17-11-2020, 02:30 PM
मृत्यु की वह बांसुरी उस बालिका के भग्न-हृदय से निकल कर जब मेरी जीवन-यमुना के तीर बजने लगी तो पहले-पहल मानो मेरी छाती में कोई बाण बिंध गया हो. मैंने विधाता से प्रश्न किया- संसार में जो कुछ सबसे अधिक तुच्छ है, वही सबसे अधिक कठिन क्यों है? इस गली में चहार-दीवारी से घिरे इस निरानंद स्थान में यह जो तुच्छतम बुदबुदा है, वह इतनी भयंकर बाधा कैसे बन गया. तुम्हारा विश्व-जगत अपनी षट ऋतुओं का सुधा-पात्र हाथ में लेकर कितना ही क्यों न पुकारे, एक क्षण-भर के लिए भी मैं उस अंतःपुर की ज़रा-सी चौखट को पार क्यों न कर सकी? तुम्हारे ऐsसे भुवन में अपना ऐसा जीवन लेकर मुझे इस अत्यंत तुच्छ काठ-पत्थर की आड़ में ही तिल-तिलकर क्यों मरना होगा? कितनी तुच्छ है, प्रतिदिन की यह मेरी जीवन-यात्रा? कितने तुच्छ हैं इसके बंधे नियम, बंधे अभ्यास, बंधी हुई बोली और इन सबकी बंधी हुई मार. फिर भी क्या अंत में दीनता के उस नागपाशी बंधन की ही जीत होगी और तुम्हारी अपनी सृष्टि के इस आनंदलोक की हार?
किंतु, मृत्यु की बांसुरी बजने लगी. कहां गयी राजमिस्त्रियों की बनायी हुई वह दीवार, कहां गया तुम्हारे घोर नियमों से बंधा वह कांटों का घेरा? कौन-सा है वह दुख और कौन-सा है वह अपमान जो मनुष्य को बंदी बनाकर रख सकता है? यह लो, मृत्यु के हाथ में जीवन की जय-पताका उड़ रही है. अरी मझली बहू, तुझे अब डरने की कोई ज़रूरत नहीं. मझली बहू के इस तेरे खोल को छिन्न होते एक क्षण भी नहीं लगा.
तुम्हारी गली का अब मुझे कोई डर नहीं है. मेरे सामने है आज नीला समुद्र और सिर पर हैं आषाढ़ के बादल.
तुम लोगों की रीति-नीति के अंधकार ने मुझे ढंक रखा था. क्षणभर के लिए बिंदु ने आकर उस आवरण के छिद्र से मुझे देख लिया. वही लड़की अपनी मृत्यु के ज़रिये मेरे समूचे आवरण को चिंदी-चिंदी कर गयी. आज बाहर आकर देखती हूं, अपना गौरव रखने के लिए कहीं ठौर ही नहीं है. मेरा अनादृत रूप जिनकी आंखों को भाया है, वे चिर-सुंदर सम्पूर्ण आकाश से मुझे निहार रहे हैं. अब मझली बहू मर चुकी है.
तुम सोच रहे होगे कि मैं मरने जा रही हूं- डरो नहीं, तुम लोगों के साथ मैं ऐसा बासी ठट्ठा नहीं करूंगी. मीराबाई भी तो मुझ जैसी ही नारी थी- उनकी शृंखलाएं भी तो कम भारी नही थीं, मुक्ति के लिए उन्हें तो मरना नहीं पड़ा. मीराबाई ने अपनी वाणी में कहा है, ‘भले ही बाप छोड़े, मां छोड़े, चाहें तो सब छोड़ दें, मगर मीरा की लगन वही रहेगी प्रभु, अब जो होना है सो हो.’ यह लगन ही तो मुक्ति है.
मैं भी जीवित रहूंगी. मैं सदा-सर्वदा मुक्त हो गयी.
तुम्हारी शरण से विमुक्त
मृणाल
(जनवरी 2016)
किंतु, मृत्यु की बांसुरी बजने लगी. कहां गयी राजमिस्त्रियों की बनायी हुई वह दीवार, कहां गया तुम्हारे घोर नियमों से बंधा वह कांटों का घेरा? कौन-सा है वह दुख और कौन-सा है वह अपमान जो मनुष्य को बंदी बनाकर रख सकता है? यह लो, मृत्यु के हाथ में जीवन की जय-पताका उड़ रही है. अरी मझली बहू, तुझे अब डरने की कोई ज़रूरत नहीं. मझली बहू के इस तेरे खोल को छिन्न होते एक क्षण भी नहीं लगा.
तुम्हारी गली का अब मुझे कोई डर नहीं है. मेरे सामने है आज नीला समुद्र और सिर पर हैं आषाढ़ के बादल.
तुम लोगों की रीति-नीति के अंधकार ने मुझे ढंक रखा था. क्षणभर के लिए बिंदु ने आकर उस आवरण के छिद्र से मुझे देख लिया. वही लड़की अपनी मृत्यु के ज़रिये मेरे समूचे आवरण को चिंदी-चिंदी कर गयी. आज बाहर आकर देखती हूं, अपना गौरव रखने के लिए कहीं ठौर ही नहीं है. मेरा अनादृत रूप जिनकी आंखों को भाया है, वे चिर-सुंदर सम्पूर्ण आकाश से मुझे निहार रहे हैं. अब मझली बहू मर चुकी है.
तुम सोच रहे होगे कि मैं मरने जा रही हूं- डरो नहीं, तुम लोगों के साथ मैं ऐसा बासी ठट्ठा नहीं करूंगी. मीराबाई भी तो मुझ जैसी ही नारी थी- उनकी शृंखलाएं भी तो कम भारी नही थीं, मुक्ति के लिए उन्हें तो मरना नहीं पड़ा. मीराबाई ने अपनी वाणी में कहा है, ‘भले ही बाप छोड़े, मां छोड़े, चाहें तो सब छोड़ दें, मगर मीरा की लगन वही रहेगी प्रभु, अब जो होना है सो हो.’ यह लगन ही तो मुक्ति है.
मैं भी जीवित रहूंगी. मैं सदा-सर्वदा मुक्त हो गयी.
तुम्हारी शरण से विमुक्त
मृणाल
(जनवरी 2016)
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.