19-11-2020, 04:39 PM
” आपसे तो बात करनी ही बेकार है माँ , और, अब भी समय है आप डॉक्टर को दिखा ही लो ! ” बेटा नाराज़ हो कर कमरे से चला गया।
वेदिका जोर से रो पड़ी, “ये क्या बात हुई भला ! आप भी उसका साथ देने लग गए ! ”
” जाने भी दो वेदिका ! क्या हुआ जो कुछ बोल दिया। कुछ समय बाद इसकी शादी हो जाएगी तो बेचारा ये भी कहाँ मन की कह पायेगा , मेरी तरह चुप ही तो रहा करेगा। ”
” अच्छा जी , आप भी चुप रहते हैं और वह भी चुप ही रहेगा ! कड़वी बेल के फल भी तो कड़वे लगते हैं !”
” अरे जाने दो भई ! रात बहुत हो गई है , सुबह और भी काम है। ” राघव सोने चल दिए।
वेदिका पीठ घुमाए रोती रही। सोच रही थी कि काश , बेटी पास होती तो मन की तो सुनती, यूँ पागल तो ना कहती । काश, एक बार मुझे राघव गले लगा कर चुप ही करवा देते तो मन यूँ अशांत ना रहता। राघव को क्या परवाह थी। वे तो बेफिक्र खर्राटे मार रहे थे। कुछ देर में उसकी भी आँख लग गई।
अगले दिन फिर वही काम में व्यस्तता रही। कहने को सहायक है मदद के लिए , फिर भी उसके काम तो उसे ही करने होते हैं। वेदिका को काम में व्यस्त देख कर वह भी लौट गई। लेकिन जैसे ही धूप सेवन करने को वेदिका छत पर गई। पीछे -पीछे वह भी आ गई। वेदिका ने चोटी खोल कर बाल फैला लिए। चटाई पर ही लेट कर आँख मूँद ली कि दो बून्द आँखों के किनारों से बह निकले।
अरे , क्या हुआ …ये आंसू क्यों ? पास बैठे हुए उसने देखा तो जैसे आंसू अपनी उँगलियों पर ले लिए। वेदिका ने करवट ले कोहनियों पर सर टिकाते हुए , उदासी भरे स्वर में बोली , ” हम जिंदगी में सब को खुश नहीं रख सकते ….. , अब मैं हार गई हूँ। कितने बरस हो गए इस घर में आये हुए। सिर्फ दो कदम भर जमीन ही मेरी है। पीछे जा नहीं सकती और आगे बढूं तो कितने कांटे है। कोशिश भी की कभी तो कदम रखने को इजाजत नहीं मिली …” कह कर सीधे लेट गई। आंसू फिर बह चले।
” माँ ! आप यहाँ लेटी हो ! मैं सारे घर में ढूंढ आया ! ”
” क्या हुआ ? आप रोये हो क्या ! हैं ! ”
” नहीं मैं क्यों रोउंगी ! मैं तो मानसिक रोगी हूँ न ! कुछ भी कर सकती हूँ …., गला भर्रा गया वेदिका का।
” लो माँ , ये भी क्या बात हुयी , मैंने क्या गलत कहा , कई बार इंसान को खुद मालूम नहीं पड़ता ! ”
” अच्छा ! अब मैं ऐसा क्या करती हूँ जो मानसिक रोगी नज़र आती हूँ। ” नाराज़ हो गई वेदिका।
” अरे माँ…… जाने दो ना , मुझे भूख लगी है , चलो कुछ बना कर दो। ”
” अच्छा क्या खायेगा …, ” भर्राये गले से भी ममता फूट रही थी।
बेटे को उसका मनचाहा बना कर दिया। फिर शाम को वही काम -धंधा। उदासी और ख़ुशी में डूबती वेदिका का एक दिन और बीत गया।
दो दिन बाद बेटा भी चला गया। बेटा जा रहा था, सो मन तो भारी ही था उस पर माता जी का व्यवहार। वह सोचती रहती कि उससे ना जाने क्या गलती हुई है। हद तो तब थी कि उसे ,माँ नौकरों से भी कम तरजीह देती थी। उस दिन भी यही हुआ। वह रसोई में बेटे के लिए प्याज़ के परांठे बनाने के लिए प्याज़ काट रही थी और बहादुर आटा सान रहा था। मां पूजा की डलिया ले कर रसोई से बाहर ही बहादुर को आवाज़ लगाती हुयी चली गई कि वह मंदिर जा रही है। एक तो प्याज़ की जलन और ऊपर से गले तक छलके हुए आंसू ढ़लक पड़े। जोर से रोना चाहती थी पर ऐसा नहीं कर पाई क्यूंकि रोने की ये कोई बड़ी वजह नहीं थी। फिर भी आंसू रुक नहीं सके। प्याज़ के बहाने से ही सही कुछ छलका हुआ गला तो नीचे बैठा।
” माँ ! आप रो रहे हो क्या ? ”
” नहीं बेटा , ये तो प्याज़ छील रही हूँ तो कड़वे बहुत है ! ” आँखे पोंछती हुयी अपने कमरे के वाश रूम की तरफ गई तो पतिदेव ने कंधे पकड़ कर रोक लिया कि ये प्याज़ के आंसू तो नहीं है। ये तो ….
