17-11-2020, 02:27 PM
चाहे जिस तरह रखो, उसमें दुख ही है, इसे याद करने की बात कभी मेरे मन में ही नहीं आयी. जच्चाघर में जब मौत सिरहाने आकर खड़ी हो गयी थी, तब भी मुझे डर नहीं लगा. हमारा जीवन ही क्या है, जो मौत से डरना पड़े. आदर और यत्न से जिनके प्राण कसकर बंधे रहते हैं, उन्हें ही मरने में झिझक होती है. यदि उस दिन यमराज मुझे खींचते तो मैं उसी तरह उखड़ जाती, जिस तरह पोली ज़मीन से गुच्छों सहित घास सहज ही उखड़ आती है. बंगाल की बेटी तो बात-बात में मरने को आमादा रहती है. किंतु इस तरह मरने में क्या बहादुरी है? हमारे लिए मरना इतना आसान है कि मरते लज्जा आती है.
मेरी बिटिया तो सांध्य-तारे की नाईं क्षण भर के लिए उदित होकर अस्त हो गयी. मैं फिर से अपने नित्य-कर्म और गाय-बछड़ों में खो गयी. और इसी ढर्रे में मेरा जीवन जैसे-तैसे निःशेष हो जाता; आज तुम्हें यह चिट्ठी लिखने की दरकार ही नहीं होती. किंतु, कभी कभार हवा एक सामान्य-सा बीज उड़ाकर ले आती है और पक्के दालान में पीपल का अंकुर फूट उठता है; और अंत में उसी से काठ-पत्थर की छाती विदीर्ण हो जाती है. मेरे घर-संसार के माकूल बंदोबस्त में भी जीवन का एक छोटा-सा कण न जाने कहां से उड़कर आन पड़ा कि तभी से दरार पड़नी शुरू हो गयी.
विधवा मां की मृत्यु के बाद मेरी बड़ी जेठानी की बहन बिंदु ने जिस दिन अपने चचेरे भाइयों के अत्याचार से तंग आकर हमारे घर में अपनी दीदी का आश्रय लिया, तब तुम लोगों ने सोचा कि यह कहां की आफत आ पड़ी. आग लगे मेरे स्वभाव को, क्या करती बोलो- जब देखा तुम सभी मन ही मन विरक्त हो उठे, तब उस निराश्रिता लड़की के लिए मेरा समूचा मन कमर बांध कर उद्यत हो उठा. पराये घर में, पराये लोगों की अनिच्छा के बावजूद आश्रय लेना- यह कितना बड़ा अपमान है! जिसे विवश होकर यह अपमान भी मंजूर करना पड़े, क्या एक कोने में ठेलकर उसकी उपेक्षा की जा सकती है?
तत्पश्चात मैंने अपनी बड़ी जेठानी की दशा देखी. उन्होंने नितांत द्रवित होकर असहाय बहन को अपने पास बुलाया था. किंतु, जब स्वामी की अनिच्छा का आभास हुआ, तब वे ऐसा दिखावा करने लगी जैसे कोई अचीती बला आ पड़ी हो. जस-तस दूर हो जाय तो जान बचे. अपनी अनाथ बहन के प्रति खुले मन से स्नेह प्रदर्शित कर सकें, उनमें इतना साहस नहीं था. वे पतिव्रता जो थीं.
उनका यह संकेत देखकर मेरा मन और भी व्यथित हो उठा. मैंने देखा, बड़ी जेठानी ने विशेष तौर से सर्वत्र दासी-वृत्ति के काम इस तरह सौंप दिये कि मुझे केवल दुख ही नहीं, घोर लज्जा भी हुई. वे सबके सामने यह प्रमाणित करने में लगी रहती थीं कि हमारे घरवालों को बिंदु झांसे में आकर बहुत ही सस्ते दामों में हाथ लग गयी है. न जाने कितना काम करती है और खर्च के हिसाब से बिल्कुल सस्ती.
बड़ी जेठानी के पितृ-वंश में कुल के अलावा कुछ भी बड़ी बात नहीं थी. रूप भी नहीं था. धन भी नहीं था. मेरे श्वसुर के पांव पड़ने पर, किस तरह तुम लोगों के घर में उनका ब्याह हुआ था, यह सब तो जानते ही हो. उनके विवाह से इस वंश में भारी अपराध हुआ है, वे हमेशा यही सोचा करती थीं. इसलिए यथासम्भव अपने-आपको सब बातों से अलग रखकर वे तुम्हारे घर में निहायत अकिंचन होकर रहने लगी थीं.
