं निकला जैसा वो कॉलेज टाइम में हुआ करता था। या फिर उसकी उफनती जवानी उससे ऐसी हरकतें करवा रही थी।
अगले दिन से मुकेश की गाड़ी फिर घर आने लगी मगर छुट्टी में देवेन्द्र वहीं खड़ा मिलता था। उस दिन जब मुकेश निशा को घर छोड़ने के बाद मुझे घर छोड़ने के लिए चला तो उसने पूछ ही लिया- आप उस लड़के को जानते हो क्या … जो उस दिन मेरी गाड़ी के पास आकर बात कर रहा था.
मैंने कहा- कौन, देवेन्द्र …?
मुकेश बोला- “इसका मतलब आप जानते हो, मैंने उसका नाम कब बताया था, बस लड़के के बारे में पूछा था.
मेरी चोरी पकड़ी गई, इसलिए मैंने भी अब उसके सवालों से भागना ठीक नहीं समझा।
मैंने कहा- हां, हम दोनों एक ही कॉलेज में क्लासमेट रह चुके हैं।
इतना कहकर मैं चुप हो गई और मुकेश ने इसके आगे और कोई सवाल नहीं किया।
लेकिन चलती बात पर मैंने भी पूछ ही लिया- मगर भैया, आप उसको कैसे जानते हो?
मुकेश बोला- वो कॉलेज में मेरा क्लासमेट है, हम दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं।
इससे पहले मैं कुछ और पूछती उसने कहा- वो आपसे बात करना चाहता है.
और उसने एक पर्ची पीछे मेरी तरफ बढ़ा दी।
मैं अच्छी तरह जानती थी कि वो ऐसा क्यों कर रहा है … लेकिन मुकेश को मैं भाई जैसा ही मानती थी। वो मेरे साथ ऐसी हरकत कैसे कर सकता था। मगर मैं गलत थी, देवेन्द्र से गुफ्तगू के बाद शायद वो मुझे दूसरी नज़र से देखने लगा था। सारे लड़के एक जैसे ही होते हैं। लड़की देखी और उस पर लाइन मारना शुरू …
ऐसा नहीं था कि मेरा किसी लड़के के साथ हमबदन होने का मन नहीं करता था, कई बार करता था और ये तो स्वाभाविक सी बातें हैं मगर जहां तक लड़कों का सवाल है तो उनको हर लड़की बस मनोरंजन का साधन लगती है।
मैं मुकेश की हरकत को देख चुकी थी और मेरी एक नज़र में ही उसका लिंग तनकर अलग से उसकी जींस में टाइट हो गया था।
मेरे दिल में धक-धक होने लगी। मैंने दोबारा मुड़कर उसको नहीं देखा। मैं चुपचाप गर्दन नीचे करके बैठी रही, जैसे मुझे कुछ समझ आया ही न हो। वैसे भी मेरी कुंवारी चूत में मैंने अभी उंगली तक नहीं डाली थी तो लिंग डलवाने का तो सवाल ही नहीं था। और वो भी उस लड़के का … जिसके लिए मैं मन से भी तैयार नहीं हूँ।
वो कुछ देर वहीं सड़क के किनारे खड़ा रहा। लेकिन ज्यादा देर यूं दिन-दहाड़े बीच सड़क पर खड़े होकर अकेली लड़की के साथ रुकना उसने भी मुनासिब नहीं समझा और वो गाड़ी में आकर बैठ गया। उसने गाड़ी स्टार्ट की और बाकी दिनों से दोगुनी स्पीड से सड़क पर दौड़ा दी। वो शायद मेरी बेरुखी से नाराज़ हो गया था। मुझे भी महसूस हो रहा था।