” ये तो क्या है फिर ! आप मेरे आंसू कब से समझने लगे …. ” कंधे छुड़ा कर जल्दी से वॉशरूम में मुहं धोकर थोड़ा संयत होने की कोशिश की। आँखे फिर भी लाल थी। ऐसे तो वेदिका ने प्याज़ के बहाने ना जाने कितनी ही बार मन को हल्का किया है।
रसोई में गई तो वह सामने खड़ी थी। होले से मुस्कुरा कर बोली , ” बेटा जा रहा है इसलिए मन भारी है ना ? ”
” हाँ , सच में ……” कह कर वेदिका ने चाकू से स्लैब पर एक लकीर खींच दी , और फिर उस लकीर के पास , उस लकीर के पास एक छोटी लकीर खींच दी। ऐसा वह तब तक करती गई , जब तक आखिर में एक लकीर की जगह बिंदु बच गया।
दोपहर तक बेटा भी चला गया। घर एक बार खामोश सा हो गया। उसका मन नहीं किया कि छत पर जाये। अपने कमरे में जा कर रजाई ओढ़ कर सोने का सोचा। नरम-गरम रजाई में घुसते ही भरा हुआ मन फिर बरस पड़ा। बेटे की वजह से राघव उस दिन ऑफिस नहीं गए थे। उसके जाने के बाद किसी काम से कहीं गए थे। लौटने पर जब कमरे में आये तो उनको लगा कि वेदिका रो रही है। झट से रजाई हटा कर , सर पर हाथ रखा। उदास तो वो भी हो गए थे।
” क्या बात है वेदिका , यूँ जी छोटा क्यों कर रही हो ! ”
” कुछ नहीं हुआ ! यूँ ही रोने का मन कर गया। ” आंसू पोंछते हुए उसने रजाई मुहं पर खींच ली।
” अरे वाह ! ये भी खूब रही , रोने का भी मन करता है कभी ? तुम भी कमाल की हो ! ध्रुव सच ही कहता है। तुमको डॉक्टर से मिलना ही चाहिए ! ”
तमक कर उठी वेदिका तो राघव चाय का आदेश दे कर बाहर निकल गए। भरी आंखे और भारी सर लिए वेदिका चली पड़ी आगे की दिनचर्या पूरी करने में।
वह सोचती जा रही थी कि अगर उसकी जगह, उनकी बेटी होती तो राघव उसके रोने की वजह जान कर उसे खुश करने के हर संभव प्रयास करते। ऐसा क्यों होता है अपनी बेटी इतनी प्रिय और पत्नी जो कि उसी बेटी की जन्मदायनी है , उसके साथ ऐसी बेरुखी। एक बार फिर आँखे छलक पड़ी।
तभी बेटी का फोन आ गया। मन से मन को राह होती ही है। वह कुछ दिन के लिए आ रही थी। मन को सुकून सा मिला। क्या-क्या शॉपिंग करनी है , कहाँ से करनी है। क्या ज्वेलरी बनानी है। सोचते हुए शाम हो गई और रात भी कट गई।
अगला दिन कुछ सुकून भरा था। मन शांत था। राघव ऑफिस के लिए चले गए। मन किया कि कुछ संगीत सुना जाये। मोबाईल को वायर -लेस स्पीकर से जोड़ा , यू -ट्यूब खोला और सोचने लगी की गजल सुनु या गीत। तभी मेहँदी हसन की गजल पर नज़र पड़ी। उसे ही चला दिया।
” रंजिशे ही सही , दिल ही दुखने के लिए आ …. ”
मेहँदी हसन की मखमली आवाज़ जैसे घर की नीरवता भंग कर रही थी। ‘ नीरवता! ‘ हां ! यही शब्द सूझता है उसे अपने घर के लिए। पति घर में हो कर भी अपने में मग्न , माता जी या तो पूजा-पाठ या उसको कोसने के अलावा मुहं फुला कर बैठे रहना ही स्वभाव था। ऐसे में संगीत ही उसका सहारा है।
ग़ज़ल के साथ-साथ माता जी की बड़बड़ाहट शुरू हो गई , “उम्र हो गई है , लेकिन ये गीत-संगीत की लत नहीं जाती ! बेटी को का क्या संस्कार देगी ! जब खुद ही का मन बस में नहीं ! भजनों में जाने क्यों इसका मन लगता। ”
खीझ कर उसने ग़ज़ल बंद कर दी। मन उदास हो गया। ‘इनको मेरे सजने संवरने पर , मेरे संगीत सुनने पर इतना ऐतराज़ क्यों है। ‘ हाथ में पत्रिका ले ,उदास मन आँखों में पानी लिए छत पर चल पड़ी। चटाई बिछा कर लेट गई। सोचने लगी कि इतने बड़े घर में उसके लिए एक कोना नहीं है , जहाँ अपना सुख-दुःख कर सके। तभी वह भी आ गई तो वेदिका को अच्छा सा लगा।
” कमाल की बात है ना , घर में दो औरतें हैं , फिर भी खामोश , चुप-चुप ! एक छत पर तो दूसरी लॉन में ! ”
वह हंस रही थी।
” यह मुझे भी मालूम है। लेकिन मेरे पास कोई हल नहीं है। मैंने बहुत कोशिश की कि माँ के पास बैठूं बात करूँ, लेकिन उनको तो सिर्फ उनके मतलब की बात या उनका स्तुतिगान ही पसंद है। मैं एक साधारण इंसान ही हूँ , उनके असाधारण मानसिक स्तर को नहीं छू सकती। ” वेदिका ने आहत और स्पष्ट शब्दों में अपनी व्यथा कह दी।
लेकिन क्या राघव भी ……
तभी सीढ़ियों से आहट हुई। वह झट से उठ बैठी। अपनी बेटी के क़दमों की आहट को कैसे ना पहचानती भला …
बेटी को गले लगा कर वेदिका की जैसे आत्मा ही तृप्त हो गई। रुनकु के आते ही जैसे घर में रौनक आ गई। थोड़ी देर में तीनों लॉन में बैठी थी। वह माँ और दादी के बीच की कड़ी थी। दादी भी उसके बहाने से वेदिका को खूब सुना लेती थी। और वेदिका के पास सिर्फ मुहँ बनाने के अलावा कोई चारा नहीं था। मन में घुट के रह जाती बस।
आज भी शुरू हो गई माता जी , उनके पास कौन बैठता है। बूढ़े इंसान की कोई जिंदगी है क्या ! और भी बहुत कुछ न कुछ …
” दादी माँ , आज ही सारी भड़ास निकाल देंगी तो कल क्या कहेंगी ! ” रुनकु हंस पड़ी। वेदिका चुप रह कर कुढ़ती रही।
ध्रुव को इसी बात से चिढ़ थी कि वह समय पर नहीं बोलती है और बाद में मन ही मन कुढ़ती रहेगी। और यही बात उसे मानसिक रोगी बनाये जा रही थी। ‘मानसिक रोगी’, शब्द दिमाग से जैसे टकरा गया हो। एक दम से खड़ी हो गई।
” क्या हुआ मम्मा ? उठ कैसे गए , अभी तो कल की प्लानिंग बाकी है ….”