किंतु, उनके इस साधु-दृष्टांत से मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाती थी. मैं किसी भी तरह अपने-आपको इतना छोटा नहीं बना पाती थी. मैं जिस बात को अच्छा समझती हूं, उसे किसी और की खातिर बुरा मानना, मुझे उचित नहीं जान पड़ता, जिसके बहुतेरे प्रमाण तुम्हें मिल चुके हैं.
मेरी बिटिया तो सांध्य-तारे की नाईं क्षण भर के लिए उदित होकर अस्त हो गयी. मैं फिर से अपने नित्य-कर्म और गाय-बछड़ों में खो गयी. और इसी ढर्रे में मेरा जीवन जैसे-तैसे निःशेष हो जाता; आज तुम्हें यह चिट्ठी लिखने की दरकार ही नहीं होती. किंतु, कभी कभार हवा एक सामान्य-सा बीज उड़ाकर ले आती है और पक्के दालान में पीपल का अंकुर फूट उठता है; और अंत में उसी से काठ-पत्थर की छाती विदीर्ण हो जाती है. मेरे घर-संसार के माकूल बंदोबस्त में भी जीवन का एक छोटा-सा कण न जाने कहां से उड़कर आन पड़ा कि तभी से दरार पड़नी शुरू हो गयी.
विधवा मां की मृत्यु के बाद मेरी बड़ी जेठानी की बहन बिंदु ने जिस दिन अपने चचेरे भाइयों के अत्याचार से तंग आकर हमारे घर में अपनी दीदी का आश्रय लिया, तब तुम लोगों ने सोचा कि यह कहां की आफत आ पड़ी. आग लगे मेरे स्वभाव को, क्या करती बोलो- जब देखा तुम सभी मन ही मन विरक्त हो उठे, तब उस निराश्रिता लड़की के लिए मेरा समूचा मन कमर बांध कर उद्यत हो उठा. पराये घर में, पराये लोगों की अनिच्छा के बावजूद आश्रय लेना- यह कितना बड़ा अपमान है! जिसे विवश होकर यह अपमान भी मंजूर करना पड़े, क्या एक कोने में ठेलकर उसकी उपेक्षा की जा सकती है?
तत्पश्चात मैंने अपनी बड़ी जेठानी की दशा देखी. उन्होंने नितांत द्रवित होकर असहाय बहन को अपने पास बुलाया था. किंतु, जब स्वामी की अनिच्छा का आभास हुआ, तब वे ऐसा दिखावा करने लगी जैसे कोई अचीती बला आ पड़ी हो. जस-तस दूर हो जाय तो जान बचे. अपनी अनाथ बहन के प्रति खुले मन से स्नेह प्रदर्शित कर सकें, उनमें इतना साहस नहीं था. वे पतिव्रता जो थीं.
उनका यह संकेत देखकर मेरा मन और भी व्यथित हो उठा. मैंने देखा, बड़ी जेठानी ने विशेष तौर से सर्वत्र दासी-वृत्ति के काम इस तरह सौंप दिये कि मुझे केवल दुख ही नहीं, घोर लज्जा भी हुई. वे सबके सामने यह प्रमाणित करने में लगी रहती थीं कि हमारे घरवालों को बिंदु झांसे में आकर बहुत ही सस्ते दामों में हाथ लग गयी है. न जाने कितना काम करती है और खर्च के हिसाब से बिल्कुल सस्ती.
बड़ी जेठानी के पितृ-वंश में कुल के अलावा कुछ भी बड़ी बात नहीं थी. रूप भी नहीं था. धन भी नहीं था. मेरे श्वसुर के पांव पड़ने पर, किस तरह तुम लोगों के घर में उनका ब्याह हुआ था, यह सब तो जानते ही हो. उनके विवाह से इस वंश में भारी अपराध हुआ है, वे हमेशा यही सोचा करती थीं. इसलिए यथासम्भव अपने-आपको सब बातों से अलग रखकर वे तुम्हारे घर में निहायत अकिंचन होकर रहने लगी थीं.
किंतु, उनके इस साधु-दृष्टांत से मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाती थी. मैं किसी भी तरह अपने-आपको इतना छोटा नहीं बना पाती थी. मैं जिस बात को अच्छा समझती हूं, उसे किसी और की खातिर बुरा मानना, मुझे उचित नहीं जान पड़ता, जिसके बहुतेरे प्रमाण तुम्हें मिल चुके हैं.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.