06-12-2020, 11:51 AM
चाची- अच्छा तो अब तुझे चाची की याद आई है, मैं तो सोची कि अब मुझे भूल ही गया है तू तो.
मैं- ऐसी बात नही है बस उलझा हूँ अपनेआप मे उसी का असर है और कुछ नही.
चाची- रात को चुप चाप मैं छत पे आ जाउन्गी.
मैं- यही करते है ना, वैसे भी मैने अरसे से खेत मे सेक्स नही किया है. वैसे भी घर पर निशा होगी उसके सामने मैं ये सब नही करना चाहता.
चाची- चोरी छिपे क्यो करते हो फिर, बेटा माना कि तुम्हारे और मेरे जिस्मानी रिश्ते है पर मैं फिर भी कहूँगी कि अब तुम्हारी ज़िंदगी मे हम नही बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ है , तू करना चाहता है तो कर ले मैं मना नही करूँगी पर बेटा, वो तुझे बहुत चाहती है , उसकी आँखो मे तेरे लिए बेशुमार चाहत है , उसके दिल को समझ, सिर्फ़ वो ही है जो तुम्हे सब से ज़्यादा जानती है, उसका हाथ थाम लो. यही सही होगा तुम्हारे लिए.
चाची की बात बिल्कुल सही थी. मुझे अब आगे बढ़ कर निशा का हाथ थामना चाहिए था, निशा जो जैसे मेरी सोचों पर छाई थी, मेरा हमदम थी. मेरा जो भी थी अब वो ही थी. मैने फिर चाची के साथ सेक्स नही किया और कुछ देर बाद हम घर आ गये. और आते ही मैं सीधा निशा के पास गया जो बस अभी सो कर उठी थी, अलसाया सा उसका चेहरा, बिखरे बार उसके चेहरे पर बेतारीब बिखरे हुए .
निशा- ऐसे क्या देख रहे हो.
मैं- बस तुम्हे.
निशा- पर मुझे तो रोज ही देखते हो.
मैं- मेरी जितनी मर्ज़ी होगी उतना देखूँगा.
निशा- ओके बाबा, देख लेना पर अभी ज़रा हाथ मूह धो लूँ.
मैं रसोई मे गया और दो कप चाय बनाने लगा कुछ देर मे निशा भी वही पर आ गयी.
निशा- मनीष, आख़िर तुम खुद को कैसे इतना सिंपल रख पाते हो, देखो जमाना कितना बदल गया और तुम आज भी जैसे बचपन मे ही अटके हुए हो, आज भी तुम सिर्फ़ डबल डाइमंड चाय पीते हो, कहने को तो ऑफीसर हो पर फिर भी स्टॅंडर्ड के हिसाब से तुम्हे कॉफी पीना चाहिए या कुछ ऑर.
मैं- सिंपल होना ही सबसे बड़ी मुश्किल है मेडम आज की इस भागती ज़िंदगी मे, दुनिया चाहे कुछ भी समझे पर आज के इस सेल्फिश जमाने के साथ चलना मुझे पसंद नही, मैं बस अपने आप मे ही जीना चाहता हूँ, और सही कहा तुमने मैं जान बुझ कर ही आगे नही बढ़ना चाहता, क्योंकि उस दौर मे जब हम छोटे थे जीना तभी सीखा था मैने और सच तो ये है कि मैं उस दौर मे ही जी चुका अब तो बस साँसे है.
मैने निशा के हाथ मे चाय का कप दिया और बोला- कल सुबह जल्दी उठ जाना
निशा- क्यो
मैं- खुद जान लेना .
निशा- चलो ठीक है पर अभी खाने मे क्या खाओगे, बता दो मैं जल्दी से बना देती हूँ.
मैं- अभी तो बस मेगि ही बना दो , पर सुबह मेरे लिए राबड़ी बना देना बहुत दिन हुए मैने राबड़ी नही पी है और हाँ दो रात की रोटी भी रख देना,
निशा- जो हुकम सरकार.
जब तक निशा बिज़ी थी मैं अनिता भाभी से मिलने चला गया पर हमेशा की तरह मेरी शक्की ताई की वजह से मैं भाभी से कुछ बात नही कर पाया , सो डिन्नर किया और अपना बिस्तर छत पर लगा दिया रात के करीब 11 बजे , मेरा रेडियो बज रहा था हमेशा की तरह 90’स के शानदार गाने स्लो आवाज़ मे उस ठंडी सी हवा के साथ मेरे दिल को धड़का रहे थे. और ना जाने कब मेरी बगल मे निशा आकर लेट गयी.
निशा मेरे थोड़ा पास आते हुए – मैने सोचा तुम और रुकोगे यहाँ.
मैं- नही, अभी चलते है दो तीन दिन गाँव रुक कर फिर देल्ही निकल लेंगे.
निशा- कभी कभी मैं तुमको समझ नही पाती हूँ.
मैं- मैं भी.
मैने निशा के माथे पर एक किस किया और बोला- सो जा निशा.
उसने अपना सर मेरे सीने पर रखा और आँखो को बंद कर लिया , चाँदनी रात मे निशा आज कुछ अलग सी ही लग रही थी , क्या ये जिस्म की ज़रूरत थी या मैं सच मे ही उसकी ओर खींचा चला जा रहा था , पर जो भी था अब निशा के सिवा मेरा और था भी तो कौन. कुछ ठंड सी लग रही थी तो मैने एक चादर हम दोनो के उपर डाल ली और सो गया.
सुबह हम तैयार हो चुके थे, तो मैं बस सबको बाइ बोल रहा था कि अशोक भाई और रीना भाभी मेरे पास आए .
भाभी- मनीष, उस बात पे गौर करना जो मैने तुमसे कही थी.
मैं- किस बारे मे भाभी.
भाभी- निशा के बारे मे , स्टुपिड. तुम चाहे मानो या ना मानो पर मैं जानती हूँ निशा ही वो लड़की है जो तुम्हे थाम सकेगी, क्योंकि उस से बेहतर तुम्हे कोई नही समझता , जैसे तुम्हे महसूस कर लेती है वो और सबसे बड़ी बात तुमसे प्यार करती है वो.
भाई- देखो, कुछ चीज़ो से हम लाख कॉसिश कर ले लेकिन भाग नही सकते हमे बस जीना होता है , वैसे तो हम फ़ौज़ियो की ज़िंदगी की डोर का कुछ पता नही पर जितना भी जीने को मिले राज़ी खुशी जी लो यार, चलो अपना मत सोचो पर जब भी तुम्हारी रूह मिथ्लेश से मिलेगी वो बस तुमसे एक सवाल पूछेगी- कि मैं तो अपनी तमाम मुस्कुराहटें तुम्हे सौंप गयी थी , तब क्या कहोगे उस से. नियती से कब तक भगॉगे और फिर निशा जैसी सुलझी हुई लड़की तुम्हे कहाँ मिलेगी, बाकी करो जो करना है हम होते ही कौन है .
मैं- ऐसा क्यो कहते हो भाई, मैं कोशिश तो कर रहा हूँ ना.
भाई- एक बार निशा के दिल को टटोल कर देखो, तुम्हे कोशिश नही करनी पड़ेगी.
भाई और भाभी बहुत देर तक मुझे समझाते रहे, वो ये भी चाहते थे कि मैं कुछ दिन और रुक जाउ पर मुझे तो जाना ही था तो सब लोगो से विदा लेकर मैं और निशा गाँव के लिए चल दिए. पहुचते पहुचते शाम हो गयी थी. चाय-नाश्ता किया निशा घर पर ही रुक गयी और मैं चाची के साथ खेतो की तरफ आ गया.
चाची ने कमरे का ताला खोला और चारपाई बाहर निकाल ली.
मैं- टाइम कितना बदल गया ना.
चाची- हाँ, ऐसे लगता है जैसे बस कल ही की बात है. जैसे कल तक तुम ऐसे ही बेफ़िक्रे इन खेत खलिहानो मे घुमा करते थे, शराराते किया करते थे.
मैं- हाँ, चाची मुझे सब की बहुत याद आती है, अब अपने पैरो पे खड़ा तो हो गया हूँ पर फिर भी सच कहूँ तो काश एक बार फिर वो वक़्त आ जाए तो , मैं एक बार फिर से उसी वक़्त को , उसी अंदाज को , उसी बेफकरी मे जीना चाहता हूँ.
चाची- वक़्त बदल गया है मनीष अब कुछ नही पहले जैसा यहाँ तक कि हम भी तो बदल गये है, खैर मैं कुछ काम निपटा लूँ, तुम चाहो तो थोड़ा आराम करो या फिर आस पास घूम लो .
मैं भी उठ कर थोड़ा आगे को चल दिया, जैसे एक मुद्दत ही हो गयी थी मैं इस तरफ आया ही नही था. हमारे खेतो से थोड़ा आगे सेर मे एक बड़ा सा नीम का पेड़ होता था जिस की छाया मे बहुत समय गुज़रा था मेरा, एक बार फिर से उस नीम को देख कर बहुत अच्छा लगा मुझे. पास ही एक पानी की टंकी होती थी जो अब नही थी, शायद रोड को पक्का करने मे उसे यहाँ से हटा दिया गया था. ऐसा लगता था कि जैसे जमाना एक तेज रफ़्तार से आगे बढ़ गया था और मैं आज भी अपनी उसी बारहवी क्लास वाले साल मे अटका हुआ था.
वो दिन भी क्या दिन थे, मेरा अतीत मुझ पर हावी होने लगा था. मेरे अंदर का जो आवारापन था , जैसे मैं कोई बंजारा था जो बस भटक रहा था इधर उधर. पर मैने सोचा कि एक बार फिर अपने पुराने दिनो की याद को ताज़ा करना है, मैने सोचा कि कल सुबह ही निशा को लेकर निकल जाउन्गा और पूरा दिन बस घूमना है, तमाम उन चीज़ो को एक बार फिर से देखना है जो आज भी मेरा इंतज़ार कर रही थी.