” कॉफी ले आती हूँ ! ” वेदिका ने जाते हुए कहा।
” रुनकु बेटा , मैं कॉफी -शाफी नहीं पीयूंगी ! बहादुर आएगा तो चाय बना देगा नहीं तो खुद बना लुंगी ! ” दादी माँ ने ठसक से कहा।
वेदिका को गुस्सा आया कि अगर कॉफी नहीं पीनी है तो चाय वह भी तो बना सकती थी। लेकिन कैसे भी हो वेदिका का दिल तो दुखना ही चाहिए था।
” मम्मा , आप क्यों दादी की बातों को दिल से लगाती हो। उनको अपने हाथ की चाय पसंद है तो अच्छी बात है न ! आप या तो उनको उसी समय जवाब दे दिया करो नहीं तो एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकल दिया करो। ”
” माँ-बाप ने संस्कार यही दिए थे, जो समय के साथ परिपक्व होते गए। इतने बरस नहीं जवाब नहीं दिया तो अब भी जुबान नहीं खुलती…… तू नहीं समझेगी ! बड़ों का मान सम्मान भी तो कुछ होता है ! ”
” और अगर बड़े समझे ही ना तो , आखिर हम कितना झुकेगें ? टूटने की हद तक ? यह गलत है भई , मेरी तो इतनी सहन -शक्ति नहीं है मम्मा ! ”
” अच्छा -अच्छा रहने दे …. काम की बात करते हैं अब ! ” वेदिका ने बात बदल दी।
फिर कुछ दिन तक शादी की शॉपिंग में दिन बीते। कभी अम्मा जी भी साथ थी तो कभी राघव के साथ। बहुत सारी शॉपिंग हो गई। कुछ बच भी गई। सबकी पसंद के कपड़े लिए गए। वेदिका की बारी आई तो वह कुछ सोच में पड़ गई।
” क्या सोच रहे हो मम्मा ? ”
” सोच रही हूँ कि कौनसा रंग लूँ , सभी अच्छे ही हैं ! ” स्मित मुसकान लिए बेजारी से वेदिका ने कहा।
” जो रंग सबसे ज्यादा पसंद हो वह लो ! ” राघव कह रहे थे।
” रंग ! ” फिर गुम होने को आई वेदिका ….
उसे यह तो याद ही नहीं रहा कि उसको क्या रंग पसंद है या था। विवाह से पहले तो काला रंग ही पसंद था। कुछ स्वभाव भी विद्रोही था। नए ज़माने की सोच लिए हुआ था। और फिर एक दिन विवाह हो गया।
सोच पर पहरे तो नहीं लगे , हाँ अभिव्यक्ति कहीं दब गई। सास और पति की पसंद और ना पसंद के बीच उसकी पसंद कही खो ही गई थी।
” हां तो फिर ! ” राघव ने टहोका।
” फिर क्या ? बता दीजिये कौनसी साड़ी लूँ …. , ”
” मैं इसमें क्या बताऊँ , जो अच्छी लगे वो लो …. ”
” हाँ जी सही कहा,मैं तो बाद में नुक्स निकलूंगा , क्यों ? ” खिलखिला कर हंस पड़ी वेदिका।
वेदिका को राघव का साथ बहुत अच्छा लगता था। इसमें बड़ी क्या बात थी ! ये तो हर पत्नी को लगता है ! लेकिन वेदिका को राघव का साथ एक सुरक्षा का घेरा सा लगता था। चाहे वह उसकी उपस्तिथि को तवज्जो दे या ना दे। जाने क्या महक थी राघव में। एक जादू सा है उसकी ख़ामोशी में भी …., ये महक, ये जादू उसे सम्मोहित किये रहता है और वह सम्मोहित सी उसके मद में डूबी सी रहती है।
” हाँ जी वेदिका जी ! कहाँ खो गई ! ” राघव उसे हैरान से पुकार रहे थे। थोड़े खीझ गए। यह लेडीज़ डिपार्टमेंट उनके बस में नहीं। वह बस मुस्कुरा दी। बोली , ” आज नहीं लेना कुछ भी ! कल फिर से आएंगे ! ”
” कल ! मम्मा ! कल तो मैं चली जाउंगी ! ”
” कमाल है भई , मुझे कल समय नहीं मिलेगा ! जो भी लेना है आज ही ले लो ! ”
” इसमें चिल्ला कर बोलने की जरुरत तो नहीं थी , ये सेल्समेन क्या सोचेगा ! मेरी कोई इज़्ज़त है कि नहीं ! ”
तुनक गई वेदिका।
राघव नाराज़ हो कर दुकान से बाहर आ गए। वेदिका और रुनकु भी पीछे-पीछे आ गई। थोड़ी देर बाद घर की ओर चल रहे थे। राघव खीझ रहे थे कि जो काम आज-अभी हो सकता था वह कल पर क्यों छोड़ा गया, काम तो और भी बहुत हैं । वेदिका की आंखे नम थी कि राघव को यूँ तो दुकान वाले के सामने खीझना तो नहीं था।
शॉपिंग आज तो हो सकती थी कल पर छोड़ने में कोई तुक भी नहीं बनती थी , पर इसके पीछे एक राज़ की बात भी थी ! वह राघव के साथ अगले दिन भी बाजार आना चाहती थी ; सिर्फ उसके साथ अकेले जाने के लिए। उसे उसका साथ और लॉन्ग ड्राइविंग बहुत पसंद थी। राघव को भी यह मालूम है फिर वह क्यों नहीं जानता-समझता। और भी बहुत सारी बातें है जो वेदिका मुहं से बिन बोले राघव को समझाना चाहती है पर वह नहीं समझता या समझना नहीं चाहता।
वह बाजार से आकर अनमनी सी ही रही। किसको परवाह थी !
वेदिका को भी तो ऐसे अनमना नहीं रहना चाहिए था। उसको भी थोड़ा समझदार तो होना चाहिए ना ! घर में इतने काम थे और वह अपने बुझे मन को लिए बैठी थी।
उस रात उसने अपनी डायरी में लिखा ,” एक स्त्री क्या चाहती है ? यह , वह स्वयं जानती है ! फिर भी वह चाहती कि कोई उसका खयाल रखे, उसको सुने और वह सब भी सुने जो उसका अव्यक्त है ।वह कैसे दौड़ पड़ती है सबके लिए ,कोई तो उसका भी ऐसे ही फ़िक्र करे। वह कभी-कभी परियों जैसा , राजकुमारी जैसा महसूस करवाना चाहती है जैसे उसके मायके में महसूस करवाया जाता है। कम-से-कम वह अपने पति से तो ये उम्मीद रखती ही है। तो फिर क्यों ….? ”
लिखते -लिखते कलम मुँह में दबा कर , मुड़ कर देखा तो राघव निन्द्रा में मग्न थे। मुस्कुरा पड़ी। कितना व्यवहारिक इंसान है। किसी की भावनाओं की परवाह ही नहीं।
उसने आगे लिखा , ” तो फिर क्यों , उसे पराई ही समझा जाता है। कहने को घर की रानी होती है , पर क्या सच में ? सच क्या है , सबको पता है… , यहाँ स्त्री पर जुल्म की बात नहीं है पर समझने की यह बात भी कि एक स्त्री कब तक स्त्री रहती है ! जब तक वह सास ना बन जाये , तब तक ही ? तो उसके बाद क्या वह स्त्री नहीं रहती ? यह जिंदगी शतरंज की बिसात ही तो है। सारा खेल शह -मात का है। सारी लड़ाई सत्ता की ही तो है ….”
