18-03-2019, 10:54 PM
***** *****होली, हो ली,
जीजा गए, दीदी गईं, मोहल्ले की भाभियां गईं, मैंने अगवाड़े पिछवाड़े का सब दरवाजा बंद किया।
लेकिन होली खत्म नहीं हुई। भाभी थीं न, मेरी अपनी, अच्छी वाली, प्यारी-प्यारी मेरी हर चीज में शामिल।
भाभी ने मुझे जोर से अंकवार में भर के जोर से मेरे चूचे दबाते बोला-
“अभी मेरी तेरी होली बाकी है…”
“एकदम भाभी…”
और उन्हें चूम लिया।
आँगन में होली के सारे निशान बाकी थे, मेरी 32सी साइज की टीन लेसी ब्रा नुची, चिथड़ी रंगों में लिपटी
और बगल में ही जीजा का फटा पाजामा और चड्ढी।
जो मैंने भाभियों को दिखाते, उन्हें चिढ़ाते उतारी थी।
दीदी का फटा ब्लाउज, भाभी का पेटीकोट, ढेर सारा बहता रंग, डबल भांग की डोज वाली गुझिया,
ठंडाई, और बाहर भी अभी भी कहीं से लाउडस्पीकर पे होली के गानों की आवाज आ रही थी-
रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे,
बलम पिचकारी तूने ऐसी मारी,
और कहीं भोजपुरी गाने,
अरे रंगे द जोबनवा चोली में,
अरे भौजी, सटाय के डारब, निहुराय के डारब,
डारे दा देवर के होली में,
और कहीं कहीं कबीरा, जोगीड़ा की भी, जोगीड़ा सरर, होली का रंग उतर रहा था, नहाने धोने का भी टाइम हो रहा था।
मैं और भाभी ही थे, हम दोनों ने मिल के आँगन साफ किया, बचे गिरे रंगों से होली भी खेली और नहाने का भी आँगन में ही। मेरे और भाभी के बचे खुचे कपड़े भी।
मैं भाभी का रंग छुड़ा रही थी और वो मेरा।
भाभी का कोई अंग नहीं बचा था जो भाभियों, उनकी नन्दों ने और जीजा ने छोड़ा हो,
जीजा के खास रंग तो मैं पहचानती थी।
जाँघों के बीच में भी पिछवाड़े भी, और जब भाभी की निहुरा के मैंने उनका पिछवाड़ा देखा,
तो एकदम अंदर कम से कम चार पांच मुट्ठी सूखा रंग और अबीर एकदम अंदर तक…
उंगली डाल-डालकर अंदर तक से निकालकर भाभी को दिखाया,
और फिर पाइप में नोजल लगा के तेज धार अंदर तक, सब रंग जब तक बह नहीं गए।
और इसके बाद भाभी ने मुझे धर दबोचा, एक-एक जगह चेक की जहां-जहां जीजू ने रंग लगाया था,
लेकिन जब जाँघों के बीच ‘वहां’ का नंबर आया तो मैं बिदक जाती।
लेकिन भाभी मेरी, उनके आगे किसी की चलती है।
मोहल्ले की चाहे कच्चे टिकोरे वाली उनकी ननदे रहीं हों, या खूब खेली खायी, सब उनसे पानी मांगती थी।
भाभी-
“लगाऊँगी अभी एक कस के, खोल, अपने जीजू के आगे तो झट से खोल दिया और मेरे आगे नखड़े दिखा रही है।
खोल पूरी तरह से…”
मैं खिलखिलाने लगी-
“अरे भाभी, जीजू तो जीजू हैं, अब साली होली में जीजू के आगे नहीं खोलेगी तो?”
