19-03-2019, 05:59 PM
(This post was last modified: 05-04-2021, 01:49 PM by komaalrani. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
उर्मी
वो उर्मी ही थी।
ओप भरी कंचुकी उरोजन पर ताने कसी,
लागी भली भाई सी भुजान कखियंन में
त्योही पद्माकर जवाहर से अंग अंग,
इंगुर के रंग की तरंग नखियंन में
फाग की उमंग अनुराग की तरंग ऐसी,
वैसी छवि प्यारी की विलोकी सखियन में
केसर कपोलन पे, मुख में तमोल भरे,
भाल पे गुलाल, नंदलाल अँखियंन में
***** *****देह के रंग, नेह में पगे
मैंने उसे कस के जकड़ लिया और बोला- “हे तुम…”
“क्यों, अच्छा नहीं लगा क्या? चली जाऊँ…” वो हँसकर बोली।
उसके दोनों हाथों में रंग लगा था।
“उंह… उह्हं… जाने कौन देगा तुमको अब मेरी रानी…”
हँसकर मैं बोला और अपने रंग लगे गाल उसके गालों पे रगड़ने लगा।
‘चोर’ मैं बोला।
“चोर… चोरी तो तुमने की थी। भूल गए…”
“मंजूर, जो सजा देना हो, दो ना…”
“सजा तो मिलेगी ही… तुम कह रहे थे ना कि कपड़ों से होली क्यों खेलती हो, तो लो…”
और एक झटके में मेरी बनियान छटक के दूर… मेरे चौड़े चकले सीने पे वो लेट के रंग लगाने लगी।
कब होली के रंग तन के रंगों में बदल गए हमें पता नहीं चला।
पिछली बार जो उंगलियां चोली के पास जा के ठिठक गई थीं उन्होंने ही झट से ब्लाउज के सारे बटन खोल दिए…
फिर कब मेरे हाथों ने उसके रस कलश को थामा कब मेरे होंठ उसके उरोजों का स्पर्श लेने लगे, हमें पता ही नहीं चला। कस-कस के मेरे हाथ उसके किशोर जोबन मसल रहे थे, रंग रहे थे।
और वो भी सिसकियां भरती काले पीले बैंगनी रंग मेरी देह पे।
पहले उसने मेरी लुंगी सरकाई और मैंने उसके साये का नाड़ा खोला पता नहीं।
हाँ जब-जब भी मैं देह की इस होली में ठिठका, शरमाया, झिझका उसी ने मुझे आगे बढ़ाया।
यहाँ तक की मेरे उत्तेजित शिश्न को पकड़ के भी-
“इसे क्यों छिपा रहे हो, यहाँ भी तो रंग लगाना है या इसे दीदी की ननद के लिए छोड़ रखा है…”
वो उर्मी ही थी।
ओप भरी कंचुकी उरोजन पर ताने कसी,
लागी भली भाई सी भुजान कखियंन में
त्योही पद्माकर जवाहर से अंग अंग,
इंगुर के रंग की तरंग नखियंन में
फाग की उमंग अनुराग की तरंग ऐसी,
वैसी छवि प्यारी की विलोकी सखियन में
केसर कपोलन पे, मुख में तमोल भरे,
भाल पे गुलाल, नंदलाल अँखियंन में
***** *****देह के रंग, नेह में पगे
मैंने उसे कस के जकड़ लिया और बोला- “हे तुम…”
“क्यों, अच्छा नहीं लगा क्या? चली जाऊँ…” वो हँसकर बोली।
उसके दोनों हाथों में रंग लगा था।
“उंह… उह्हं… जाने कौन देगा तुमको अब मेरी रानी…”
हँसकर मैं बोला और अपने रंग लगे गाल उसके गालों पे रगड़ने लगा।
‘चोर’ मैं बोला।
“चोर… चोरी तो तुमने की थी। भूल गए…”
“मंजूर, जो सजा देना हो, दो ना…”
“सजा तो मिलेगी ही… तुम कह रहे थे ना कि कपड़ों से होली क्यों खेलती हो, तो लो…”
और एक झटके में मेरी बनियान छटक के दूर… मेरे चौड़े चकले सीने पे वो लेट के रंग लगाने लगी।
कब होली के रंग तन के रंगों में बदल गए हमें पता नहीं चला।
पिछली बार जो उंगलियां चोली के पास जा के ठिठक गई थीं उन्होंने ही झट से ब्लाउज के सारे बटन खोल दिए…
फिर कब मेरे हाथों ने उसके रस कलश को थामा कब मेरे होंठ उसके उरोजों का स्पर्श लेने लगे, हमें पता ही नहीं चला। कस-कस के मेरे हाथ उसके किशोर जोबन मसल रहे थे, रंग रहे थे।
और वो भी सिसकियां भरती काले पीले बैंगनी रंग मेरी देह पे।
पहले उसने मेरी लुंगी सरकाई और मैंने उसके साये का नाड़ा खोला पता नहीं।
हाँ जब-जब भी मैं देह की इस होली में ठिठका, शरमाया, झिझका उसी ने मुझे आगे बढ़ाया।
यहाँ तक की मेरे उत्तेजित शिश्न को पकड़ के भी-
“इसे क्यों छिपा रहे हो, यहाँ भी तो रंग लगाना है या इसे दीदी की ननद के लिए छोड़ रखा है…”