” वेदिका ! तुम्हारा लिखना-लिखाना हो गया हो तो आकर सो जाओ ! ” राघव की आवाज़ में आदेश था।
वेदिका आदेश मानती आयी ही है तो आज कैसे मना करती। रात भी तो काफी हो चली थी। एक अच्छी सी अंगड़ाई ले कर खड़ी हो गई। आदमकद आईने में देख कर मुस्कुराई। मुस्कुराई कि रात को मुहं बिसूर कर सोने से सपने भी अच्छे नहीं आते।
आने वाले दिन बहुत व्यस्त थे। शॉपिंग लगभग सम्पूर्ण हो चुकी थी। साँस लेने को भी फुर्सत नहीं थी। फरवरी के प्रथम सप्ताह में विवाह का मुहूर्त था। सभी रिश्तेदारों का आगमन हुआ। गीत-संगीत की धूमधाम रही। तेज़ संगीत और चमकती लाइटों की रौशनी में सब कुछ चमकदार था। कोई गिला-शिकायतें नहीं थी। बेटा दूल्हा बना बहुत प्यारा लग रहा था। नज़रे ही नहीं हट रही थी। दादी तो बार बलैयां ले रही थी। बुआएँ , मौसियां , मामियाँ और चाची -ताईयां सबका आशीर्वाद मिल रहा था। बहुत अच्छे से विवाह -कार्य संपन्न हुआ।
अब नई बहू के स्वागत में घर में गहमा -गहमी थी।
” वेदिका ! अब तेरा राज-पाट तो गया भई ! ” ध्रुव की ताई ने चुटकी ली।
” राज-पाट ? वो कब मिला मुझे ! जिसका जाने का डर हो ” वेदिका भी हंस पड़ी।
बात हंसी की ही थी और जवाब भी हंसी में ही दिया। लेकिन कई चेहरों पर रंग आयेऔर चले गए। माहौल देखते हुए कुछ कहा तो नहीं गया अलबत्ता होठों पर तिर्यक रेखा अंकित हो गई।
वेदिका का मन बुझ सा गया। वह गुम होने को आयी। एक लड़की जो बहू बन कर एक पराये घर में जाती है ,परायी बने रहने के लिए नहीं बल्कि तन -मन से सबको अपनाने ही आती है। फिर भी वह तब तक परायी ही मानी जाती है ,जब तक अगली परायी लड़की उसकी जगह लेने नहीं आ जाती ! तो अब एक पराई लड़की का आगमन होना है और उसका राजपाट छिन जाने वाला था ?
हमारे समाज में एक लड़की को सास के नाम पर इतना डराया जाता है कि वह सोचने लगती है कि सास एक बहुत खतरनाक प्राणी है। वह एक असुरक्षा की भावना और जिद से भर जाती है कि वह अपना वर्चस्व स्थापित करके ही रहेगी। सास को भी तो डराया जाता है कि अब उसकी नहीं चलने वाली। आखिर एक स्त्री ने इतने सालों तक तपस्या से अपने घर को बनाया होता है , सजाया होता है तो उसे कोई और लड़की, वह भी पराये घर से आई हुयी , कैसे हरा सकती है ? जाने-अनजाने वह भी एक असुरक्षा से भर जाती है।और यही कारण है सास-बहू की तकरार का भी ।
कभी- कभी लगता है , एक स्वस्थ रिश्ते को पनपने देने की बजाए जैसे अखाड़े में उतरने के लिए दो पहलवानों को तैयार किया जाता है वैसे ही सास-बहू को तैयार किया जाता है। नसीहतें दी जाती हैं , सिखाया-पढ़ाया जाता है। सोचती हुयी हंस पड़ी।
” देख कैसी खुश हो रही है , सब पता चल जायेगा जब बहू आएगी।!” दादी ने धीरे से पास बैठी अपनी बेटी को कोहनी मारी।
” अब नया जमाना है माँ , नयी बातें है…., अब ना तो सास सख्त है और न ही बहू दब कर रहने वाली… ” बेटी ने जैसे समझाया हो माँ को या खुद को ही।
इंतज़ार की घड़ियाँ कम होती जा रही थी। फोन पर जानकारी दी जा रही थी कि नयी बहू कांकड़ पर आ गई है। घर की महिलाओं में उत्साह सा था एक नए सदस्य के स्वागत का। ध्रुव की दादी भी बहुत हर्षोल्लासित थी। जैसे पैरों में घुंघरू बांध लिए हो।
दुल्हन दहलीज़ पर खड़ी थी। जैसे ही अन्दर आने को कदम बढ़ाया तो साथ खड़ी ध्रुव की बुआ ने आहिस्ता से कहा , ” शिवि बिटिया ! पहले दायाँ पैर आगे बढ़ाओ। घर की लक्ष्मी हो , तुम्हारे आने से घर में धन-धान्य की वृद्धि हो। ”
नयी दुल्हन शिवि ने पलकें उठा कर बुआ को देखा और उनकी आज्ञा का पालन किया।
ध्रुव-शिवि की जोड़ी सराहनीय लग रही है। वेदिका की तो नज़रें ही नहीं हट रही थी। बहुत प्यार से आरती उतार कर दोनों को गले लगा लिया। वेदिका को शिवि की सांसे वैसी ही महसूस हुयी जैसे नवजात बच्चे की होती है। थोड़ी कच्ची-कच्ची सी , थोड़ी तेज़-तेज़ सी।
आँखों में सपने और अजनबीपन लिए ….. जैसे एक पौधा इंतज़ार कर रहा हो , अपने रोपे जाने का। एक आशंका भी थी पता नहीं धूप , पानी और थोड़ा सा आसमान मिलेगा या नहीं। बेशक नए ज़माने की लड़कियां बहुत बहादुर और सामंजस्य बिठा लेने वाली होती है लेकिन यह अपनाने वालों पर भी निर्भर करता है कि वे नयी बहू से अपेक्षाओं से अधिक , कितना अधिक प्रेम और स्नेह देते हैं।
लाल आलता से रंगे कदमों को आहिस्ता-आहिस्ता बढाती हुई शिवि , वेदिका को साक्षात् लक्ष्मी का रूप ही लग रही थी। घर का वातावरण बहुत खुशनुमा हो गया था। हंसी -ख़ुशी सारी रस्में निभाई जा रही थी।
” लो भई शिवि भाभी जीत गई ! भैया तो हार गए ! ” रुनकु ने ताली बजाई तो सभी औरतें खिलखिला कर हंस पड़ी।
” बेटियां जीतती ही अच्छी लगती है ! ” वेदिका ने भी हंस कर साथ दिया तो शिवि ने वेदिका को गौर से देखा। उसके मन में एक हिलोर सी उठी , यकायक माँ की याद आ गई। कितनी भीड़ थी ! सभी अजनबी थे। कहने को ध्रुव से थोड़ी सी पहचान थी वह भी फोन के माध्यम से ही। ऐसे में प्यार और अपनेपन के बोल बहुत सुहाते हैं।
थोड़ी देर में दादी भी आ गई। बहुत दुलरा रही थी। स्नेह से सर पर हाथ फिराते थक नहीं रही थी।
वेदिका जोर से रो पड़ी, “ये क्या बात हुई भला ! आप भी उसका साथ देने लग गए ! ”
” जाने भी दो वेदिका ! क्या हुआ जो कुछ बोल दिया। कुछ समय बाद इसकी शादी हो जाएगी तो बेचारा ये भी कहाँ मन की कह पायेगा , मेरी तरह चुप ही तो रहा करेगा। ”
” अच्छा जी , आप भी चुप रहते हैं और वह भी चुप ही रहेगा ! कड़वी बेल के फल भी तो कड़वे लगते हैं !”
