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Adultery दीदी की जेठानी
#34
शरत् इसकी खोज-खबर लेने दौड़ा. सांझ की वेला लौटकर मुझ से बोला, ‘बिंदु अपने चचेरे भाइयों के घर गयी थी, किंतु उन्होंने अत्यंत क्रुद्ध होकर उसी समय फिर उसे ससुराल पहुंचा दिया. इसके लिए उन्हें गाड़ी-किराया और हरजाने का जो दंड भोगना पड़ा; उसकी चुभन अब भी मिटी नहीं है.’

तुम्हारी चाची तीर्थयात्रा के लिए श्रीक्षेत्र जाते समय तुम्हारे यहां आकर ठहरीं. मैंने तुमसे आग्रह किया- ‘मैं भी जाऊंगी.’

सहसा मेरे मन में धर्म के प्रति यह श्रद्धा देखकर तुम इतने खुश हुए कि तनिक भी आपत्ति नहीं की. तुम्हें इस बात का भी ध्यान था कि यदि मैं कलकत्ता रही तो फिर किसी दिन बिंदु को लेकर फसाद कर बैठूंगी. मेरी वज़ह से तुम्हें काफी परेशानी थी.

मुझे बुधवार को जाना था; रविवार को ही सब ठीक-ठाक हो गया. मैंने शरत् को बुलाकर कहा- ‘जैसे भी हो, बुधवार को पुरी जानेवाली गाड़ी में तुझे बिंदु को बिठा देना होगा.’

शरत् का चेहरा खिल उठा. बोला- ‘तुम निश्चिंत रहो दीदी, मैं उसे गाड़ी में बिठाकर, पुरी तक चला चलूंगा. इसी बहाने जगन्नाथ के दर्शन भी हो जायेंगे.’

उसी दिन शाम को शरत् फिर आया. उसका मुंह देखते ही मेरा दिल बैठ गया. मैंने पूछा, ‘क्या बात है, शरत्? शायद कोई उपाय नहीं हुआ.’

वह बोला, ‘नहीं.’

मैंने पूछा, ‘क्या उसे राजी नहीं कर पाये?’

उसने कहा, ‘अब ज़रूरत भी नहीं है. कल रात अपने कपड़ों में आग लगाकर उसने आत्महत्या कर ली. उस घर के जिस भतीजे के साथ मैंने मेलजोल बढ़ाया था, उसी से खबर मिली. हां, तुम्हारे नाम वह एक चिट्ठी रख गयी थी, किंतु वह चिट्ठी उन्होंने नष्ट कर दी.’

चलो शांति हुई.

गांव भर के लोग भन्न उठे. कहने लगे, ‘कपड़ों में आग लगाकर मर जाना तो अब लड़कियों के लिए एक फैशन हो गया है.’

तुम लोगों ने कहा, ‘अच्छा नाटक है.’ हुआ करे. किंतु नाटक का तमाशा केवल बंगाली लड़कियों की साड़ी पर ही क्यों
होता है, बंगाली वीर-पुरुषों की धोतियों पर क्यों नहीं होता? इस पर भी तो विचार करना चाहिए.

ऐसा ही था बिंदी का दुर्भाग्य. जितने दिन ज़िंदा रही, न रूप का यश मिला और न गुण का. मरते समय भी ज़रा सोच-समझ कर कुछ ऐसे ढंग से मरती कि दुनिया-भर के पुरुष खुशी से ताली बजा उठते. यह भी नहीं सूझा उसे. मरकर भी उसने लोगों को नाराज़ ही किया.

दीदी कमरे में छिप कर रोयी. किंतु उस रोने में एक सांत्वना थी. कुछ भी हुआ, जान तो बची. मर गयी, यही क्या कम है? ाf़जंदा रहती तो न जाने क्या होता?

मैं श्रीक्षेत्र में आ पहुंची हूं. बिंदु के आने की अब कोई ज़रूरत नहीं रही. किंतु, मुझे ज़रूरत थी.

लोग जिसे दुख मानते हैं, वह तुम्हारी गृहस्थी में मुझे कभी नहीं मिला. तुम्हारे घर में खाने-पहनने की कोई कमी नहीं थी. तुम्हारे बड़े भाई का चरित्र चाहे जैसा हो, तुम्हारे चरित्र में ऐसा कोई दोष नहीं, जिसके लिए विधाता को बुरा कह सकूं. यदि तुम्हारा स्वभाव बड़े भाई की तरह होता तो भी शायद मेरे दिन इसी तरह कट जाते और मैं अपनी सती-साध्वी बड़ी जेठानी की तरह पति-परमेश्वर को दोष न देकर विश्व-देवता को ही दोष देने की चेष्टा करती. अतएव, मैं तुमसे कोई शिकवा-शिकायत नहीं करना चाहती. मेरी चिट्ठी का कारण दूसरा है.

किंतु, मैं अब माखन-बढ़ाल की गली के उस सत्ताईस नम्बर वाले घर में लौटकर नहीं आऊंगी. मैं बिंदु को देख चुकी हूं. इस संसार में नारी का सच्चा परिचय क्या है, वह मैं पा चुकी हूं. और कुछ भी जानने की ज़रूरत नहीं.

मैंने यह भी देखा है कि हां, वह लड़की ही थी, फिर भी भगवान ने उसका परित्याग नहीं किया. उस पर तुम लोगों का चाहे कितना ही ज़ोर क्यों न रहा हो, उस ज़ोर की सीमा है. वह अपने हतभागे मानव-जीवन से बड़ी थी. तुम मनमाने ढंग से, अपने दस्तूर से, उसके जीवन को चिरकाल के लिए अपने पांवों तले दबा कर रख सकते, तुम्हारे पांव इतने लम्बे नहीं है. मृत्यु तुम लोगों से बड़ी है. अपनी मृत्यु के बीच वह महान है. वहां बिंदु केवल बंगाली घर की लड़की नहीं है, केवल चचेरे भाइयों की बहन नहीं है, केवल अपरिचित पागल पति की प्रवंचिता पत्नी नहीं है. वहां वह अनंत है.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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RE: दीदी की जेठानी - by neerathemall - 17-11-2020, 02:30 PM



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