17-11-2020, 02:27 PM
मैं अनिंद्य रूपवती हूं, इस सच्चाई को भूलने में तुम्हें ज़्यादा वक्त नहीं लगा. मगर मुझमें बुद्धि भी है, यह बात तुम सबको कदम-कदम पर याद रखनी पड़ी. मेरी यह बुद्धि कितनी सहज-स्वाभाविक है कि तुम्हारे घर-परिवार में इतना समय बिताने पर भी वह आज दिन तक टिकी हुई है. मेरी इस बुद्धि के मारे मां बड़ी उद्विग्न रहती थी. नारी के लिए यह तो एक बला है बला! बाधा-वर्जनाओं को मान कर भी जिसे चलना है, यदि वह बुद्धि को मान कर चले तो ठोकर दर ठोकर उसका सर फूटेगा ही. लेकिन, मैं क्या करूं, बताओ? तुम्हारे घर की बहू के लिए जितनी बुद्धि अपेक्षित है, उससे बहुत ज़्यादा बुद्धि विधाता ने भूल से दे डाली. अब उसे लौटाऊं भी तो किसको? तुम लोग मुझे पुरखिन कहकर दिन-रात कोसते रहे. कड़ी बातों से ही अक्षम को सांत्वना मिलती है, अतएव वह सब मैंने माफ किया.
मेरी एक बात तुम्हारे घर-परिवार से बाहर थी, जिसे कोई नहीं जानता. मैं छिपकर कविता करती थी. वह कूड़ा-करकट ही क्यों न हो, उस पर तुम्हारे अंतःपुर की दीवार नहीं उठ सकी. वहीं मुझे मुक्ति मिलती थी. वहीं पर मैं, मैं हो पाती थी. मेरे भीतर मझली बहू के अलावा जो कुछ भी है, उसे तुम लोगों ने कभी पसंद नहीं किया; पहचान भी नहीं सके. मैं कवि हूं, पंद्रह बरस तक यह भेद तुम्हारी पकड़ में नहीं आया.
तुम्हारे घर की प्रारम्भिक स्मृतियों के बीच मेरे मन में जो स्मृति सबसे ज़्यादा कौंध रही है- वह है तुम लोगों की गौशाला. अंतःपुर के जीने की बगल वाले कोठे में तुम्हारी गायें रहती है. सामने के आंगन को छोड़कर उनके हिलने-डुलने के लिए और कोई जगह नहीं है. उसी आंगन के कोने में चाकर उलझे रहते, भूखी गायें, तक्षण नांद के किनारों को चाट-चाट कर, चबा-चबा कर गड्ढे डाल देती थीं. मेरे प्राण सिहर उठते. मैं थी देहात की लड़की- जिस घड़ी तुम्हारे घर में पहली बार आयी, सारे शहर के बीच उस दिन वे ही दो गायें और तीन बछड़े मुझे चिर परिचित आत्मीय-से-जान पड़े. जितने दिन नयी बहू बनकर रही, खुद न खाकर, लुका-छिपा कर उन्हें खिलाती रही. जब सयानी हुई तो गायों के प्रति मेरी सहज ममता को लक्ष्य करके मेरे साथ हंसी-ठिठौली का रिश्ता रखने वाले, मेरे गोत्र के बारे में संदेह व्यक्त करने लगे.
मेरी बिटिया जन्म के साथ ही चल बसी. जाते समय उसने साथ चलने के लिए मुझे भी पुकारा था. यदि वह ज़िंदा रहती तो मेरे जीवन में जो कुछ महान है, जो कुछ सत्य है, वह सब मुझे ला देती, तब मैं मझली बहू से एकदम मां बन जाती. एक घर-परिवार के बीच रहकर भी वह पूरे संसार की मां होती है. मुझे मां होने की पीड़ा ही मिली, मातृत्व का मुक्ति-वरदान प्राप्त
नहीं हुआ.
मुझे याद है, अंग्रेज़ डॉक्टर को अंतःपुर का दृश्य देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ था और जच्चाघर पर तो नज़र पड़ते ही उसने झुंझला कर काफी बुरा-भला कहा था. बाहर सदर में तुम लोगों का छोटा-सा बगीचा है. बैठक में साज-शृंगार व असबाब की कोई कमी नहीं, मगर भीतर का भाग मानो ऊन-कढ़ाई की उलटी परत हो, वहां न कोई लज्जा, न कोई श्री और न कोई सजावट. वहां मद्धिम-सी रोशनी जला करती है. हवा चोर की तरह प्रवेश करती है. आंगन का कूड़ा-कचरा हटने का नाम नहीं लेता. फर्श व दीवारों पर समस्त कालिमा अक्षय रूप से विराजमान है. मगर डॉक्टर से एक गलती हो गयी थी. उसने सोचा था कि शायद इससे हमें आठों पहर दुख होता होगा. पर सच्चाई एकदम उल्टी है. अनादर नाम की च़ाज राख के समान होती है. शायद भीतर ही भीतर वह आग को छिपाये रहती है, बाहर से तप को प्रकट नहीं होने देती. जब आत्म-सम्मान कम हो जाता है, तब अनादर भी अन्याय नहीं लगता. उससे वेदना महसूस नहीं होती. तभी तो नारी दुख का अनुभव करने में शर्माती है. इसीलिए मैं कहती हूं, स्त्राr-जाति का दुखी होना अवश्यम्भावी है, अगर यही तुम्हारी व्यवस्था है, तो फिर जहां तक सम्भव हो, उसे अनादर में रखना ही उचित है. आदर से दुख की व्यथा और बढ़ जाती है.
नहीं हुआ.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.