” अरे जाने दो भई ! रात बहुत हो गई है , सुबह और भी काम है। ” राघव सोने चल दिए।
वेदिका पीठ घुमाए रोती रही। सोच रही थी कि काश , बेटी पास होती तो मन की तो सुनती, यूँ पागल तो ना कहती । काश, एक बार मुझे राघव गले लगा कर चुप ही करवा देते तो मन यूँ अशांत ना रहता। राघव को क्या परवाह थी। वे तो बेफिक्र खर्राटे मार रहे थे। कुछ देर में उसकी भी आँख लग गई।
अगले दिन फिर वही काम में व्यस्तता रही। कहने को सहायक है मदद के लिए , फिर भी उसके काम तो उसे ही करने होते हैं। वेदिका को काम में व्यस्त देख कर वह भी लौट गई। लेकिन जैसे ही धूप सेवन करने को वेदिका छत पर गई। पीछे -पीछे वह भी आ गई। वेदिका ने चोटी खोल कर बाल फैला लिए। चटाई पर ही लेट कर आँख मूँद ली कि दो बून्द आँखों के किनारों से बह निकले।
अरे , क्या हुआ …ये आंसू क्यों ? पास बैठे हुए उसने देखा तो जैसे आंसू अपनी उँगलियों पर ले लिए। वेदिका ने करवट ले कोहनियों पर सर टिकाते हुए , उदासी भरे स्वर में बोली , ” हम जिंदगी में सब को खुश नहीं रख सकते ….. , अब मैं हार गई हूँ। कितने बरस हो गए इस घर में आये हुए। सिर्फ दो कदम भर जमीन ही मेरी है। पीछे जा नहीं सकती और आगे बढूं तो कितने कांटे है। कोशिश भी की कभी तो कदम रखने को इजाजत नहीं मिली …” कह कर सीधे लेट गई। आंसू फिर बह चले।
” माँ ! आप यहाँ लेटी हो ! मैं सारे घर में ढूंढ आया ! ”
” क्या हुआ ? आप रोये हो क्या ! हैं ! ”
” नहीं मैं क्यों रोउंगी ! मैं तो मानसिक रोगी हूँ न ! कुछ भी कर सकती हूँ …., गला भर्रा गया वेदिका का।
” लो माँ , ये भी क्या बात हुयी , मैंने क्या गलत कहा , कई बार इंसान को खुद मालूम नहीं पड़ता ! ”
” अच्छा ! अब मैं ऐसा क्या करती हूँ जो मानसिक रोगी नज़र आती हूँ। ” नाराज़ हो गई वेदिका।
” अरे माँ…… जाने दो ना , मुझे भूख लगी है , चलो कुछ बना कर दो। ”
” अच्छा क्या खायेगा …, ” भर्राये गले से भी ममता फूट रही थी।
बेटे को उसका मनचाहा बना कर दिया। फिर शाम को वही काम -धंधा। उदासी और ख़ुशी में डूबती वेदिका का एक दिन और बीत गया।
दो दिन बाद बेटा भी चला गया। बेटा जा रहा था, सो मन तो भारी ही था उस पर माता जी का व्यवहार। वह सोचती रहती कि उससे ना जाने क्या गलती हुई है। हद तो तब थी कि उसे ,माँ नौकरों से भी कम तरजीह देती थी। उस दिन भी यही हुआ। वह रसोई में बेटे के लिए प्याज़ के परांठे बनाने के लिए प्याज़ काट रही थी और बहादुर आटा सान रहा था। मां पूजा की डलिया ले कर रसोई से बाहर ही बहादुर को आवाज़ लगाती हुयी चली गई कि वह मंदिर जा रही है। एक तो प्याज़ की जलन और ऊपर से गले तक छलके हुए आंसू ढ़लक पड़े। जोर से रोना चाहती थी पर ऐसा नहीं कर पाई क्यूंकि रोने की ये कोई बड़ी वजह नहीं थी। फिर भी आंसू रुक नहीं सके। प्याज़ के बहाने से ही सही कुछ छलका हुआ गला तो नीचे बैठा।
” माँ ! आप रो रहे हो क्या ? ”
” नहीं बेटा , ये तो प्याज़ छील रही हूँ तो कड़वे बहुत है ! ” आँखे पोंछती हुयी अपने कमरे के वाश रूम की तरफ गई तो पतिदेव ने कंधे पकड़ कर रोक लिया कि ये प्याज़ के आंसू तो नहीं है। ये तो ….