उसके बाद मैं वापिस कुँए पर आ गया. चाची मेरा इंतज़ार कर रही थी.
चाची- कहाँ चले गये थे.
मैं- बस थोड़ा आगे तक.
मैं- चाची, एक बात कहूँ.
चाची- हाँ,
मैं- दोगि क्या.
चाची- अच्छा तो अब तुझे चाची की याद आई है, मैं तो सोची कि अब मुझे भूल ही गया है तू तो.
मैं- ऐसी बात नही है बस उलझा हूँ अपनेआप मे उसी का असर है और कुछ नही.
चाची- रात को चुप चाप मैं छत पे आ जाउन्गी.
मैं- यही करते है ना, वैसे भी मैने अरसे से खेत मे सेक्स नही किया है. वैसे भी घर पर निशा होगी उसके सामने मैं ये सब नही करना चाहता.
चाची- चोरी छिपे क्यो करते हो फिर, बेटा माना कि तुम्हारे और मेरे जिस्मानी रिश्ते है पर मैं फिर भी कहूँगी कि अब तुम्हारी ज़िंदगी मे हम नही बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ है , तू करना चाहता है तो कर ले मैं मना नही करूँगी पर बेटा, वो तुझे बहुत चाहती है , उसकी आँखो मे तेरे लिए बेशुमार चाहत है , उसके दिल को समझ, सिर्फ़ वो ही है जो तुम्हे सब से ज़्यादा जानती है, उसका हाथ थाम लो. यही सही होगा तुम्हारे लिए.
चाची की बात बिल्कुल सही थी. मुझे अब आगे बढ़ कर निशा का हाथ थामना चाहिए था, निशा जो जैसे मेरी सोचों पर छाई थी, मेरा हमदम थी. मेरा जो भी थी अब वो ही थी. मैने फिर चाची के साथ सेक्स नही किया और कुछ देर बाद हम घर आ गये. और आते ही मैं सीधा निशा के पास गया जो बस अभी सो कर उठी थी, अलसाया सा उसका चेहरा, बिखरे बार उसके चेहरे पर बेतारीब बिखरे हुए .
निशा- ऐसे क्या देख रहे हो.
मैं- बस तुम्हे.
निशा- पर मुझे तो रोज ही देखते हो.
मैं- मेरी जितनी मर्ज़ी होगी उतना देखूँगा.
निशा- ओके बाबा, देख लेना पर अभी ज़रा हाथ मूह धो लूँ.
मैं रसोई मे गया और दो कप चाय बनाने लगा कुछ देर मे निशा भी वही पर आ गयी.
निशा- मनीष, आख़िर तुम खुद को कैसे इतना सिंपल रख पाते हो, देखो जमाना कितना बदल गया और तुम आज भी जैसे बचपन मे ही अटके हुए हो, आज भी तुम सिर्फ़ डबल डाइमंड चाय पीते हो, कहने को तो ऑफीसर हो पर फिर भी स्टॅंडर्ड के हिसाब से तुम्हे कॉफी पीना चाहिए या कुछ ऑर.
मैं- सिंपल होना ही सबसे बड़ी मुश्किल है मेडम आज की इस भागती ज़िंदगी मे, दुनिया चाहे कुछ भी समझे पर आज के इस सेल्फिश जमाने के साथ चलना मुझे पसंद नही, मैं बस अपने आप मे ही जीना चाहता हूँ, और सही कहा तुमने मैं जान बुझ कर ही आगे नही बढ़ना चाहता, क्योंकि उस दौर मे जब हम छोटे थे जीना तभी सीखा था मैने और सच तो ये है कि मैं उस दौर मे ही जी चुका अब तो बस साँसे है.
मैने निशा के हाथ मे चाय का कप दिया और बोला- कल सुबह जल्दी उठ जाना
निशा- क्यो
मैं- खुद जान लेना .
निशा- चलो ठीक है पर अभी खाने मे क्या खाओगे, बता दो मैं जल्दी से बना देती हूँ.
मैं- अभी तो बस मेगि ही बना दो , पर सुबह मेरे लिए राबड़ी बना देना बहुत दिन हुए मैने राबड़ी नही पी है और हाँ दो रात की रोटी भी रख देना,
निशा- जो हुकम सरकार.
जब तक निशा बिज़ी थी मैं अनिता भाभी से मिलने चला गया पर हमेशा की तरह मेरी शक्की ताई की वजह से मैं भाभी से कुछ बात नही कर पाया , सो डिन्नर किया और अपना बिस्तर छत पर लगा दिया रात के करीब 11 बजे , मेरा रेडियो बज रहा था हमेशा की तरह 90’स के शानदार गाने स्लो आवाज़ मे उस ठंडी सी हवा के साथ मेरे दिल को धड़का रहे थे. और ना जाने कब मेरी बगल मे निशा आकर लेट गयी.
मैं- जानती हो मुझे बहुत दुख हुआ था जब पापा ने हमारे पुराने मकान को तुडवा कर ये कोठी बनवा दी, मुझे बिल्कुल अच्छा नही लगता इसमे रहना , मुझे बस मेरा पुराना मकान चाहिए.
निशा- पर टाइम के साथ हमे बदलना तो पड़ता है.
मैं- जानती हो जहा हम लेटे है पहले वहाँ एक कमरा था जिसमे मैं पढ़ता था, वो भी क्या दिन थे घर के साइड मे एक छप्पर था , और बाहर चबूतरे के पास एक पत्थर जिसपे बैठ के मैं कपड़े धोता था नहाता था.
निशा- मनीष, कुछ चीज़ो पर हमारा बस नही चलता है .
मैने निशा को अपने सीने से चिपका लिया और बोला- पर हम कोशिश तो कर सकते है ना.
मैं- बिल्कुल. याद है कैसे जब तुम पहली बार मुझे मिली थी.
निशा- कैसे भूल सकती हूँ मैं , कैसे थे तुम उस टाइम, और कपड़े पहन ने का बिल्कुल सलीका नही था तुम्हे पर बालो का वो अजय देवगन वाला स्टाइल मस्त लगता था तुम पर.
मैं- और तुम हाथो मे जो वो धागा बाँधती थी , और तुम्हारी चोटी जो आज भी आगे को रहती है .
निशा- तुम आज भी नोटीस करते हो.
मैं- तुम्हारा वो रूप मेरी आँखो मे बसा है निशा.
निशा- तुम मुझे किस रूप मे देखना चाहते हो.
मैं- कढ़ाई का सूट, घेर की सलवार और पाँवो मे लंबी जूतियाँ, हाथो मे हरी चूड़िया और चोटी मे लाल रिब्बन.
निशा- मनीष, तुम एक पल भी नही भूले हो ना.
मैं- कैसे भूल सकता हूँ, उस दिन तुम्हारा जनमदिन था और तुमने बरफी खिलाई थी मुझे.
निशा- जानते हो जब मैं तन्हा थी , अकेली थी बस ये लम्हे ही थे जिन्हे याद करके मेरे होंठो पर हँसी आ जाती थी. कितनी ही रातें उस खामोश चाँद को देख कर गुजर जाती थी मेरी. और एक टाइम तो लगने लगा था कि बस ऐसे ही अकेली पड़ जाउन्गी पर तभी जैसे जादू हो गया किसी ताज़ा हवा के झोंके की तरह तुम फिर से मुझे गुलज़ार करने आ गये.
मैं- पता है कितना तलाश किया मैने तुम्हे और शुक्र है किस्मत का जिसने तुम्हे फिर से मिलने मे मदद की. जानती हो फ़ौज़ कभी भी मेरी ज़िंदगी नही थी, पता नही कैसे शायद ये भी किस्मत का ही करिश्मा था कोई जो मुझे यहा ले गयी. मैं तो इसी गाँव मे रहना चाहता था पर आज देखो गाँव भी शहर ही बन गया है.
शुरू मे बहुत अच्छा लगता था इस गाँव का पहला लड़का जो सेना मे अफ़सर बना पर अब जैसे वर्दी बोझ लगती है.
निशा- नौकरी छोड़ नही सकते क्या.
मैं- नही यार. माना कि लाख परेशानिया है पर जब सरहद बुलाती है तो पैर अपने आप दौड़ पड़ते है, बेशक वहाँ पर एक सूनापन है पर फिर भी एक ज़िंदगी वहाँ पर भी है. फ़ौज़ ने मजबूरियों के साथ बहुत कुछ दिया भी है, अगर फ़ौज़ मे ना होता तो तुम्हे कभी नही ढूँढ पाता. मितलेश के बाद अगर मुझे किसी का भी ख्याल रहता तो बस तुम्हारा, जब भी मैं छुट्टी आता तो मेरी हर शाम उन ठिकानो पर गुजरती जहाँ तुम और मैं अक्सर मिलते थे. आज जमाने के साथ वो जगह बदल गयी हो पर मेरी यादो मे वो ज़िंदा है और रहेंगी, निशा मेरे लिए तुम क्या हो ये बस मैं जानता हूँ. हमेशा मेरी परछाई बन कर मेरे साथ चली हो तुम. जब कभी थक कर चूर हो जाता था बस तुम्हारी ही यादे थी जो मुझे हौंसला देती थी, कश्मीर की सर्द फ़िज़ा मे तुम्हारी ही यादो की गर्मी थी मेरे पास.