तब तक भाभी की चिकोटियों, गुदगुदी और गदोरी से जो उन्होंने जाँघों के बीच हिस्से लगाए, मेरी जांघ खोल के ही दम लिया। फिर तो मेरी चिरैया की चोंच खुली और भाभी की मंझली उंगली गच्चाक से अंदर…
जीजू की मलाई अभी तक लबलबा रही थी पूरे ऊपर तक, कटोरी भर से ज्यादा ढरकाई भी थी
उन्होंने मेरी प्रेम गली में, और टाँगें उठाकर मैंने सब रोप लिया था, एक बूँद भी बाहर नहीं छलकने दिया था।
भाभी ने थोड़ी देर तक उंगली गोल-गोल घुमाई, और फिर जो निकाली तो, जीजू की गाढ़ी, सफेद, खूब थक्केदार मलाई उनकी उंगली में लिपटी, चिपकी।
मुझे दिखा के जरा सा उन्होंने चाट लिया और फिर क्या खुशी छलकी उनके चेहरे से, और उंगली मेरे मुँह की ओर बढ़ाई।
मैं जरा सा बिदकी तो फिर डांट और उससे ज्यादा गालियां-
“ज्यादा छिनारपना न कर, नीचे वाले मुँह में ऊपर तक बजबजा रहा है और ऊपर वाले मुँह में?
खोल मुँह सीधे से, छिनार की जनी, चूतमरानो, अरे ये होली का प्रसाद यही है।
होली के दिन वो भी जीजू से, फिर पहली बार, चख ले इसे, देख तुझे होलिका माई का आशीर्बाद मिलेगा,
लण्ड की कोई कमी नहीं रहेगी, एक से एक मोटे-मोटे मिलेंगे…”
और मैंने चाट लिया, सच में क्या स्वाद था।
खूब मीठा जैसे रबड़ी में शहद मिला दिया गया हो।
भाभी-
“अब देख तुझे लण्ड की कोई कमी नहीं रहेगी, वैसे भी हिचक तुझे फड़वाने की थी, डर लगता है भाभी, बहुत दर्द होगा?
लोग क्या कहेंगे? कहीं कुछ गड़बड़ हो गया तो? नहीं फड़वाना मुझे बस? शादी के बाद सीधे…”
भाभी ने मेरी आवाज की नकल करते हुए मेरे बहाने गिनाए और खूब चिढ़ाया।
फिर समझाया भी-
“यार अब रास्ता खुल गया है, तो आने जाने वालों को मना मत करो, जितनों का मन रखोगी, तुझे दुआ ही देंगे। फिर एक बार तेरी सहेली ने चारा खा लिया है न, तो अब तो रोज उसे खुजली चढ़ेगी…”
खाना खाते समय भी भाभी की छेड़खानी, चुहलबाजियां जारी रही।
जीजा गए, दीदी गईं, मोहल्ले की भाभियां गईं, मैंने अगवाड़े पिछवाड़े का सब दरवाजा बंद किया।
लेकिन होली खत्म नहीं हुई। भाभी थीं न, मेरी अपनी, अच्छी वाली, प्यारी-प्यारी मेरी हर चीज में शामिल।
भाभी ने मुझे जोर से अंकवार में भर के जोर से मेरे चूचे दबाते बोला-
“अभी मेरी तेरी होली बाकी है…”
“एकदम भाभी…”
और उन्हें चूम लिया।
आँगन में होली के सारे निशान बाकी थे, मेरी 32सी साइज की टीन लेसी ब्रा नुची, चिथड़ी रंगों में लिपटी
और बगल में ही जीजा का फटा पाजामा और चड्ढी।
जो मैंने भाभियों को दिखाते, उन्हें चिढ़ाते उतारी थी।
दीदी का फटा ब्लाउज, भाभी का पेटीकोट, ढेर सारा बहता रंग, डबल भांग की डोज वाली गुझिया,
ठंडाई, और बाहर भी अभी भी कहीं से लाउडस्पीकर पे होली के गानों की आवाज आ रही थी-
रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे,
बलम पिचकारी तूने ऐसी मारी,
और कहीं भोजपुरी गाने,
अरे रंगे द जोबनवा चोली में,
अरे भौजी, सटाय के डारब, निहुराय के डारब,
डारे दा देवर के होली में,
और कहीं कहीं कबीरा, जोगीड़ा की भी, जोगीड़ा सरर, होली का रंग उतर रहा था, नहाने धोने का भी टाइम हो रहा था।