” ये तो क्या है फिर ! आप मेरे आंसू कब से समझने लगे …. ” कंधे छुड़ा कर जल्दी से वॉशरूम में मुहं धोकर थोड़ा संयत होने की कोशिश की। आँखे फिर भी लाल थी। ऐसे तो वेदिका ने प्याज़ के बहाने ना जाने कितनी ही बार मन को हल्का किया है।
रसोई में गई तो वह सामने खड़ी थी। होले से मुस्कुरा कर बोली , ” बेटा जा रहा है इसलिए मन भारी है ना ? ”
” हाँ , सच में ……” कह कर वेदिका ने चाकू से स्लैब पर एक लकीर खींच दी , और फिर उस लकीर के पास , उस लकीर के पास एक छोटी लकीर खींच दी। ऐसा वह तब तक करती गई , जब तक आखिर में एक लकीर की जगह बिंदु बच गया।
दोपहर तक बेटा भी चला गया। घर एक बार खामोश सा हो गया। उसका मन नहीं किया कि छत पर जाये। अपने कमरे में जा कर रजाई ओढ़ कर सोने का सोचा। नरम-गरम रजाई में घुसते ही भरा हुआ मन फिर बरस पड़ा। बेटे की वजह से राघव उस दिन ऑफिस नहीं गए थे। उसके जाने के बाद किसी काम से कहीं गए थे। लौटने पर जब कमरे में आये तो उनको लगा कि वेदिका रो रही है। झट से रजाई हटा कर , सर पर हाथ रखा। उदास तो वो भी हो गए थे।
” क्या बात है वेदिका , यूँ जी छोटा क्यों कर रही हो ! ”
” कुछ नहीं हुआ ! यूँ ही रोने का मन कर गया। ” आंसू पोंछते हुए उसने रजाई मुहं पर खींच ली।
” अरे वाह ! ये भी खूब रही , रोने का भी मन करता है कभी ? तुम भी कमाल की हो ! ध्रुव सच ही कहता है। तुमको डॉक्टर से मिलना ही चाहिए ! ”
तमक कर उठी वेदिका तो राघव चाय का आदेश दे कर बाहर निकल गए। भरी आंखे और भारी सर लिए वेदिका चली पड़ी आगे की दिनचर्या पूरी करने में।
वह सोचती जा रही थी कि अगर उसकी जगह, उनकी बेटी होती तो राघव उसके रोने की वजह जान कर उसे खुश करने के हर संभव प्रयास करते। ऐसा क्यों होता है अपनी बेटी इतनी प्रिय और पत्नी जो कि उसी बेटी की जन्मदायनी है , उसके साथ ऐसी बेरुखी। एक बार फिर आँखे छलक पड़ी।
तभी बेटी का फोन आ गया। मन से मन को राह होती ही है। वह कुछ दिन के लिए आ रही थी। मन को सुकून सा मिला। क्या-क्या शॉपिंग करनी है , कहाँ से करनी है। क्या ज्वेलरी बनानी है। सोचते हुए शाम हो गई और रात भी कट गई।
अगला दिन कुछ सुकून भरा था। मन शांत था। राघव ऑफिस के लिए चले गए। मन किया कि कुछ संगीत सुना जाये। मोबाईल को वायर -लेस स्पीकर से जोड़ा , यू -ट्यूब खोला और सोचने लगी की गजल सुनु या गीत। तभी मेहँदी हसन की गजल पर नज़र पड़ी। उसे ही चला दिया।
” रंजिशे ही सही , दिल ही दुखने के लिए आ …. ”
मेहँदी हसन की मखमली आवाज़ जैसे घर की नीरवता भंग कर रही थी। ‘ नीरवता! ‘ हां ! यही शब्द सूझता है उसे अपने घर के लिए। पति घर में हो कर भी अपने में मग्न , माता जी या तो पूजा-पाठ या उसको कोसने के अलावा मुहं फुला कर बैठे रहना ही स्वभाव था। ऐसे में संगीत ही उसका सहारा है।
ग़ज़ल के साथ-साथ माता जी की बड़बड़ाहट शुरू हो गई , “उम्र हो गई है , लेकिन ये गीत-संगीत की लत नहीं जाती ! बेटी को का क्या संस्कार देगी ! जब खुद ही का मन बस में नहीं ! भजनों में जाने क्यों इसका मन लगता। ”
खीझ कर उसने ग़ज़ल बंद कर दी। मन उदास हो गया। ‘इनको मेरे सजने संवरने पर , मेरे संगीत सुनने पर इतना ऐतराज़ क्यों है। ‘ हाथ में पत्रिका ले ,उदास मन आँखों में पानी लिए छत पर चल पड़ी। चटाई बिछा कर लेट गई। सोचने लगी कि इतने बड़े घर में उसके लिए एक कोना नहीं है , जहाँ अपना सुख-दुःख कर सके। तभी वह भी आ गई तो वेदिका को अच्छा सा लगा।
” कमाल की बात है ना , घर में दो औरतें हैं , फिर भी खामोश , चुप-चुप ! एक छत पर तो दूसरी लॉन में ! ”
वह हंस रही थी।
” यह मुझे भी मालूम है। लेकिन मेरे पास कोई हल नहीं है। मैंने बहुत कोशिश की कि माँ के पास बैठूं बात करूँ, लेकिन उनको तो सिर्फ उनके मतलब की बात या उनका स्तुतिगान ही पसंद है। मैं एक साधारण इंसान ही हूँ , उनके असाधारण मानसिक स्तर को नहीं छू सकती। ” वेदिका ने आहत और स्पष्ट शब्दों में अपनी व्यथा कह दी।
लेकिन क्या राघव भी ……
तभी सीढ़ियों से आहट हुई। वह झट से उठ बैठी। अपनी बेटी के क़दमों की आहट को कैसे ना पहचानती भला …
बेटी को गले लगा कर वेदिका की जैसे आत्मा ही तृप्त हो गई। रुनकु के आते ही जैसे घर में रौनक आ गई। थोड़ी देर में तीनों लॉन में बैठी थी। वह माँ और दादी के बीच की कड़ी थी। दादी भी उसके बहाने से वेदिका को खूब सुना लेती थी। और वेदिका के पास सिर्फ मुहँ बनाने के अलावा कोई चारा नहीं था। मन में घुट के रह जाती बस।
आज भी शुरू हो गई माता जी , उनके पास कौन बैठता है। बूढ़े इंसान की कोई जिंदगी है क्या ! और भी बहुत कुछ न कुछ …
” दादी माँ , आज ही सारी भड़ास निकाल देंगी तो कल क्या कहेंगी ! ” रुनकु हंस पड़ी। वेदिका चुप रह कर कुढ़ती रही।
ध्रुव को इसी बात से चिढ़ थी कि वह समय पर नहीं बोलती है और बाद में मन ही मन कुढ़ती रहेगी। और यही बात उसे मानसिक रोगी बनाये जा रही थी। ‘मानसिक रोगी’, शब्द दिमाग से जैसे टकरा गया हो। एक दम से खड़ी हो गई।
” क्या हुआ मम्मा ? उठ कैसे गए , अभी तो कल की प्लानिंग बाकी है ….”
” कॉफी ले आती हूँ ! ” वेदिका ने जाते हुए कहा।
” रुनकु बेटा , मैं कॉफी -शाफी नहीं पीयूंगी ! बहादुर आएगा तो चाय बना देगा नहीं तो खुद बना लुंगी ! ” दादी माँ ने ठसक से कहा।
वेदिका को गुस्सा आया कि अगर कॉफी नहीं पीनी है तो चाय वह भी तो बना सकती थी। लेकिन कैसे भी हो वेदिका का दिल तो दुखना ही चाहिए था।
” मम्मा , आप क्यों दादी की बातों को दिल से लगाती हो। उनको अपने हाथ की चाय पसंद है तो अच्छी बात है न ! आप या तो उनको उसी समय जवाब दे दिया करो नहीं तो एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकल दिया करो। ”
” माँ-बाप ने संस्कार यही दिए थे, जो समय के साथ परिपक्व होते गए। इतने बरस नहीं जवाब नहीं दिया तो अब भी जुबान नहीं खुलती…… तू नहीं समझेगी ! बड़ों का मान सम्मान भी तो कुछ होता है ! ”
” और अगर बड़े समझे ही ना तो , आखिर हम कितना झुकेगें ? टूटने की हद तक ? यह गलत है भई , मेरी तो इतनी सहन -शक्ति नहीं है मम्मा ! ”
” अच्छा -अच्छा रहने दे …. काम की बात करते हैं अब ! ” वेदिका ने बात बदल दी।
फिर कुछ दिन तक शादी की शॉपिंग में दिन बीते। कभी अम्मा जी भी साथ थी तो कभी राघव के साथ। बहुत सारी शॉपिंग हो गई। कुछ बच भी गई। सबकी पसंद के कपड़े लिए गए। वेदिका की बारी आई तो वह कुछ सोच में पड़ गई।
” क्या सोच रहे हो मम्मा ? ”
” सोच रही हूँ कि कौनसा रंग लूँ , सभी अच्छे ही हैं ! ” स्मित मुसकान लिए बेजारी से वेदिका ने कहा।
” जो रंग सबसे ज्यादा पसंद हो वह लो ! ” राघव कह रहे थे।
” रंग ! ” फिर गुम होने को आई वेदिका ….