निशा- मनीष तुम सच मे पागल हो , कुछ भी बोलते रहते हो . तुम्हारी बस ये ही बात मुझे तब भी पसंद थी और आज भी पसंद है, जानते हो मैं जब भी गाँव के इन नये लड़के लड़कियो को देखती हूँ तो उनकी आँखो मे अपने लिए एक अलग ही तरह की रेस्पेक्ट देखती हूँ, उनकी आँखो मे मैं वो ही कशिश देखती हूँ जो हम मे थी, वो ही जैसे कोई परिंदा पिंज़रा तोड़ कर इस आसमान मे उड़ जाना चाहता हो. पर मनीष हम ने इस साथ की कीमत भी तो चुकाई है,
मैं- अब उस से कुछ फरक नही पड़ता है . किसी मे इतनी हिम्मत नही जो आज तुम्हारी तरफ आँख उठा कर देख सके, मैं जानता हूँ तुम अपने परिवार की तरफ से थोड़ी परेशान हो पर मेरा यकीन करो वो दौर अब बीत चुका है .
निशा- जानती हूँ . अब ये बाते छोड़ो और बताओ क्या प्लान है
मैं- प्लान तो कुछ खास नही पर इतनी गुज़ारिश है कि मैं तुम्हे कल साड़ी मे देखना चाहता हूँ .
निशा- मुझे मालूम था तुम्हारी यही फरमाइश होगी, चलो जाओ अब मैं कुछ देर सोना चाहती हूँ.
रात आँखों आँखो मे कट गयी . सुबह जब मैं उठा तो निशा मेरे साथ बिस्तर पर नही थी, दिन का उजाला हो चुका था शायद मैं ही आज देर से उठा था . मैं नीचे आया तो देखा कि अनिता भाभी आँगन मे कपड़े धो रही थी. भाभी ने एक नज़र मुझ पर डाली और अपने कपड़े फिर से धोने लगी. तो मैं उनके पास गया.
मैं- क्या बात है भाभी. कुछ उखड़ी उखड़ी सी लगती हो.
भाभी- तुम्हे मुझसे क्या लेना देना , देख रही हूँ जबसे आए हो भाभी की तो एक पल याद नही आई, अब तुम्हे भला मेरी क्या पड़ी है.
मैं- भाभी, मेरा गुस्सा इन बेचारे कपड़ो पर क्यो निकाल रही हो और फिर आपको तो पता है कि ज़िंदगी किस तरफ गुज़र रही है , मैं कोशिश कर रहा हूँ कि फिर से सब ठीक हो सके.
भाभी- तो मैने क्या माँग लिया तुमसे, कभी कुछ कहा क्या मैने. पर तुम दो बात करने की ज़रूरत भी नही समझते हो , एक समय था तब भाभी के सिवा कुछ नही दिखता था , मनीष तुम सच मे बदल गये हो .
मैं- मनीष कभी नही बदल सकता भाभी. आप मन मे ऐसा कुछ मत लाओ. आपको तो पता है की आपका और मेरा रिश्ता कितना अलग है.
भाभी- पर लगता है कि मेरे साथ साथ तुम उस रिश्ते को भी भूल गये हो.
मैं भाभी की बात का जवाब दे ही रहा था कि निशा ने मुझे आवाज़ दी और जो मैने पलट कर देखा बस फिर देखता ही रह गया. वो हवा जैसे मेरे माथे को चूम कर गयी थी अपने साथ निशा की महकती साँसे लाई थी दरवाजे पर हल्के नीले रंग की साड़ी मे खड़ी थी वो हाथो मे हरी चूड़िया , और बालों को आगे की तरफ किया हुआ था कंधे के उपर सेजैसे कोई काली नागिन लिपटी हुई हो. मैं कुछ पॅलो के लिए बस उसके रूप की चमक मे खो गया .
निशा- अब देखते ही रहोगे या अंदर आओगे.
मैं अंदर गया और उसे अपनी बाहों मे भर लिया.
निशा- छोड़ो, क्या करते हो कोई आ जाएगा.
मैं- आने दो , हम किसी से डरते है क्या.
निशा- तुम तो बेशर्म हो पर मुझे तो मत बनाओ. हाथो मैं नाश्ता लाती हूँ.
निशा रसोई मे गयी और मैने टीवी ऑन कर दिया और गजब बात देखो उस पर भी वो ही गाना आ रहा था तू लादे मुझ हरी हरी चूड़िया. गाने को सुन कर ना जान क्यो निशा ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी. अब किसे भूख थी कैसी प्यास थी मैं बस उसे निहारते रहा. पर जल्दी ही मुझे भी तैयार होने जाना पड़ा .
मैं अपने जूते लेने घर के अंदर वाले कमरे मे गया तो देखा कि मेरी बुलेट वही पर शान से खड़ी हुई थी. उसे देख कर मेरे होंठो पर मुस्कान सी आ गयी, आज भी उस पर धूल का एक दाना नही था मम्मी ने बड़े प्यार से रखा था उसे. मैने कमरे मे देखा तो मेरा तमाम वो समान रखा था जो कभी मम्मी ने ये झूट बोल कर छुपा दिया था कि वो सब जला दिया है.
मैने एक बॉक्स मे देखा तो मिथ्लेश के और मेरे कुछ फोटो थे और ढेर सारे खत जो हमारे इश्क़ के गवाह थे, एक ऐसे ही डिब्बे मे वो तमाम चिट्ठिया रखी थी जो निशा ने मेरे लिए पोस्ट की थी . एक कोने मे मेरा क्रिकेट का किट पड़ा था , अब तो याद भी नही था कि लास्ट टाइम मैने बॅट अपने हाथो मे कब लिया था. एक तरफ मेरी वो ही पुरानी साइकल खड़ी थी , अब मुझे समझ आया कि मम्मी ने मेरी तमाम यादो को इस कमरे मे सज़ा दिया था.
मैं दूर होकर भी हर पल उनके साथ ही था. अब मैने जाना था कि माँ-बाप आख़िर क्यो हम औलादो से दो कदम आगे होते थे. मेरी आँखो से दो आँसू निकल कर गिर गये.
“तो तुम आ ही गये यहाँ.”
मैने देखा निशा मेरे पीछे ही खड़ी थी.
मैं- तुम्हे पता था ना.
निशा- हां
मैं- तो क्यो नही बताया.
निशा- क्योंकि खुशी से ज़्यादा तुम्हे दर्द होता , और मैं तुम्हे फिर से टूटता हुआ नही देख सकती. इन यादो मे खुशी से ज़्यादा दुख है , हर वो याद जिसकी वजह से तुम मुस्कुराओगे वो ही तुम्हारे दिल को जलाएँगी और मैं ऐसा बिल्कुल नही चाहती. बिल्कुल नही चाहती . काश मेरा बस चलता तो दुनिया की तमाम खुशी तुमहरे हाथो मे रख देती.
मैं- तुम हो , हर खुशी पा ली मैने. अब कोई हसरत बाकी नही रही.
निशा- बस तुम्हारी यही अदा मेरा चैन छीन लेती है और तुम हो कि ……
मैं- आ चलते है
निशा- पर जा कहाँ रहे हो अब तो बता दो .
मैं- धोसी की पहाड़ी .
निश- मज़ाक कर रहे हो ना तुम.
मैं- क्या लगता है ,
निशा- सच मे मनीष.
मैं- तुम्हारी कसम.
निशा- याद है जब हम पहली बार वहाँ पर गये थे.
मैं- ऐसा ही तो मौसम था
निशा- हाँ. पर एक बात कहूँ
मैं- कहो
वो- बुलेट पे चले आज
मैं- तुम तो जानती हो मैं इसे जब तक हाथ नही लगाउन्गा तब तक मम्मे मेरे हाथ मे चाबी नही देगी.
निशा- पर गाड़ी मे मज़ा नही आएगा.
मैं- किसने कहा हम गाड़ी मे जा रहे है रवि की बाइक कब काम आएगी.
निशा- जैसे तुम्हारी मर्ज़ी .
जब निशा मेरी कमर मे हाथ डाल कर बैठी तो पता नही क्यो अच्छा सा लगा . ठंडी हवा जिसमे हल्की सी मोहब्बत तैर रही थी और साथ मे हमारी बाते और क्या चाहिए था. सहर मे कुछ खाने-पीने का समान लिया और फिर बढ़ गये धोसी की ओर. रास्ते मे मेरी कुछ यादे ताज़ा हो गयी.
मैं- निशा जानती हो , रास्ते मे एक खेत आएगा एक बार हम छोटे थे तो तीन दोस्त स्कूटर पे धोसी जा रहे थे और कंट्रोल खो कर सरसो मे घुसा दिया था स्कूटर.
निशा- ऐसी उल जलूल हरकते तुम करते ही रहते थे. मैं आज भी नही भूली हूँ कैसे तुमने मेरा मटका फोड़ा था.
मैं- पर आज तुम मटका लेके पानी लेने कहाँ आती हो.
निशा- अब वो दिन भी तो नही रहे.
मैं- पर हम तुम तो आज भी वही है ना. और मैं अपने उन्ही दिनो को जीना चाहता हूँ.
निशा- पर अब मुमकिन नही जानते हो अब तो मंदिर के पीछे उस बगीची को भी उजाड़ कर वहाँ पर धरम शाला के कमरे बना दिए है. ऐसा लगता है कि किसी ने मुझसे कुछ छीन लिया है , मुझे गुस्सा तो इतना आ रहा है कि पुजारी का सिर फोड़ दूं.
मैं- मंदिर के पास काफ़ी ज़मीन है निशा , आज शाम हम लोग पुजारी से बात करते है और सब ठीक रहा तो एक नया बगीचा हम अपनी तरफ से बनवा देते है ,
निशा- इच्छा तो मेरी भी यही है पर .
