27-03-2019, 11:45 AM
बाइक पर बैठे लड़के ने हेल्मेट पहन रखा था। शीशा उतारने के बाद जब उसने हेल्मेट उतारा तो मैं उसे देखती रह गई।
ये तो देवेन्द्र है … जो कॉलेज में मेरे साथ पढ़ता था। ये यहाँ क्या कर रहा है … और निशा के भाई को कैसे जानता है … मेरे मन में सवाल उठना शुरू हो गए।
वो दोनों आपस में बातें करने लगे.
निशा के भाई का नाम मुकेश था, मुकेश ने पूछा- कहाँ जा रहा है? देवेन्द्र ने कहा- सुसराड़ जाऊं हूं … चालैगा तू भी … ?”
उसका जवाब सुनकर मुकेश ठहाका मारकर हंस पड़ा, और साथ ही देवेन्द्र भी।
मैं भी पीछे बैठी हुई मुस्कुरा दी। वैसे उसे देखकर मन में खुशी की एक लहर तो उठी लेकिन खुशी के समंदर में शर्म का भंवर भी साथ-साथ बन गया जिसमें मेरी वासना की कश्ती को डूबने देना ही मैंने बेहतर समझा। मैंने नज़रें झुका लीं। मैं नीचे देखने लगी कहीं ये पहचान न ले।
उसने ड्राइवर साइड के खुले शीशे वाली खिड़की पर कुहनी रखते हुए मुकेश के कान में चुपके से कुछ फुसफुसाया। जिसके जवाब में मुकेश ने आंखों में कुछ इशारा किया। जिसको न मैं देख पाई और न समझ पाई। फिर उसने आवाज़ ऊंची करते हुए निशा के भाई से बस इतना ही कहा कि तू जल्दी वापस आ … मुझे तुझसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।
6-7 महीने बाद देवेन्द्र को देख रही थी। शक्ल में कुछ खास परिवर्तन नहीं आया था लेकिन शरीर में मर्दानगी साफ झलक रही थी। कंधे पहले से कुछ ज्यादा चौड़े लगे, दाढ़ी-मूछ अधिक काली और घनी, लंबे रेशमी बाल जो गर्दन तक पहुंच रहे थे, लेकिन होठों का रंग थोड़ा गाढ़ा गुलाबी हो गया था। चेहरा वैसे ही गोरा और चमकीला मगर जवानी की एक दो फुंसी भी निकल आई थी जो उसके आकर्षण को फिर भी कम नहीं कर पा रही थी।
मुकेश से बात करके उसने बाइक की रेस बढ़ाई और सड़क पर गाड़ी के आगे दौड़ा दी। मैं उसको देखती रह गई और वो कुछ ही पल में आंखों से ओझल हो गया।
उस दिन घर आकर मैंने किताबें रखीं और आराम करने लगी। देवेन्द्र के बारे में सोचने ही लगी थी कि ना चाहते हुए भी मेरा हाथ मेरे वक्षों पर चला गया और मैं उनको सूट के ऊपर से ही सहलाने-दबाने लगी। देवेन्द्र की मजबूत जवानी मुझे अंदर से कमज़ोर बना रही थी। मैं उसको भूल चुकी थी लेकिन आज वो फिर से सामने आ गया और कॉलेज का गुज़रा हुआ वक्त आंखों के सामने फिर जीवंत हो उठा।
वक्षों को सहलाते-सहलाते वो तनकर कड़े हो गए और मैंने बिस्तर पर पड़े तकिया को बाहों में भर कर आंखें बंद कर लीं। बहुत बेचैनी हो रही थी, मैं बेड पर पड़ी हुई कसमसा रही थी। बांहों में तकिया और खयालों में देवेन्द्र। मन तो कर रहा था कि मुकेश से बात करूं कि वो देवेन्द्र को कैसे जानता है लेकिन फिर सोचा कि बात शुरू हुई तो वो आगे भी बढ़ेगी, और अब मैं कॉलेज जाने वाली लड़की हूँ सोचा कि अपनी हद में रहूंगी तो बेहतर है। और साथ ही पापा की तबीयत भी ठीक नहीं है, मुझे अभी इन सब बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।