उसे यह तो याद ही नहीं रहा कि उसको क्या रंग पसंद है या था। विवाह से पहले तो काला रंग ही पसंद था। कुछ स्वभाव भी विद्रोही था। नए ज़माने की सोच लिए हुआ था। और फिर एक दिन विवाह हो गया।
सोच पर पहरे तो नहीं लगे , हाँ अभिव्यक्ति कहीं दब गई। सास और पति की पसंद और ना पसंद के बीच उसकी पसंद कही खो ही गई थी।
” हां तो फिर ! ” राघव ने टहोका।
” फिर क्या ? बता दीजिये कौनसी साड़ी लूँ …. , ”
” मैं इसमें क्या बताऊँ , जो अच्छी लगे वो लो …. ”
” हाँ जी सही कहा,मैं तो बाद में नुक्स निकलूंगा , क्यों ? ” खिलखिला कर हंस पड़ी वेदिका।
वेदिका को राघव का साथ बहुत अच्छा लगता था। इसमें बड़ी क्या बात थी ! ये तो हर पत्नी को लगता है ! लेकिन वेदिका को राघव का साथ एक सुरक्षा का घेरा सा लगता था। चाहे वह उसकी उपस्तिथि को तवज्जो दे या ना दे। जाने क्या महक थी राघव में। एक जादू सा है उसकी ख़ामोशी में भी …., ये महक, ये जादू उसे सम्मोहित किये रहता है और वह सम्मोहित सी उसके मद में डूबी सी रहती है।
” हाँ जी वेदिका जी ! कहाँ खो गई ! ” राघव उसे हैरान से पुकार रहे थे। थोड़े खीझ गए। यह लेडीज़ डिपार्टमेंट उनके बस में नहीं। वह बस मुस्कुरा दी। बोली , ” आज नहीं लेना कुछ भी ! कल फिर से आएंगे ! ”
” कल ! मम्मा ! कल तो मैं चली जाउंगी ! ”
” कमाल है भई , मुझे कल समय नहीं मिलेगा ! जो भी लेना है आज ही ले लो ! ”
” इसमें चिल्ला कर बोलने की जरुरत तो नहीं थी , ये सेल्समेन क्या सोचेगा ! मेरी कोई इज़्ज़त है कि नहीं ! ”
तुनक गई वेदिका।
राघव नाराज़ हो कर दुकान से बाहर आ गए। वेदिका और रुनकु भी पीछे-पीछे आ गई। थोड़ी देर बाद घर की ओर चल रहे थे। राघव खीझ रहे थे कि जो काम आज-अभी हो सकता था वह कल पर क्यों छोड़ा गया, काम तो और भी बहुत हैं । वेदिका की आंखे नम थी कि राघव को यूँ तो दुकान वाले के सामने खीझना तो नहीं था।
शॉपिंग आज तो हो सकती थी कल पर छोड़ने में कोई तुक भी नहीं बनती थी , पर इसके पीछे एक राज़ की बात भी थी ! वह राघव के साथ अगले दिन भी बाजार आना चाहती थी ; सिर्फ उसके साथ अकेले जाने के लिए। उसे उसका साथ और लॉन्ग ड्राइविंग बहुत पसंद थी। राघव को भी यह मालूम है फिर वह क्यों नहीं जानता-समझता। और भी बहुत सारी बातें है जो वेदिका मुहं से बिन बोले राघव को समझाना चाहती है पर वह नहीं समझता या समझना नहीं चाहता।
वह बाजार से आकर अनमनी सी ही रही। किसको परवाह थी !
वेदिका को भी तो ऐसे अनमना नहीं रहना चाहिए था। उसको भी थोड़ा समझदार तो होना चाहिए ना ! घर में इतने काम थे और वह अपने बुझे मन को लिए बैठी थी।
उस रात उसने अपनी डायरी में लिखा ,” एक स्त्री क्या चाहती है ? यह , वह स्वयं जानती है ! फिर भी वह चाहती कि कोई उसका खयाल रखे, उसको सुने और वह सब भी सुने जो उसका अव्यक्त है ।वह कैसे दौड़ पड़ती है सबके लिए ,कोई तो उसका भी ऐसे ही फ़िक्र करे। वह कभी-कभी परियों जैसा , राजकुमारी जैसा महसूस करवाना चाहती है जैसे उसके मायके में महसूस करवाया जाता है। कम-से-कम वह अपने पति से तो ये उम्मीद रखती ही है। तो फिर क्यों ….? ”
लिखते -लिखते कलम मुँह में दबा कर , मुड़ कर देखा तो राघव निन्द्रा में मग्न थे। मुस्कुरा पड़ी। कितना व्यवहारिक इंसान है। किसी की भावनाओं की परवाह ही नहीं।
उसने आगे लिखा , ” तो फिर क्यों , उसे पराई ही समझा जाता है। कहने को घर की रानी होती है , पर क्या सच में ? सच क्या है , सबको पता है… , यहाँ स्त्री पर जुल्म की बात नहीं है पर समझने की यह बात भी कि एक स्त्री कब तक स्त्री रहती है ! जब तक वह सास ना बन जाये , तब तक ही ? तो उसके बाद क्या वह स्त्री नहीं रहती ? यह जिंदगी शतरंज की बिसात ही तो है। सारा खेल शह -मात का है। सारी लड़ाई सत्ता की ही तो है ….”