मैं- पर क्या, पुजारी कभी मना नही करेगा बस तू कल पानी का मटका लेके आइयो.
निशा- बहुत सताते हो तुम.
मैं- अपनी हो इसलिए ही तो सताता हूँ.
तभी मैने बाइक रोकी और निशा को उतरने को कहा.
निशा- क्या हुआ.
मैं- ये वही खेत है , ये नहर देख आज भी वैसे ही है एक दम शांत हाँ आस पास के पेड़ कुछ कम हो गये है पहले तो यहाँ घने पेड़ थे , शायद यही आस पास से हमारा स्कूटर आउट ऑफ कंट्रोल हुआ था , बेशक चोट लगी थी पर कसम से मज़ा बहुत आया था, इसी नहर मे तो फिर कूद कूद के नहाए थे.
निशा- मनीष, वैसे ज़िंदगी को अपने अंदाज मे तुमने खूब जिया है.
मैं- नही यार, ज़िंदगी तो कभी ज़ी ही नही पाया मैं, मिता थी तुम थी , कितना साथ रहा वो अपने रास्ते चली गयी तुम अपने रह गया मैं, जानती हो जब बर्फ़ीली पहाड़ियो पर जीना मुश्किल होता था तो बस तुम दोनो की यादे ही थी, वरना जलती आग मे कहाँ इतनी तपिश थी जो मेरे दिल को पिघला सके.
जब कभी जोडियो को देखता तो अपने आप से कहता था मेरे पास भी दुनिया की सबसे खूबसूरत दोस्त है , जब मैं बॅटल मे होता और गोलियो के उस शोर मे, धमाको के उस धुए मे जब बस दिल कह ही देता कि आज सांसो की डोर बस टूटने को है मेरे पर्स मे रखी तुम दोनो की तस्वीरो को ही अलविदा कहा है मैने.
जब पहली बार गोली लगी तो आँखो के आगे अंधेरा छा गया , और बिल्कुल नही लगा कि अब ज़िंदगी बचेगी पर कानो मे जैसे तुम्हारी ही आवाज़ गूँज रही थी , उन अंधेरे मे डूबती आँखो मे बस तुम्हारी यादो का ही उजाला तो था मेरे पास. बहुत बार टूटा पर दिल ने आस का दामन नही छोड़ा, उम्मीद थी कि तुम्हे कभी ना कभी ढूँढ ज़रूर लूँगा.
निशा- मनीष की परछाई है निशा , उस से दूर कैसे हो सकती थी बस कुछ समय था मुश्किल का पर अब सब ठीक है. तुम तो कह कर अपना हाल बता देते हो पर मैं जानती हूँ कितनी रातें बस तन्हाई मे बीत गयी, दिन तो बस काम मे कट जाता था पर ऐसी कोई रात नही जब मैने अतीत के पन्ने नही पलटे हो.
मैने निशा का हाथ पकड़ा और वही नहर के किनारे पर बैठ गये. कुछ तो कशिश थी उसमे ऐसे ही थोड़ी ना मैं उसकी तरफ खिंचा जा रहा था.
मैं- निशा आज रात अपना कुएँ पर ही बिताएँगे.
निशा- वहाँ पर क्यो, इरादे तो नेक है जनाब के.
मैं- जब तुम साथ हो तो इरादो की क्या ज़रूरत.
निशा- ये कैसी चाहत है तुम्हारी मैं समझ नही पा रही हूँ..
मैं- अपने दिल से पूछ क्यो नही लेती..
निशा- ये कम्बख़्त भी अब कहाँ मेरा रहा ये तो ना जाने कब से तुम्हारे सीने मे धड़क रहा है. ये तुम्हारी ही तो साँसे है जो मेरे बदन को महका रही है.
मैं- साड़ी मे जबर दिखती हो तुम.
निशा- शूकर है जीन्स पहन ने को नही कहा तुमने.
मैं- जीन्स भी अच्छी लगती है तुमपे, पर मुझे तुम्हारी ये सादगी ही पसंद है , जब तुम चुन्नी को अपने अंदाज मे ओढती हो तो साँसे बेकाबू सी हो जाती है.
निशा- अब इतनी भी तारीफ ना करो, और कब तक यही बैठना है चलना नही है क्या धूप भी पड़ने लगी है.
मैने उसकी बात मानी और फिर सीधा धोसी जाके ही दम लिया. बाइक पार्क की और बॅग को कंधे पर लाद के हम उपर जाने को सीढ़िया चढ़ने लगे.
निशा- सूट-सलवार पहन आती तो सही रहता.
मैं- अभी भी क्या परेशानी है .
निःसा- नही परेशानी तो कुछ नही. पर फिर भी.
करीब आधे घंटे की चढ़ाई को हम ने रुकते रुकते पूरा किया पुरानी जगह की कुछ नयी तस्वीरे ली. अतीत के कुछ पन्ने फिर से खुल गये थे जैसे.
निशा- यहाँ अभी भी सब पहले जैसा ही हैं ना.
मैं- पत्थरो और पहाड़ का क्या बिगाड़ना वैसे तुम्हे याद है एक जमाने मे हम ने भी एक पत्थर पर अपना नाम लिखा था .
निशा- तुम्हे क्या लगता है मुझे भूलने की कोई बीमारी है जब देखो कहते रहते हो तुम्हे याद है तुम्हे याद है.
मैं- बस ऐसे ही बोल रहा था.
निशा- याद है बाबा पर वो पत्थर शायद उपर वाले मंदिर के पास था .
मैं- तो चल फिर देखते है वक़्त ने हमारे नाम के साथ कितना सितम किया है.
निशा- चल तो रही हूँ.
उपर जाके हम ने मंदिर मे दर्शन किए और फिर उसी पत्थर की तलाश करने लगे और किस्मत से मिल भी गया.
मैं- नाम कुछ हल्के से पड़ गये है , हैं ना.
निशा- शूकर है मिटे नही.
मैं- कैसे मिट सकते है.
निशा बस मुस्कुरा दी और हम एक नीम के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गये.
निशा- तुम ना होते तो मेरा क्या होता.
मैं- यही बात मैं भी बोलता हूँ.
निशा- मनीष……………..
मैं- क्या हुआ.
निशा- हम क्या से क्या हो गये ना, कभी सोचा नही था ज़िंदगी इस मुकाम पे ले आएगी , आज देखो सब कुछ है हमारे पास जो जीने के लिए ज़रूरी है पर फिर भी हमारे दिल , इन्हे किस चीज़ की कमी है.
मैं- सुकून चाहते है, दो घड़ी अपने उन दिनो को जीना चाहते है जब हम जवान हो रहे थे, वो बेफिक्री वो अल्हाड़पन , वो गुस्ताखियाँ जो बस हम ही कर सकते है.
निशा- पर वो अब कहाँ लाउ मैं.
मैं- वो दौर बीत गया है निशा, अब ये यादे है जो दिल को चीरती है हर पल , पर दोष इन यादो का भी तो नही दोष तो हमारा है जो इस जमाने की रफ़्तार के साथ खुद को बदल नही पाए. आज के आशिक़ बेधड़क माशुका के घर तक पहुच जाते है , मेरे तो पैर काँप जाया करते थे मिथ्लेश की गली मे भी कदम रखते हुए. और तुम , तुम भी तो कितना नखरा करती थी , कितनी देर मैं इंतज़ार करता था जब जाके तुम्हारी खिड़की का दरवाजा खुला करता था.
निशा- मैं कभी जमाने से नही डरी , मैने हमेशा अपने दिल की की है, वो मैं ही तो थी जो घंटो तालाब के किनारे तुम्हारे साथ बैठ कर डूबते सूरज को देखा करती थी. वो मैं थी तो थी जो बारीशो मे भीगते हुए किसी तपते अलाव की लौ जैसी थी.
मैं- सही कहा, याद है एक बार बाज़ार मे बारिश आ गयी थी और दुकान की सीडीयो पर खड़े होकर एक हाथ मे समोसा और दूसरे मे चाय पी थी.
निशा- पर आजकल तुम समोसे खाते कहाँ हो.
मैं- वापसी मे चले आज भी उस दुकान के समोसे से वो ही जानी पहचानी महक आती है.
निशा- तुम कभी कहते नही कि निशा तुम्हारे हाथो का बना ये खाना है वो खाना है.
मैं- मम्मी के आलू परान्ठो के बाद मुझे तुम्हारी बनाई गयी कैरी की चटनी बेहद पसंद है पर तुम अब बनाती ही नही .
निशा- याद है तुम्हे. जानते हो जबसे तुम मुझसे दूर हुए हो मैने कैरी की चटनी नही बनाई क्योकि फिर तुम्हारा ख्याल आ जाता और फिर मुश्किल हो जाती .
मैं- मैने भी आख़िरी बार वो चटनी 2006 मे ही खाई थी जब मेरे फ़ौज़ मे जाने मे कुछ दिन थे वो कॉलेज मे लाई थी उस दिन तुम टिफिन तभी .
निशा- एक बार मुझे गले से लगा लो मनीष, मैं बस रो पड़ूँगी. इस से पहले कि मैं बिखरने लागू थाम लो मुझे अपनी बाहों मे. थाम लो.
मैं- नही यारा, नही लगा सकता तुझे अपने सीने से , डर है कही मेरी चोर धड़कनो को पढ़ ना लो तुम. डर है मुझे मेरे होंठो तक आकर रुक सी गयी हर बात को सुन ना लो तुम.
निशा- तुम्हे कुछ भी कहने की ज़रूरत न्ही और ना ही डरने की मैं जानती हूँ तुम्हारा दिल हमेशा सिर्फ़ मिथ्लेश के लिए ही धड़कता है और यकीन करो तुम्हारी हर धड़कन पर अगर किसी का हक है तो सिर्फ़ उसका
मैं- ऐसी बात नही है बस उलझा हूँ अपनेआप मे उसी का असर है और कुछ नही.