मुझे घर छोड़कर वो वापस चला गया। कॉलेज की सर्दी की छुट्टियाँ हो गई थी इसलिए मैं भी छुट्टियों में पूरा आराम करना चाहती थी। पापा भी ठीक हो गए थे। सर्दियों के छोटे दिन जल्दी ही बीतने लगे। 15 दिन की छुट्टियाँ जैसे 5 दिनों में ही खत्म हो गई, 16 जनवरी से फिर कॉलेज खुलने वाला था। मूड भी फ्रेश था और कॉलेज की मस्ती को भी मिस कर रही थी।
कॉलेज खुलने के पहले दिन पापा ही मुझे छोड़ने गए और वही छुट्टी में लेने भी आ गए। मैं गेट के बाहर निकली तो वहीं पनवाड़ी की दुकान पर देवेन्द्र खड़ा दिखाई दिया। मैं सहम गई और चुपचाप पापा के पीछे स्कूटी पर जाकर बैठ गई। मैंने नज़र उठाकर भी नहीं देखा।
अभी तक देवेन्द्र और मेरे बीच बात भी नहीं हो पाई थी, मगर उसकी हरकतें देखकर अब मुझे डर लगने लगा था।
दूसरे दिन भी यही हुआ। तीसरे और चौथे दिन भी वही कहानी।
पांचवें दिन शाम को निशा मेरे घर पर आ गई। अब मेरे घरवाले उसे अच्छी तरह जानते थे।
निशा ने माँ से कहा- आंटी, 3 दिन बाद मेरा जन्मदिन है, मैं आप सबको न्यौता देने आई हूँ।
मां ने खुश होते हुए कहा- अरे वाह … बड़ी खुशी की बात है बेटी। हम ज़रूर आएँगे।
उसके बाद यहां-वहां की बातें होने लगीं और बातों-बातों में उसने पापा को टोक दिया- आप बेवजह परेशान होते हो अंकल, हम दोनों पहले की तरह ही साथ में जाया करेंगी। मेरा भी दिल नहीं लगता इसके बिना।
पहले तो पापा ने आना-कानी की लेकिन निशा के कई बार कहने पर वो मान गए। मैं भी चाहती थी कि पापा का कॉलेज तक पहुंचना ठीक नहीं है। क्योंकि देवेन्द्र वैसा नहीं निकला जैसा वो कॉलेज टाइम में हुआ करता था। या फिर उसकी उफनती जवानी उससे ऐसी हरकतें करवा रही थी।
अगले दिन से मुकेश की गाड़ी फिर घर आने लगी मगर छुट्टी में देवेन्द्र वहीं खड़ा मिलता था। उस दिन जब मुकेश निशा को घर छोड़ने के बाद मुझे घर छोड़ने के लिए चला तो उसने पूछ ही लिया- आप उस लड़के को जानते हो क्या … जो उस दिन मेरी गाड़ी के पास आकर बात कर रहा था.
मैंने कहा- कौन, देवेन्द्र …?
मुकेश बोला- “इसका मतलब आप जानते हो, मैंने उसका नाम कब बताया था, बस लड़के के बारे में पूछा था.
मेरी चोरी पकड़ी गई, इसलिए मैंने भी अब उसके सवालों से भागना ठीक नहीं समझा।
मैंने कहा- हां, हम दोनों एक ही कॉलेज में क्लासमेट रह चुके हैं।
इतना कहकर मैं चुप हो गई और मुकेश ने इसके आगे और कोई सवाल नहीं किया।
लेकिन चलती बात पर मैंने भी पूछ ही लिया- मगर भैया, आप उसको कैसे जानते हो?
मुकेश बोला- वो कॉलेज में मेरा क्लासमेट है, हम दोनों एक ही कॉलेज में पढ़ते हैं।
इससे पहले मैं कुछ और पूछती उसने कहा- वो आपसे बात करना चाहता है.
और उसने एक पर्ची पीछे मेरी तरफ बढ़ा दी।
// सुनील पंडित //
मैं तो सिर्फ तेरी दिल की धड़कन महसूस करना चाहता था
बस यही वजह थी तेरे ब्लाउस में मेरा हाथ डालने की…!!!
बस यही वजह थी तेरे ब्लाउस में मेरा हाथ डालने की…!!!