” वेदिका ! तुम्हारा लिखना-लिखाना हो गया हो तो आकर सो जाओ ! ” राघव की आवाज़ में आदेश था।
वेदिका आदेश मानती आयी ही है तो आज कैसे मना करती। रात भी तो काफी हो चली थी। एक अच्छी सी अंगड़ाई ले कर खड़ी हो गई। आदमकद आईने में देख कर मुस्कुराई। मुस्कुराई कि रात को मुहं बिसूर कर सोने से सपने भी अच्छे नहीं आते।
आने वाले दिन बहुत व्यस्त थे। शॉपिंग लगभग सम्पूर्ण हो चुकी थी। साँस लेने को भी फुर्सत नहीं थी। फरवरी के प्रथम सप्ताह में विवाह का मुहूर्त था। सभी रिश्तेदारों का आगमन हुआ। गीत-संगीत की धूमधाम रही। तेज़ संगीत और चमकती लाइटों की रौशनी में सब कुछ चमकदार था। कोई गिला-शिकायतें नहीं थी। बेटा दूल्हा बना बहुत प्यारा लग रहा था। नज़रे ही नहीं हट रही थी। दादी तो बार बलैयां ले रही थी। बुआएँ , मौसियां , मामियाँ और चाची -ताईयां सबका आशीर्वाद मिल रहा था। बहुत अच्छे से विवाह -कार्य संपन्न हुआ।
अब नई बहू के स्वागत में घर में गहमा -गहमी थी।
” वेदिका ! अब तेरा राज-पाट तो गया भई ! ” ध्रुव की ताई ने चुटकी ली।
” राज-पाट ? वो कब मिला मुझे ! जिसका जाने का डर हो ” वेदिका भी हंस पड़ी।
बात हंसी की ही थी और जवाब भी हंसी में ही दिया। लेकिन कई चेहरों पर रंग आयेऔर चले गए। माहौल देखते हुए कुछ कहा तो नहीं गया अलबत्ता होठों पर तिर्यक रेखा अंकित हो गई।
वेदिका का मन बुझ सा गया। वह गुम होने को आयी। एक लड़की जो बहू बन कर एक पराये घर में जाती है ,परायी बने रहने के लिए नहीं बल्कि तन -मन से सबको अपनाने ही आती है। फिर भी वह तब तक परायी ही मानी जाती है ,जब तक अगली परायी लड़की उसकी जगह लेने नहीं आ जाती ! तो अब एक पराई लड़की का आगमन होना है और उसका राजपाट छिन जाने वाला था ?
हमारे समाज में एक लड़की को सास के नाम पर इतना डराया जाता है कि वह सोचने लगती है कि सास एक बहुत खतरनाक प्राणी है। वह एक असुरक्षा की भावना और जिद से भर जाती है कि वह अपना वर्चस्व स्थापित करके ही रहेगी। सास को भी तो डराया जाता है कि अब उसकी नहीं चलने वाली। आखिर एक स्त्री ने इतने सालों तक तपस्या से अपने घर को बनाया होता है , सजाया होता है तो उसे कोई और लड़की, वह भी पराये घर से आई हुयी , कैसे हरा सकती है ? जाने-अनजाने वह भी एक असुरक्षा से भर जाती है।और यही कारण है सास-बहू की तकरार का भी ।
कभी- कभी लगता है , एक स्वस्थ रिश्ते को पनपने देने की बजाए जैसे अखाड़े में उतरने के लिए दो पहलवानों को तैयार किया जाता है वैसे ही सास-बहू को तैयार किया जाता है। नसीहतें दी जाती हैं , सिखाया-पढ़ाया जाता है। सोचती हुयी हंस पड़ी।
” देख कैसी खुश हो रही है , सब पता चल जायेगा जब बहू आएगी।!” दादी ने धीरे से पास बैठी अपनी बेटी को कोहनी मारी।
” अब नया जमाना है माँ , नयी बातें है…., अब ना तो सास सख्त है और न ही बहू दब कर रहने वाली… ” बेटी ने जैसे समझाया हो माँ को या खुद को ही।
इंतज़ार की घड़ियाँ कम होती जा रही थी। फोन पर जानकारी दी जा रही थी कि नयी बहू कांकड़ पर आ गई है। घर की महिलाओं में उत्साह सा था एक नए सदस्य के स्वागत का। ध्रुव की दादी भी बहुत हर्षोल्लासित थी। जैसे पैरों में घुंघरू बांध लिए हो।
दुल्हन दहलीज़ पर खड़ी थी। जैसे ही अन्दर आने को कदम बढ़ाया तो साथ खड़ी ध्रुव की बुआ ने आहिस्ता से कहा , ” शिवि बिटिया ! पहले दायाँ पैर आगे बढ़ाओ। घर की लक्ष्मी हो , तुम्हारे आने से घर में धन-धान्य की वृद्धि हो। ”
नयी दुल्हन शिवि ने पलकें उठा कर बुआ को देखा और उनकी आज्ञा का पालन किया।
ध्रुव-शिवि की जोड़ी सराहनीय लग रही है। वेदिका की तो नज़रें ही नहीं हट रही थी। बहुत प्यार से आरती उतार कर दोनों को गले लगा लिया। वेदिका को शिवि की सांसे वैसी ही महसूस हुयी जैसे नवजात बच्चे की होती है। थोड़ी कच्ची-कच्ची सी , थोड़ी तेज़-तेज़ सी।
आँखों में सपने और अजनबीपन लिए ….. जैसे एक पौधा इंतज़ार कर रहा हो , अपने रोपे जाने का। एक आशंका भी थी पता नहीं धूप , पानी और थोड़ा सा आसमान मिलेगा या नहीं। बेशक नए ज़माने की लड़कियां बहुत बहादुर और सामंजस्य बिठा लेने वाली होती है लेकिन यह अपनाने वालों पर भी निर्भर करता है कि वे नयी बहू से अपेक्षाओं से अधिक , कितना अधिक प्रेम और स्नेह देते हैं।
लाल आलता से रंगे कदमों को आहिस्ता-आहिस्ता बढाती हुई शिवि , वेदिका को साक्षात् लक्ष्मी का रूप ही लग रही थी। घर का वातावरण बहुत खुशनुमा हो गया था। हंसी -ख़ुशी सारी रस्में निभाई जा रही थी।
” लो भई शिवि भाभी जीत गई ! भैया तो हार गए ! ” रुनकु ने ताली बजाई तो सभी औरतें खिलखिला कर हंस पड़ी।
” बेटियां जीतती ही अच्छी लगती है ! ” वेदिका ने भी हंस कर साथ दिया तो शिवि ने वेदिका को गौर से देखा। उसके मन में एक हिलोर सी उठी , यकायक माँ की याद आ गई। कितनी भीड़ थी ! सभी अजनबी थे। कहने को ध्रुव से थोड़ी सी पहचान थी वह भी फोन के माध्यम से ही। ऐसे में प्यार और अपनेपन के बोल बहुत सुहाते हैं।
थोड़ी देर में दादी भी आ गई। बहुत दुलरा रही थी। स्नेह से सर पर हाथ फिराते थक नहीं रही थी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