चाची- रात को चुप चाप मैं छत पे आ जाउन्गी.
मैं- यही करते है ना, वैसे भी मैने अरसे से खेत मे सेक्स नही किया है. वैसे भी घर पर निशा होगी उसके सामने मैं ये सब नही करना चाहता.
चाची- चोरी छिपे क्यो करते हो फिर, बेटा माना कि तुम्हारे और मेरे जिस्मानी रिश्ते है पर मैं फिर भी कहूँगी कि अब तुम्हारी ज़िंदगी मे हम नही बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ है , तू करना चाहता है तो कर ले मैं मना नही करूँगी पर बेटा, वो तुझे बहुत चाहती है , उसकी आँखो मे तेरे लिए बेशुमार चाहत है , उसके दिल को समझ, सिर्फ़ वो ही है जो तुम्हे सब से ज़्यादा जानती है, उसका हाथ थाम लो. यही सही होगा तुम्हारे लिए.
चाची की बात बिल्कुल सही थी. मुझे अब आगे बढ़ कर निशा का हाथ थामना चाहिए था, निशा जो जैसे मेरी सोचों पर छाई थी, मेरा हमदम थी. मेरा जो भी थी अब वो ही थी. मैने फिर चाची के साथ सेक्स नही किया और कुछ देर बाद हम घर आ गये. और आते ही मैं सीधा निशा के पास गया जो बस अभी सो कर उठी थी, अलसाया सा उसका चेहरा, बिखरे बार उसके चेहरे पर बेतारीब बिखरे हुए .
निशा- ऐसे क्या देख रहे हो.
मैं- बस तुम्हे.
निशा- पर मुझे तो रोज ही देखते हो.
मैं- मेरी जितनी मर्ज़ी होगी उतना देखूँगा.
निशा- ओके बाबा, देख लेना पर अभी ज़रा हाथ मूह धो लूँ.
मैं रसोई मे गया और दो कप चाय बनाने लगा कुछ देर मे निशा भी वही पर आ गयी.
निशा- मनीष, आख़िर तुम खुद को कैसे इतना सिंपल रख पाते हो, देखो जमाना कितना बदल गया और तुम आज भी जैसे बचपन मे ही अटके हुए हो, आज भी तुम सिर्फ़ डबल डाइमंड चाय पीते हो, कहने को तो ऑफीसर हो पर फिर भी स्टॅंडर्ड के हिसाब से तुम्हे कॉफी पीना चाहिए या कुछ ऑर.
मैं- सिंपल होना ही सबसे बड़ी मुश्किल है मेडम आज की इस भागती ज़िंदगी मे, दुनिया चाहे कुछ भी समझे पर आज के इस सेल्फिश जमाने के साथ चलना मुझे पसंद नही, मैं बस अपने आप मे ही जीना चाहता हूँ, और सही कहा तुमने मैं जान बुझ कर ही आगे नही बढ़ना चाहता, क्योंकि उस दौर मे जब हम छोटे थे जीना तभी सीखा था मैने और सच तो ये है कि मैं उस दौर मे ही जी चुका अब तो बस साँसे है.
मैने निशा के हाथ मे चाय का कप दिया और बोला- कल सुबह जल्दी उठ जाना
निशा- क्यो
मैं- खुद जान लेना .
निशा- चलो ठीक है पर अभी खाने मे क्या खाओगे, बता दो मैं जल्दी से बना देती हूँ.
मैं- अभी तो बस मेगि ही बना दो , पर सुबह मेरे लिए राबड़ी बना देना बहुत दिन हुए मैने राबड़ी नही पी है और हाँ दो रात की रोटी भी रख देना,
निशा- जो हुकम सरकार.
जब तक निशा बिज़ी थी मैं अनिता भाभी से मिलने चला गया पर हमेशा की तरह मेरी शक्की ताई की वजह से मैं भाभी से कुछ बात नही कर पाया , सो डिन्नर किया और अपना बिस्तर छत पर लगा दिया रात के करीब 11 बजे , मेरा रेडियो बज रहा था हमेशा की तरह 90’स के शानदार गाने स्लो आवाज़ मे उस ठंडी सी हवा के साथ मेरे दिल को धड़का रहे थे. और ना जाने कब मेरी बगल मे निशा आकर लेट गयी.
निशा मेरे थोड़ा पास आते हुए – मैने सोचा तुम और रुकोगे यहाँ.
मैं- नही, अभी चलते है दो तीन दिन गाँव रुक कर फिर देल्ही निकल लेंगे.
निशा- कभी कभी मैं तुमको समझ नही पाती हूँ.
मैं- मैं भी.
मैने निशा के माथे पर एक किस किया और बोला- सो जा निशा.
उसने अपना सर मेरे सीने पर रखा और आँखो को बंद कर लिया , चाँदनी रात मे निशा आज कुछ अलग सी ही लग रही थी , क्या ये जिस्म की ज़रूरत थी या मैं सच मे ही उसकी ओर खींचा चला जा रहा था , पर जो भी था अब निशा के सिवा मेरा और था भी तो कौन. कुछ ठंड सी लग रही थी तो मैने एक चादर हम दोनो के उपर डाल ली और सो गया.
सुबह हम तैयार हो चुके थे, तो मैं बस सबको बाइ बोल रहा था कि अशोक भाई और रीना भाभी मेरे पास आए .
भाभी- मनीष, उस बात पे गौर करना जो मैने तुमसे कही थी.
मैं- किस बारे मे भाभी.
भाभी- निशा के बारे मे , स्टुपिड. तुम चाहे मानो या ना मानो पर मैं जानती हूँ निशा ही वो लड़की है जो तुम्हे थाम सकेगी, क्योंकि उस से बेहतर तुम्हे कोई नही समझता , जैसे तुम्हे महसूस कर लेती है वो और सबसे बड़ी बात तुमसे प्यार करती है वो.
भाई- देखो, कुछ चीज़ो से हम लाख कॉसिश कर ले लेकिन भाग नही सकते हमे बस जीना होता है , वैसे तो हम फ़ौज़ियो की ज़िंदगी की डोर का कुछ पता नही पर जितना भी जीने को मिले राज़ी खुशी जी लो यार, चलो अपना मत सोचो पर जब भी तुम्हारी रूह मिथ्लेश से मिलेगी वो बस तुमसे एक सवाल पूछेगी- कि मैं तो अपनी तमाम मुस्कुराहटें तुम्हे सौंप गयी थी , तब क्या कहोगे उस से. नियती से कब तक भगॉगे और फिर निशा जैसी सुलझी हुई लड़की तुम्हे कहाँ मिलेगी, बाकी करो जो करना है हम होते ही कौन है .
मैं- ऐसा क्यो कहते हो भाई, मैं कोशिश तो कर रहा हूँ ना.
भाई- एक बार निशा के दिल को टटोल कर देखो, तुम्हे कोशिश नही करनी पड़ेगी.
भाई और भाभी बहुत देर तक मुझे समझाते रहे, वो ये भी चाहते थे कि मैं कुछ दिन और रुक जाउ पर मुझे तो जाना ही था तो सब लोगो से विदा लेकर मैं और निशा गाँव के लिए चल दिए. पहुचते पहुचते शाम हो गयी थी. चाय-नाश्ता किया निशा घर पर ही रुक गयी और मैं चाची के साथ खेतो की तरफ आ गया.
चाची ने कमरे का ताला खोला और चारपाई बाहर निकाल ली.
मैं- टाइम कितना बदल गया ना.
चाची- हाँ, ऐसे लगता है जैसे बस कल ही की बात है. जैसे कल तक तुम ऐसे ही बेफ़िक्रे इन खेत खलिहानो मे घुमा करते थे, शराराते किया करते थे.
मैं- हाँ, चाची मुझे सब की बहुत याद आती है, अब अपने पैरो पे खड़ा तो हो गया हूँ पर फिर भी सच कहूँ तो काश एक बार फिर वो वक़्त आ जाए तो , मैं एक बार फिर से उसी वक़्त को , उसी अंदाज को , उसी बेफकरी मे जीना चाहता हूँ.
चाची- वक़्त बदल गया है मनीष अब कुछ नही पहले जैसा यहाँ तक कि हम भी तो बदल गये है, खैर मैं कुछ काम निपटा लूँ, तुम चाहो तो थोड़ा आराम करो या फिर आस पास घूम लो .
मैं भी उठ कर थोड़ा आगे को चल दिया, जैसे एक मुद्दत ही हो गयी थी मैं इस तरफ आया ही नही था. हमारे खेतो से थोड़ा आगे सेर मे एक बड़ा सा नीम का पेड़ होता था जिस की छाया मे बहुत समय गुज़रा था मेरा, एक बार फिर से उस नीम को देख कर बहुत अच्छा लगा मुझे. पास ही एक पानी की टंकी होती थी जो अब नही थी, शायद रोड को पक्का करने मे उसे यहाँ से हटा दिया गया था. ऐसा लगता था कि जैसे जमाना एक तेज रफ़्तार से आगे बढ़ गया था और मैं आज भी अपनी उसी बारहवी क्लास वाले साल मे अटका हुआ था.
वो दिन भी क्या दिन थे, मेरा अतीत मुझ पर हावी होने लगा था. मेरे अंदर का जो आवारापन था , जैसे मैं कोई बंजारा था जो बस भटक रहा था इधर उधर. पर मैने सोचा कि एक बार फिर अपने पुराने दिनो की याद को ताज़ा करना है, मैने सोचा कि कल सुबह ही निशा को लेकर निकल जाउन्गा और पूरा दिन बस घूमना है, तमाम उन चीज़ो को एक बार फिर से देखना है जो आज भी मेरा इंतज़ार कर रही थी.
