19-11-2020, 04:46 PM
कभी-कभी तो लड़की बंद किताब सी लगती है, जिसे मैं हर्फ़ दर हर्फ़ पढ़ना चाहता हूं और कभी-कभी उर्दू की तरह इश्क में बिखरी हुई लगती है, जिसे समेट मैं कुछ ऐसा रच देना चाहता हूं जो उस जैसा ही अलहदा हो।
वह बेहद अलहदा है, मैं उसे परतों में लिपटी गुलाब की तरह कभी नहीं देख पाया, ना ही ख़ुशबू बिखेरती मोगरा लगी, दोपहर में भी वह मुझे सुबह की पहली किरण सी खिली हुई सुगंधित कनेर लगी !
वह धवल कनेर सी कोने वाली कुर्सी पर बैठी थी। उसका चेहरा झुका था। वह कोई किताब पढ़ रही थी। पास ही रखी कॉफ़ी की एक खाली प्याली और गद्य में आकंठ डूबी वह। वह दरवाजे की ओर नहीं देख रही थी, वह मेरी राह नहीं तक रही थी। वह प्रतीक्षा में बेचैन नहीं थी। प्रणय की आभा से भरी। अनुरक्ति के आलोक से दीप्त और गरिमा की प्रस्तुत तस्वीर वह।
कुछ देर मैं उसे देखता हूं। कुछ और देर तक देखना चाहता हूं लेकिन उसके पूर्व निर्देशानुसार बैरा एक कॉफ़ी और एक अदरक वाली चाय के साथ भजिये रख जाता है।
उसने किताब से सर उठा कर पूछा “तुम कब आये?” और ऐसा पूछते हुए उसने उल्लू की आकृति वाली बुकमार्क अधूरे पढ़े पन्नों के बीच रख किताब बंद कर दिया। आंखों से ऐनक उतार बगल में रखे बैग के किसी भीतरी खोह से केस निकाल उसमें रखते हुए वह मेरी ओर देख मुस्कुराई।
“जब तुम किताब पढ़ रही थी…” कहते हुए मैंने किताब पर नज़र डाली, फ्रान्ज़ कक्फा की ‘लेटर्स टू मिलेना’ थी।
वह बेहद अलहदा है, मैं उसे परतों में लिपटी गुलाब की तरह कभी नहीं देख पाया, ना ही ख़ुशबू बिखेरती मोगरा लगी, दोपहर में भी वह मुझे सुबह की पहली किरण सी खिली हुई सुगंधित कनेर लगी !
वह धवल कनेर सी कोने वाली कुर्सी पर बैठी थी। उसका चेहरा झुका था। वह कोई किताब पढ़ रही थी। पास ही रखी कॉफ़ी की एक खाली प्याली और गद्य में आकंठ डूबी वह। वह दरवाजे की ओर नहीं देख रही थी, वह मेरी राह नहीं तक रही थी। वह प्रतीक्षा में बेचैन नहीं थी। प्रणय की आभा से भरी। अनुरक्ति के आलोक से दीप्त और गरिमा की प्रस्तुत तस्वीर वह।
कुछ देर मैं उसे देखता हूं। कुछ और देर तक देखना चाहता हूं लेकिन उसके पूर्व निर्देशानुसार बैरा एक कॉफ़ी और एक अदरक वाली चाय के साथ भजिये रख जाता है।
उसने किताब से सर उठा कर पूछा “तुम कब आये?” और ऐसा पूछते हुए उसने उल्लू की आकृति वाली बुकमार्क अधूरे पढ़े पन्नों के बीच रख किताब बंद कर दिया। आंखों से ऐनक उतार बगल में रखे बैग के किसी भीतरी खोह से केस निकाल उसमें रखते हुए वह मेरी ओर देख मुस्कुराई।
“जब तुम किताब पढ़ रही थी…” कहते हुए मैंने किताब पर नज़र डाली, फ्रान्ज़ कक्फा की ‘लेटर्स टू मिलेना’ थी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