मैं और भाभी ही थे, हम दोनों ने मिल के आँगन साफ किया, बचे गिरे रंगों से होली भी खेली और नहाने का भी आँगन में ही। मेरे और भाभी के बचे खुचे कपड़े भी।
मैं भाभी का रंग छुड़ा रही थी और वो मेरा।
भाभी का कोई अंग नहीं बचा था जो भाभियों, उनकी नन्दों ने और जीजा ने छोड़ा हो,
जीजा के खास रंग तो मैं पहचानती थी।
जाँघों के बीच में भी पिछवाड़े भी, और जब भाभी की निहुरा के मैंने उनका पिछवाड़ा देखा,
तो एकदम अंदर कम से कम चार पांच मुट्ठी सूखा रंग और अबीर एकदम अंदर तक…
उंगली डाल-डालकर अंदर तक से निकालकर भाभी को दिखाया,
और फिर पाइप में नोजल लगा के तेज धार अंदर तक, सब रंग जब तक बह नहीं गए।
और इसके बाद भाभी ने मुझे धर दबोचा, एक-एक जगह चेक की जहां-जहां जीजू ने रंग लगाया था,
लेकिन जब जाँघों के बीच ‘वहां’ का नंबर आया तो मैं बिदक जाती।
लेकिन भाभी मेरी, उनके आगे किसी की चलती है।
मोहल्ले की चाहे कच्चे टिकोरे वाली उनकी ननदे रहीं हों, या खूब खेली खायी, सब उनसे पानी मांगती थी।
भाभी-
“लगाऊँगी अभी एक कस के, खोल, अपने जीजू के आगे तो झट से खोल दिया और मेरे आगे नखड़े दिखा रही है।
खोल पूरी तरह से…”
मैं खिलखिलाने लगी-
“अरे भाभी, जीजू तो जीजू हैं, अब साली होली में जीजू के आगे नहीं खोलेगी तो?”
तब तक भाभी की चिकोटियों, गुदगुदी और गदोरी से जो उन्होंने जाँघों के बीच हिस्से लगाए, मेरी जांघ खोल के ही दम लिया। फिर तो मेरी चिरैया की चोंच खुली और भाभी की मंझली उंगली गच्चाक से अंदर…
जीजू की मलाई अभी तक लबलबा रही थी पूरे ऊपर तक, कटोरी भर से ज्यादा ढरकाई भी थी
उन्होंने मेरी प्रेम गली में, और टाँगें उठाकर मैंने सब रोप लिया था, एक बूँद भी बाहर नहीं छलकने दिया था।
भाभी ने थोड़ी देर तक उंगली गोल-गोल घुमाई, और फिर जो निकाली तो, जीजू की गाढ़ी, सफेद, खूब थक्केदार मलाई उनकी उंगली में लिपटी, चिपकी।
मुझे दिखा के जरा सा उन्होंने चाट लिया और फिर क्या खुशी छलकी उनके चेहरे से, और उंगली मेरे मुँह की ओर बढ़ाई।
मैं जरा सा बिदकी तो फिर डांट और उससे ज्यादा गालियां-
“ज्यादा छिनारपना न कर, नीचे वाले मुँह में ऊपर तक बजबजा रहा है और ऊपर वाले मुँह में?
खोल मुँह सीधे से, छिनार की जनी, चूतमरानो, अरे ये होली का प्रसाद यही है।
होली के दिन वो भी जीजू से, फिर पहली बार, चख ले इसे, देख तुझे होलिका माई का आशीर्बाद मिलेगा,
लण्ड की कोई कमी नहीं रहेगी, एक से एक मोटे-मोटे मिलेंगे…”
और मैंने चाट लिया, सच में क्या स्वाद था।
खूब मीठा जैसे रबड़ी में शहद मिला दिया गया हो।
भाभी-
“अब देख तुझे लण्ड की कोई कमी नहीं रहेगी, वैसे भी हिचक तुझे फड़वाने की थी, डर लगता है भाभी, बहुत दर्द होगा?
लोग क्या कहेंगे? कहीं कुछ गड़बड़ हो गया तो? नहीं फड़वाना मुझे बस? शादी के बाद सीधे…”
भाभी ने मेरी आवाज की नकल करते हुए मेरे बहाने गिनाए और खूब चिढ़ाया।
फिर समझाया भी-
“यार अब रास्ता खुल गया है, तो आने जाने वालों को मना मत करो, जितनों का मन रखोगी, तुझे दुआ ही देंगे। फिर एक बार तेरी सहेली ने चारा खा लिया है न, तो अब तो रोज उसे खुजली चढ़ेगी…”
खाना खाते समय भी भाभी की छेड़खानी, चुहलबाजियां जारी रही।