उसके बाद मैं वापिस कुँए पर आ गया. चाची मेरा इंतज़ार कर रही थी.
चाची- कहाँ चले गये थे.
मैं- बस थोड़ा आगे तक.
मैं- चाची, एक बात कहूँ.
चाची- हाँ,
मैं- दोगि क्या.
चाची- अच्छा तो अब तुझे चाची की याद आई है, मैं तो सोची कि अब मुझे भूल ही गया है तू तो.
मैं- ऐसी बात नही है बस उलझा हूँ अपनेआप मे उसी का असर है और कुछ नही.
चाची- रात को चुप चाप मैं छत पे आ जाउन्गी.
मैं- यही करते है ना, वैसे भी मैने अरसे से खेत मे सेक्स नही किया है. वैसे भी घर पर निशा होगी उसके सामने मैं ये सब नही करना चाहता.
चाची- चोरी छिपे क्यो करते हो फिर, बेटा माना कि तुम्हारे और मेरे जिस्मानी रिश्ते है पर मैं फिर भी कहूँगी कि अब तुम्हारी ज़िंदगी मे हम नही बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ है , तू करना चाहता है तो कर ले मैं मना नही करूँगी पर बेटा, वो तुझे बहुत चाहती है , उसकी आँखो मे तेरे लिए बेशुमार चाहत है , उसके दिल को समझ, सिर्फ़ वो ही है जो तुम्हे सब से ज़्यादा जानती है, उसका हाथ थाम लो. यही सही होगा तुम्हारे लिए.
चाची की बात बिल्कुल सही थी. मुझे अब आगे बढ़ कर निशा का हाथ थामना चाहिए था, निशा जो जैसे मेरी सोचों पर छाई थी, मेरा हमदम थी. मेरा जो भी थी अब वो ही थी. मैने फिर चाची के साथ सेक्स नही किया और कुछ देर बाद हम घर आ गये. और आते ही मैं सीधा निशा के पास गया जो बस अभी सो कर उठी थी, अलसाया सा उसका चेहरा, बिखरे बार उसके चेहरे पर बेतारीब बिखरे हुए .
निशा- ऐसे क्या देख रहे हो.
मैं- बस तुम्हे.
निशा- पर मुझे तो रोज ही देखते हो.
मैं- मेरी जितनी मर्ज़ी होगी उतना देखूँगा.
निशा- ओके बाबा, देख लेना पर अभी ज़रा हाथ मूह धो लूँ.
मैं रसोई मे गया और दो कप चाय बनाने लगा कुछ देर मे निशा भी वही पर आ गयी.
निशा- मनीष, आख़िर तुम खुद को कैसे इतना सिंपल रख पाते हो, देखो जमाना कितना बदल गया और तुम आज भी जैसे बचपन मे ही अटके हुए हो, आज भी तुम सिर्फ़ डबल डाइमंड चाय पीते हो, कहने को तो ऑफीसर हो पर फिर भी स्टॅंडर्ड के हिसाब से तुम्हे कॉफी पीना चाहिए या कुछ ऑर.
मैं- सिंपल होना ही सबसे बड़ी मुश्किल है मेडम आज की इस भागती ज़िंदगी मे, दुनिया चाहे कुछ भी समझे पर आज के इस सेल्फिश जमाने के साथ चलना मुझे पसंद नही, मैं बस अपने आप मे ही जीना चाहता हूँ, और सही कहा तुमने मैं जान बुझ कर ही आगे नही बढ़ना चाहता, क्योंकि उस दौर मे जब हम छोटे थे जीना तभी सीखा था मैने और सच तो ये है कि मैं उस दौर मे ही जी चुका अब तो बस साँसे है.
मैने निशा के हाथ मे चाय का कप दिया और बोला- कल सुबह जल्दी उठ जाना
निशा- क्यो
मैं- खुद जान लेना .
निशा- चलो ठीक है पर अभी खाने मे क्या खाओगे, बता दो मैं जल्दी से बना देती हूँ.
मैं- अभी तो बस मेगि ही बना दो , पर सुबह मेरे लिए राबड़ी बना देना बहुत दिन हुए मैने राबड़ी नही पी है और हाँ दो रात की रोटी भी रख देना,
निशा- जो हुकम सरकार.
जब तक निशा बिज़ी थी मैं अनिता भाभी से मिलने चला गया पर हमेशा की तरह मेरी शक्की ताई की वजह से मैं भाभी से कुछ बात नही कर पाया , सो डिन्नर किया और अपना बिस्तर छत पर लगा दिया रात के करीब 11 बजे , मेरा रेडियो बज रहा था हमेशा की तरह 90’स के शानदार गाने स्लो आवाज़ मे उस ठंडी सी हवा के साथ मेरे दिल को धड़का रहे थे. और ना जाने कब मेरी बगल मे निशा आकर लेट गयी.
मैं- जानती हो मुझे बहुत दुख हुआ था जब पापा ने हमारे पुराने मकान को तुडवा कर ये कोठी बनवा दी, मुझे बिल्कुल अच्छा नही लगता इसमे रहना , मुझे बस मेरा पुराना मकान चाहिए.
निशा- पर टाइम के साथ हमे बदलना तो पड़ता है.
मैं- जानती हो जहा हम लेटे है पहले वहाँ एक कमरा था जिसमे मैं पढ़ता था, वो भी क्या दिन थे घर के साइड मे एक छप्पर था , और बाहर चबूतरे के पास एक पत्थर जिसपे बैठ के मैं कपड़े धोता था नहाता था.
निशा- मनीष, कुछ चीज़ो पर हमारा बस नही चलता है .
मैने निशा को अपने सीने से चिपका लिया और बोला- पर हम कोशिश तो कर सकते है ना.
मैं- बिल्कुल. याद है कैसे जब तुम पहली बार मुझे मिली थी.
निशा- कैसे भूल सकती हूँ मैं , कैसे थे तुम उस टाइम, और कपड़े पहन ने का बिल्कुल सलीका नही था तुम्हे पर बालो का वो अजय देवगन वाला स्टाइल मस्त लगता था तुम पर.
मैं- और तुम हाथो मे जो वो धागा बाँधती थी , और तुम्हारी चोटी जो आज भी आगे को रहती है .
निशा- तुम आज भी नोटीस करते हो.
मैं- तुम्हारा वो रूप मेरी आँखो मे बसा है निशा.
निशा- तुम मुझे किस रूप मे देखना चाहते हो.
मैं- कढ़ाई का सूट, घेर की सलवार और पाँवो मे लंबी जूतियाँ, हाथो मे हरी चूड़िया और चोटी मे लाल रिब्बन.
निशा- मनीष, तुम एक पल भी नही भूले हो ना.
मैं- कैसे भूल सकता हूँ, उस दिन तुम्हारा जनमदिन था और तुमने बरफी खिलाई थी मुझे.
निशा- जानते हो जब मैं तन्हा थी , अकेली थी बस ये लम्हे ही थे जिन्हे याद करके मेरे होंठो पर हँसी आ जाती थी. कितनी ही रातें उस खामोश चाँद को देख कर गुजर जाती थी मेरी. और एक टाइम तो लगने लगा था कि बस ऐसे ही अकेली पड़ जाउन्गी पर तभी जैसे जादू हो गया किसी ताज़ा हवा के झोंके की तरह तुम फिर से मुझे गुलज़ार करने आ गये.
मैं- पता है कितना तलाश किया मैने तुम्हे और शुक्र है किस्मत का जिसने तुम्हे फिर से मिलने मे मदद की. जानती हो फ़ौज़ कभी भी मेरी ज़िंदगी नही थी, पता नही कैसे शायद ये भी किस्मत का ही करिश्मा था कोई जो मुझे यहा ले गयी. मैं तो इसी गाँव मे रहना चाहता था पर आज देखो गाँव भी शहर ही बन गया है.
शुरू मे बहुत अच्छा लगता था इस गाँव का पहला लड़का जो सेना मे अफ़सर बना पर अब जैसे वर्दी बोझ लगती है.
निशा- नौकरी छोड़ नही सकते क्या.
मैं- नही यार. माना कि लाख परेशानिया है पर जब सरहद बुलाती है तो पैर अपने आप दौड़ पड़ते है, बेशक वहाँ पर एक सूनापन है पर फिर भी एक ज़िंदगी वहाँ पर भी है. फ़ौज़ ने मजबूरियों के साथ बहुत कुछ दिया भी है, अगर फ़ौज़ मे ना होता तो तुम्हे कभी नही ढूँढ पाता. मितलेश के बाद अगर मुझे किसी का भी ख्याल रहता तो बस तुम्हारा, जब भी मैं छुट्टी आता तो मेरी हर शाम उन ठिकानो पर गुजरती जहाँ तुम और मैं अक्सर मिलते थे. आज जमाने के साथ वो जगह बदल गयी हो पर मेरी यादो मे वो ज़िंदा है और रहेंगी, निशा मेरे लिए तुम क्या हो ये बस मैं जानता हूँ. हमेशा मेरी परछाई बन कर मेरे साथ चली हो तुम. जब कभी थक कर चूर हो जाता था बस तुम्हारी ही यादे थी जो मुझे हौंसला देती थी, कश्मीर की सर्द फ़िज़ा मे तुम्हारी ही यादो की गर्मी थी मेरे पास.
