20-03-2019, 07:24 PM
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रंग रसिया
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मैं किससे चुगली करता कि किसने लूट लिया… भरी दुपहरी में मुझे।
रात में आंगन में देर तक छनन मनन होता रहा।
गुझिया, समोसे, पापड़… होली के तो कितने दिन पहले से हर रात कड़ाही चढ़ी रहती है। वो भी सबके साथ।
वहीं आंगन में मैंने खाना भी खाया फिर सूखा खाना कैसे होता जम के गालियां हुयीं
![[Image: bride-dholak-2.jpg]](https://i.ibb.co/QKMs9dK/bride-dholak-2.jpg)
और उसमें भी सबसे आगे वो… हँस-हँसकर वो।
तेरी अम्मा छिनार तेरी बहना छिनार,
जो तेल लगाये वो भी छिनाल जो दूध पिलाये वो भी छिनाल,
अरे तेरी बहना को ले गया ठठेरा मैंने आज देखा।
एक खतम होते ही वो दूसरा छेड़ देती।
कोई हँसकर लेला कोई कस के लेला।
कोई धई धई जोबना बकईयें लेला
कोई आगे से लेला कोई पीछे से ले ला तेरी बहना छिनाल।
देर रात गये वो जब बाकी लड़कियों के साथ वो अपने घर को लौटी तो मैं एकदम निराश हो गया
की उसने रात का वादा किया था… लेकिन चलते-चलते भी उसकी आँखों ने मेरी आँखों से वायदा किया था की।
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जब सब सो गये थे तब भी मैं पलंग पे करवट बदल रहा था।
तब तक पीछे के दरवाजे पे हल्की सी आहट हुई, फिर चूड़ियों की खनखनाहट… मैं तो कान फाड़े बैठा ही था। झट से दरवाजा खोल दिया।
पीली साड़ी में वो दूधिया चांदनी में नहायी मुश्कुराती…
उसने झट से दरवाजा बंद कर दिया। मैंने कुछ बोलने की कोशिश की तो उसने उंगली से मेरे होंठों पे को चुप करा दिया।
लेकिन मैंने उसे बाहों में भर लिया फिर होंठ तो चुप हो गये लेकिन बाकी सब कुछ बोल रहा था,
हमारी आँखें, देह सब कुछ मुँह भर बतिया रहे थे।
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हम दोनों अपने बीच किसी और को कैसे देख सकते थे तो देखते-देखते कपड़े दूरियों की तरह दूर हो गये।
फागुन का महीना और होली ना हो…
मेरे होंठ उसके गुलाल से गाल से…
और उसकी रस भरी आँखें पिचकारी की धार…
मेरे होंठ सिर्फ गालों और होंठों से होली खेल के कहां मानने वाले थे,
सरक कर गदराये गुदाज रस छलकाते जोबन के रस कलशों का भी वो रस छलकाने लगे।
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और जब मेरे हाथ रूप कलसों का रस चख रहे थे तो होंठ केले क खंभों सी चिकनी जांघों के बीच प्रेम गुफा में रस चख रहे थे।
वो भी कस के मेरी देह को अपनी बांहों में बांधे, मेरे उत्थित्त उद्दत्त चर्म दंड को
कभी अपने कोमल हाथों से कभी ढीठ दीठ से रंग रही थी।
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दिन की होली के बाद हम उतने नौसिखिये तो नहीं रह गये थे।
जब मैं मेरी पिचकारी… सब सुध बुध खोकर हम जम के होली खेल रहे थे तन की होली मन की होली।
कभी वो ऊपर होती कभी मैं।
कभी रस की माती वो अपने मदमाते जोबन मेरी छाती से रगड़ती और कभी मैं उसे कचकचा के काट लेता।
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जब रस झरना शुरू हुआ तो बस… न वो थी न मैं सिर्फ रस था रंग था, नेह था।
एक दूसरे की बांहों में हम ऐसे ही लेटे थे की उसने मुझे एकदम चुप रहने का इशारा किया।
बहुत हल्की सी आवाज बगल के कमरे से आ रही थी।
भाभी की और उनकी भाभी की। मैंने फिर उसको पकड़ना चाहा तो उसने मना कर दिया।
कुछ देर तक जब बगल के कमरे से हल्की आवाजें आती रहीं तो उसने अपने पैर से झुक के पायल निकाल ली और मुझसे एकदम दबे पांव बाहर निकलने के लिये कहा।
हम बाग में आ गये, घने आम के पेडों के झुरमुट में।
एक चौड़े पेड़ के सहारे मैंने उसे फिर दबोच लिया।
जो होली हम अंदर खेल रहे थे अब झुरमुट में शुरू हो गई।
चांदनी से नहायी उसकी देह को कभी मैं प्यार से देखता, कभी सहलाता, कभी जबरन दबोच लेता।
और वो भी कम ढीठ नहीं थी।
कभी वो ऊपर कभी मैं… रात भर उसके अंदर मैं झरता रहा, उसकी बांहों के बंध में बंधा और हम दोनों के ऊपर… आम के बौर झरते रहे, पास में महुआ चूता रहा और उसकी मदमाती महक में चांदनी में डूबे हम नहाते रहे।
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रात गुजरने के पहले हम कमरे में वापस लौटे।
वो मेरे बगल में बैठी रही, मैंने लाख कहा लेकिन वो बोली- “तुम सो जाओगे तो जाऊँगी…”
कुछ उस नये अनुभव की थकान, कुछ उसके मुलायम हाथों का स्पर्श… थोड़ी ही देर में मैं सो गया।
जब आंख खुली तो देर हो चुकी थी। धूप दीवाल पे चढ़ आयी थी। बाहर आंगन में उसके हँसने खिलखिलाने की आवाज सुनाई दे रही थी।
अलसाया सा मैं उठा और बाहर आंगन में पहुंचा मुँह हाथ धोने। मुझे देख के ही सब औरतें लड़कियां कस-कस के हँसने लगीं। मेरी कुछ समझ में नहीं आया। सबसे तेज खनखनाती आवाज उसी की सुनाई दे रही थी।
![[Image: Gulabiya-Madhurima-in-Saree-01.jpg]](https://i.ibb.co/XLf8Hy2/Gulabiya-Madhurima-in-Saree-01.jpg)