मैंने मन के घोडो़ं की लगाम वहीं पर खींच दी और ध्यान को भविष्य पर लगाकर फिर से खुद को अतीत से अलग कर लिया। उस दिन के बाद देवेन्द्र कभी दोबारा सामने नहीं आया। हफ्ते भर बाद पापा की तबीयत बिल्कुल ठीक हो गई और मैंने निशा से कहा कि अब तुम्हें परेशान होने की कोई ज़रूरत नहीं है। अब मैं पापा के साथ ही कॉलेज आ जाया करूंगी।
निशा ने कहा- पागल, इसमें परेशान होने की क्या बात है। तेरे साथ मेरा भी टाइम पास हो जाता है। क्यों बेवजह अंकल को परेशान कर रही है? अभी कुछ दिन उनको और आराम करने दे। वैसे भी सर्दियाँ शुरू हो गई हैं और तू उन्हें स्कूटी पर लेकर आएगी? फिर से बीमार पड़ जाएंगे।
मैंने सोचा कि बात तो ये भी सही कह रही है। और घरवालों को भी निशा के साथ जाने में कोई परेशानी नहीं है। सर्दियों तक दोनों साथ ही चली जाया करेंगी।
दिसंबर का महीना शुरू हो गया था और ठंड अब दिन में भी लगने लगी थी। सुबह शाम तो कोहरा ही छाया रहता था। ये हाल तो शहर का था, गांव के खुले एरिया में तो हालात और भी बुरे थे। पहले सेमेस्टर के एग्ज़ाम शुरू होने वाले थे और आजकल किताबों के साथ वक्त ज्यादा बीतने लगा था।
लेकिन एक और बात जो मैं आजकल नोटिस कर रही थी कि वो ये कि निशा का भाई अब मुझे गाड़ी के सामने वाले शीशे में से देखता रहता था। कई बार ऐसा हो चुका था कि जब मैं नज़रें उठातीं तो वो मुझे देखता हुआ मिलता था। लेकिन मैंने इस बारे में निशा को कुछ नहीं कहा। क्योंकि मैं पहले से ही उसके अहसान के तले दबी हुई थी।
दिसंबर के अंत में एग्ज़ाम शुरू हो गए, अब तो गाड़ी में नज़र उठाने का वक्त भी नहीं मिलता था। घर-कॉलेज और गाड़ी जहाँ वक्त मिलता किताबें खोल लेती। दिमाग की दही हो जाती थी लेकिन एग्ज़ाम तो क्लियर करना ही था किसी भी तरह। मेरी कोशिश मेरिट में आने की थी इसलिए पूरा ज़ोर लगा रही थी। लेकिन निशा और मेरी बाकी सहेलियाँ मुझ पर हंसती रहती थी।
6-7 दिन में एग्ज़ाम खत्म हो गए। लेकिन दिमाग इतना थक गया कि अब कॉलेज की तरफ मुंह उठाने को मन नहीं करता था। वैसे एग्ज़ाम के बाद कॉलेज की छुट्टियां होने वाली थी। कॉलेज के आखिरी दिन सबने क्लास में खूब मस्ती की। जब शाम को छुट्टी हुई तो कॉलेज के गेट के बाहर निकलकर मैं और निशा उसके भाई मुकेश का इंतज़ार करने लगीं। तभी मेरी नज़र एक पान की दुकान के पास खड़े लड़के पर गई। देवेन्द्र था और वहाँ खड़ा होकर सिगरेट पी रहा था। मैं हैरान थी कि ये सिगरेट भी पीता है?
// सुनील पंडित //
मैं तो सिर्फ तेरी दिल की धड़कन महसूस करना चाहता था
बस यही वजह थी तेरे ब्लाउस में मेरा हाथ डालने की…!!!
बस यही वजह थी तेरे ब्लाउस में मेरा हाथ डालने की…!!!