निशा- मनीष तुम सच मे पागल हो , कुछ भी बोलते रहते हो . तुम्हारी बस ये ही बात मुझे तब भी पसंद थी और आज भी पसंद है, जानते हो मैं जब भी गाँव के इन नये लड़के लड़कियो को देखती हूँ तो उनकी आँखो मे अपने लिए एक अलग ही तरह की रेस्पेक्ट देखती हूँ, उनकी आँखो मे मैं वो ही कशिश देखती हूँ जो हम मे थी, वो ही जैसे कोई परिंदा पिंज़रा तोड़ कर इस आसमान मे उड़ जाना चाहता हो. पर मनीष हम ने इस साथ की कीमत भी तो चुकाई है,
मैं- अब उस से कुछ फरक नही पड़ता है . किसी मे इतनी हिम्मत नही जो आज तुम्हारी तरफ आँख उठा कर देख सके, मैं जानता हूँ तुम अपने परिवार की तरफ से थोड़ी परेशान हो पर मेरा यकीन करो वो दौर अब बीत चुका है .
निशा- जानती हूँ . अब ये बाते छोड़ो और बताओ क्या प्लान है
मैं- प्लान तो कुछ खास नही पर इतनी गुज़ारिश है कि मैं तुम्हे कल साड़ी मे देखना चाहता हूँ .
निशा- मुझे मालूम था तुम्हारी यही फरमाइश होगी, चलो जाओ अब मैं कुछ देर सोना चाहती हूँ.
रात आँखों आँखो मे कट गयी . सुबह जब मैं उठा तो निशा मेरे साथ बिस्तर पर नही थी, दिन का उजाला हो चुका था शायद मैं ही आज देर से उठा था . मैं नीचे आया तो देखा कि अनिता भाभी आँगन मे कपड़े धो रही थी. भाभी ने एक नज़र मुझ पर डाली और अपने कपड़े फिर से धोने लगी. तो मैं उनके पास गया.
मैं- क्या बात है भाभी. कुछ उखड़ी उखड़ी सी लगती हो.
भाभी- तुम्हे मुझसे क्या लेना देना , देख रही हूँ जबसे आए हो भाभी की तो एक पल याद नही आई, अब तुम्हे भला मेरी क्या पड़ी है.
मैं- भाभी, मेरा गुस्सा इन बेचारे कपड़ो पर क्यो निकाल रही हो और फिर आपको तो पता है कि ज़िंदगी किस तरफ गुज़र रही है , मैं कोशिश कर रहा हूँ कि फिर से सब ठीक हो सके.
भाभी- तो मैने क्या माँग लिया तुमसे, कभी कुछ कहा क्या मैने. पर तुम दो बात करने की ज़रूरत भी नही समझते हो , एक समय था तब भाभी के सिवा कुछ नही दिखता था , मनीष तुम सच मे बदल गये हो .
मैं- मनीष कभी नही बदल सकता भाभी. आप मन मे ऐसा कुछ मत लाओ. आपको तो पता है की आपका और मेरा रिश्ता कितना अलग है.
भाभी- पर लगता है कि मेरे साथ साथ तुम उस रिश्ते को भी भूल गये हो.
मैं भाभी की बात का जवाब दे ही रहा था कि निशा ने मुझे आवाज़ दी और जो मैने पलट कर देखा बस फिर देखता ही रह गया. वो हवा जैसे मेरे माथे को चूम कर गयी थी अपने साथ निशा की महकती साँसे लाई थी दरवाजे पर हल्के नीले रंग की साड़ी मे खड़ी थी वो हाथो मे हरी चूड़िया , और बालों को आगे की तरफ किया हुआ था कंधे के उपर सेजैसे कोई काली नागिन लिपटी हुई हो. मैं कुछ पॅलो के लिए बस उसके रूप की चमक मे खो गया .
निशा- अब देखते ही रहोगे या अंदर आओगे.
मैं अंदर गया और उसे अपनी बाहों मे भर लिया.
निशा- छोड़ो, क्या करते हो कोई आ जाएगा.
मैं- आने दो , हम किसी से डरते है क्या.
निशा- तुम तो बेशर्म हो पर मुझे तो मत बनाओ. हाथो मैं नाश्ता लाती हूँ.
निशा रसोई मे गयी और मैने टीवी ऑन कर दिया और गजब बात देखो उस पर भी वो ही गाना आ रहा था तू लादे मुझ हरी हरी चूड़िया. गाने को सुन कर ना जान क्यो निशा ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी. अब किसे भूख थी कैसी प्यास थी मैं बस उसे निहारते रहा. पर जल्दी ही मुझे भी तैयार होने जाना पड़ा .
मैं अपने जूते लेने घर के अंदर वाले कमरे मे गया तो देखा कि मेरी बुलेट वही पर शान से खड़ी हुई थी. उसे देख कर मेरे होंठो पर मुस्कान सी आ गयी, आज भी उस पर धूल का एक दाना नही था मम्मी ने बड़े प्यार से रखा था उसे. मैने कमरे मे देखा तो मेरा तमाम वो समान रखा था जो कभी मम्मी ने ये झूट बोल कर छुपा दिया था कि वो सब जला दिया है.
मैने एक बॉक्स मे देखा तो मिथ्लेश के और मेरे कुछ फोटो थे और ढेर सारे खत जो हमारे इश्क़ के गवाह थे, एक ऐसे ही डिब्बे मे वो तमाम चिट्ठिया रखी थी जो निशा ने मेरे लिए पोस्ट की थी . एक कोने मे मेरा क्रिकेट का किट पड़ा था , अब तो याद भी नही था कि लास्ट टाइम मैने बॅट अपने हाथो मे कब लिया था. एक तरफ मेरी वो ही पुरानी साइकल खड़ी थी , अब मुझे समझ आया कि मम्मी ने मेरी तमाम यादो को इस कमरे मे सज़ा दिया था.
मैं दूर होकर भी हर पल उनके साथ ही था. अब मैने जाना था कि माँ-बाप आख़िर क्यो हम औलादो से दो कदम आगे होते थे. मेरी आँखो से दो आँसू निकल कर गिर गये.
“तो तुम आ ही गये यहाँ.”
मैने देखा निशा मेरे पीछे ही खड़ी थी.
मैं- तुम्हे पता था ना.
निशा- हां
मैं- तो क्यो नही बताया.
निशा- क्योंकि खुशी से ज़्यादा तुम्हे दर्द होता , और मैं तुम्हे फिर से टूटता हुआ नही देख सकती. इन यादो मे खुशी से ज़्यादा दुख है , हर वो याद जिसकी वजह से तुम मुस्कुराओगे वो ही तुम्हारे दिल को जलाएँगी और मैं ऐसा बिल्कुल नही चाहती. बिल्कुल नही चाहती . काश मेरा बस चलता तो दुनिया की तमाम खुशी तुमहरे हाथो मे रख देती.
मैं- तुम हो , हर खुशी पा ली मैने. अब कोई हसरत बाकी नही रही.
निशा- बस तुम्हारी यही अदा मेरा चैन छीन लेती है और तुम हो कि ……
मैं- आ चलते है
निशा- पर जा कहाँ रहे हो अब तो बता दो .
मैं- धोसी की पहाड़ी .
निश- मज़ाक कर रहे हो ना तुम.
मैं- क्या लगता है ,
निशा- सच मे मनीष.
मैं- तुम्हारी कसम.
निशा- याद है जब हम पहली बार वहाँ पर गये थे.
मैं- ऐसा ही तो मौसम था
निशा- हाँ. पर एक बात कहूँ
मैं- कहो
वो- बुलेट पे चले आज
मैं- तुम तो जानती हो मैं इसे जब तक हाथ नही लगाउन्गा तब तक मम्मे मेरे हाथ मे चाबी नही देगी.
निशा- पर गाड़ी मे मज़ा नही आएगा.
मैं- किसने कहा हम गाड़ी मे जा रहे है रवि की बाइक कब काम आएगी.
निशा- जैसे तुम्हारी मर्ज़ी .
जब निशा मेरी कमर मे हाथ डाल कर बैठी तो पता नही क्यो अच्छा सा लगा . ठंडी हवा जिसमे हल्की सी मोहब्बत तैर रही थी और साथ मे हमारी बाते और क्या चाहिए था. सहर मे कुछ खाने-पीने का समान लिया और फिर बढ़ गये धोसी की ओर. रास्ते मे मेरी कुछ यादे ताज़ा हो गयी.
मैं- निशा जानती हो , रास्ते मे एक खेत आएगा एक बार हम छोटे थे तो तीन दोस्त स्कूटर पे धोसी जा रहे थे और कंट्रोल खो कर सरसो मे घुसा दिया था स्कूटर.
निशा- ऐसी उल जलूल हरकते तुम करते ही रहते थे. मैं आज भी नही भूली हूँ कैसे तुमने मेरा मटका फोड़ा था.
मैं- पर आज तुम मटका लेके पानी लेने कहाँ आती हो.
निशा- अब वो दिन भी तो नही रहे.
मैं- पर हम तुम तो आज भी वही है ना. और मैं अपने उन्ही दिनो को जीना चाहता हूँ.
निशा- पर अब मुमकिन नही जानते हो अब तो मंदिर के पीछे उस बगीची को भी उजाड़ कर वहाँ पर धरम शाला के कमरे बना दिए है. ऐसा लगता है कि किसी ने मुझसे कुछ छीन लिया है , मुझे गुस्सा तो इतना आ रहा है कि पुजारी का सिर फोड़ दूं.
मैं- मंदिर के पास काफ़ी ज़मीन है निशा , आज शाम हम लोग पुजारी से बात करते है और सब ठीक रहा तो एक नया बगीचा हम अपनी तरफ से बनवा देते है ,
निशा- इच्छा तो मेरी भी यही है पर .
मैं- पर क्या, पुजारी कभी मना नही करेगा बस तू कल पानी का मटका लेके आइयो.
निशा- बहुत सताते हो तुम.
मैं- अपनी हो इसलिए ही तो सताता हूँ.
तभी मैने बाइक रोकी और निशा को उतरने को कहा.
निशा- क्या हुआ.
मैं- ये वही खेत है , ये नहर देख आज भी वैसे ही है एक दम शांत हाँ आस पास के पेड़ कुछ कम हो गये है पहले तो यहाँ घने पेड़ थे , शायद यही आस पास से हमारा स्कूटर आउट ऑफ कंट्रोल हुआ था , बेशक चोट लगी थी पर कसम से मज़ा बहुत आया था, इसी नहर मे तो फिर कूद कूद के नहाए थे.
निशा- मनीष, वैसे ज़िंदगी को अपने अंदाज मे तुमने खूब जिया है.
मैं- नही यार, ज़िंदगी तो कभी ज़ी ही नही पाया मैं, मिता थी तुम थी , कितना साथ रहा वो अपने रास्ते चली गयी तुम अपने रह गया मैं, जानती हो जब बर्फ़ीली पहाड़ियो पर जीना मुश्किल होता था तो बस तुम दोनो की यादे ही थी, वरना जलती आग मे कहाँ इतनी तपिश थी जो मेरे दिल को पिघला सके.
जब कभी जोडियो को देखता तो अपने आप से कहता था मेरे पास भी दुनिया की सबसे खूबसूरत दोस्त है , जब मैं बॅटल मे होता और गोलियो के उस शोर मे, धमाको के उस धुए मे जब बस दिल कह ही देता कि आज सांसो की डोर बस टूटने को है मेरे पर्स मे रखी तुम दोनो की तस्वीरो को ही अलविदा कहा है मैने.
जब पहली बार गोली लगी तो आँखो के आगे अंधेरा छा गया , और बिल्कुल नही लगा कि अब ज़िंदगी बचेगी पर कानो मे जैसे तुम्हारी ही आवाज़ गूँज रही थी , उन अंधेरे मे डूबती आँखो मे बस तुम्हारी यादो का ही उजाला तो था मेरे पास. बहुत बार टूटा पर दिल ने आस का दामन नही छोड़ा, उम्मीद थी कि तुम्हे कभी ना कभी ढूँढ ज़रूर लूँगा.
निशा- मनीष की परछाई है निशा , उस से दूर कैसे हो सकती थी बस कुछ समय था मुश्किल का पर अब सब ठीक है. तुम तो कह कर अपना हाल बता देते हो पर मैं जानती हूँ कितनी रातें बस तन्हाई मे बीत गयी, दिन तो बस काम मे कट जाता था पर ऐसी कोई रात नही जब मैने अतीत के पन्ने नही पलटे हो.
मैने निशा का हाथ पकड़ा और वही नहर के किनारे पर बैठ गये. कुछ तो कशिश थी उसमे ऐसे ही थोड़ी ना मैं उसकी तरफ खिंचा जा रहा था.
मैं- निशा आज रात अपना कुएँ पर ही बिताएँगे.
निशा- वहाँ पर क्यो, इरादे तो नेक है जनाब के.
मैं- जब तुम साथ हो तो इरादो की क्या ज़रूरत.
निशा- ये कैसी चाहत है तुम्हारी मैं समझ नही पा रही हूँ..
मैं- अपने दिल से पूछ क्यो नही लेती..
निशा- ये कम्बख़्त भी अब कहाँ मेरा रहा ये तो ना जाने कब से तुम्हारे सीने मे धड़क रहा है. ये तुम्हारी ही तो साँसे है जो मेरे बदन को महका रही है.
मैं- साड़ी मे जबर दिखती हो तुम.
निशा- शूकर है जीन्स पहन ने को नही कहा तुमने.
मैं- जीन्स भी अच्छी लगती है तुमपे, पर मुझे तुम्हारी ये सादगी ही पसंद है , जब तुम चुन्नी को अपने अंदाज मे ओढती हो तो साँसे बेकाबू सी हो जाती है.
निशा- अब इतनी भी तारीफ ना करो, और कब तक यही बैठना है चलना नही है क्या धूप भी पड़ने लगी है.
मैने उसकी बात मानी और फिर सीधा धोसी जाके ही दम लिया. बाइक पार्क की और बॅग को कंधे पर लाद के हम उपर जाने को सीढ़िया चढ़ने लगे.
निशा- सूट-सलवार पहन आती तो सही रहता.
मैं- अभी भी क्या परेशानी है .
निःसा- नही परेशानी तो कुछ नही. पर फिर भी.
करीब आधे घंटे की चढ़ाई को हम ने रुकते रुकते पूरा किया पुरानी जगह की कुछ नयी तस्वीरे ली. अतीत के कुछ पन्ने फिर से खुल गये थे जैसे.
निशा- यहाँ अभी भी सब पहले जैसा ही हैं ना.
मैं- पत्थरो और पहाड़ का क्या बिगाड़ना वैसे तुम्हे याद है एक जमाने मे हम ने भी एक पत्थर पर अपना नाम लिखा था .
निशा- तुम्हे क्या लगता है मुझे भूलने की कोई बीमारी है जब देखो कहते रहते हो तुम्हे याद है तुम्हे याद है.
मैं- बस ऐसे ही बोल रहा था.
निशा- याद है बाबा पर वो पत्थर शायद उपर वाले मंदिर के पास था .
मैं- तो चल फिर देखते है वक़्त ने हमारे नाम के साथ कितना सितम किया है.
निशा- चल तो रही हूँ.
उपर जाके हम ने मंदिर मे दर्शन किए और फिर उसी पत्थर की तलाश करने लगे और किस्मत से मिल भी गया.
मैं- नाम कुछ हल्के से पड़ गये है , हैं ना.
निशा- शूकर है मिटे नही.
मैं- कैसे मिट सकते है.
निशा बस मुस्कुरा दी और हम एक नीम के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गये.
निशा- तुम ना होते तो मेरा क्या होता.
मैं- यही बात मैं भी बोलता हूँ.
निशा- मनीष……………..
मैं- क्या हुआ.
निशा- हम क्या से क्या हो गये ना, कभी सोचा नही था ज़िंदगी इस मुकाम पे ले आएगी , आज देखो सब कुछ है हमारे पास जो जीने के लिए ज़रूरी है पर फिर भी हमारे दिल , इन्हे किस चीज़ की कमी है.
मैं- सुकून चाहते है, दो घड़ी अपने उन दिनो को जीना चाहते है जब हम जवान हो रहे थे, वो बेफिक्री वो अल्हाड़पन , वो गुस्ताखियाँ जो बस हम ही कर सकते है.
निशा- पर वो अब कहाँ लाउ मैं.
मैं- वो दौर बीत गया है निशा, अब ये यादे है जो दिल को चीरती है हर पल , पर दोष इन यादो का भी तो नही दोष तो हमारा है जो इस जमाने की रफ़्तार के साथ खुद को बदल नही पाए. आज के आशिक़ बेधड़क माशुका के घर तक पहुच जाते है , मेरे तो पैर काँप जाया करते थे मिथ्लेश की गली मे भी कदम रखते हुए. और तुम , तुम भी तो कितना नखरा करती थी , कितनी देर मैं इंतज़ार करता था जब जाके तुम्हारी खिड़की का दरवाजा खुला करता था.
निशा- मैं कभी जमाने से नही डरी , मैने हमेशा अपने दिल की की है, वो मैं ही तो थी जो घंटो तालाब के किनारे तुम्हारे साथ बैठ कर डूबते सूरज को देखा करती थी. वो मैं थी तो थी जो बारीशो मे भीगते हुए किसी तपते अलाव की लौ जैसी थी.
मैं- सही कहा, याद है एक बार बाज़ार मे बारिश आ गयी थी और दुकान की सीडीयो पर खड़े होकर एक हाथ मे समोसा और दूसरे मे चाय पी थी.
निशा- पर आजकल तुम समोसे खाते कहाँ हो.
मैं- वापसी मे चले आज भी उस दुकान के समोसे से वो ही जानी पहचानी महक आती है.
निशा- तुम कभी कहते नही कि निशा तुम्हारे हाथो का बना ये खाना है वो खाना है.
मैं- मम्मी के आलू परान्ठो के बाद मुझे तुम्हारी बनाई गयी कैरी की चटनी बेहद पसंद है पर तुम अब बनाती ही नही .
निशा- याद है तुम्हे. जानते हो जबसे तुम मुझसे दूर हुए हो मैने कैरी की चटनी नही बनाई क्योकि फिर तुम्हारा ख्याल आ जाता और फिर मुश्किल हो जाती .
मैं- मैने भी आख़िरी बार वो चटनी 2006 मे ही खाई थी जब मेरे फ़ौज़ मे जाने मे कुछ दिन थे वो कॉलेज मे लाई थी उस दिन तुम टिफिन तभी .
निशा- एक बार मुझे गले से लगा लो मनीष, मैं बस रो पड़ूँगी. इस से पहले कि मैं बिखरने लागू थाम लो मुझे अपनी बाहों मे. थाम लो.
मैं- नही यारा, नही लगा सकता तुझे अपने सीने से , डर है कही मेरी चोर धड़कनो को पढ़ ना लो तुम. डर है मुझे मेरे होंठो तक आकर रुक सी गयी हर बात को सुन ना लो तुम.
निशा- तुम्हे कुछ भी कहने की ज़रूरत न्ही और ना ही डरने की मैं जानती हूँ तुम्हारा दिल हमेशा सिर्फ़ मिथ्लेश के लिए ही धड़कता है और यकीन करो तुम्हारी हर धड़कन पर अगर किसी का हक है तो सिर्फ़ उसका