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Adultery दीदी की जेठानी
#24
श्री चरणकमलेषु!

आज पंद्रह वर्ष हो गये अपने विवाह को, मगर अब तक तुम्हें चिट्ठी नहीं लिखी. हमेशा तुम्हारे पास ही पड़ी रही. मुख-जबानी अनेक बातें तुमसे सुनीं, तुम्हें भी सुनायीं. चिट्ठी-पाती लिखने की दूरी भी तो कहां हुई?

आज मैं आयी हूं श्रीक्षेत्र का तीर्थ करने और तुम अपने ऑफिस के काम में जुटे हो. घोंघे के साथ जो सम्बंध शंख का है, कलकत्ता के साथ तुम्हारा वही नाता है. वह तुम्हारी देह से, तुम्हारे प्राण से जकड़ गया है. इस कारण तुमने छुट्टी की खातिर ऑफिस में दरखास्त नहीं दी. विधाता की यही मंशा थी, उन्होंने मेरी छुट्टी की दरखास्त मंजूर कर ली.

मैं तुम्हारे घर की मझली बहू हूं. आज पंद्रह वर्ष उपरांत इस समुद्र-तट पर खड़ी होकर मैं जान पायी हूं कि जगत और जगदीश्वर के साथ मेरा एक रिश्ता और भी है. इसलिए आज साहस करके यह चिट्ठी लिख रही हूं. इसे फकत मझली बहू की चिट्ठी मत समझना.

तुम्हारे संग, रिश्ते का लेख जिन्होंने मेरे भाग्य में लिखा था, उन्हें छोड़कर जब इस सम्भावना का और किसी को भी आभास नहीं था, उसी ठेठ बचपन में मेरा भाई और मैं एक साथ ही सन्निपात के ज्वर से पीड़ित हुए थे. भाई तो चल बसा, मगर मैं बच गयी. पड़ोस की सब औरतें कहने लगीं, ‘मृणाल लड़की है ना, इसलिए बच गयी, लड़का होती तो बच सकती थी भला?’ चोरी की विद्या में यमराज बड़े निपुण
है, कीमती चीज़ पर ही उनकी आंख लगी रहती है.

मैं मरने के लिए पैदा नहीं हुई, यही खुलासा करने के लिए चिट्ठी लिखने बैठी हूं. जिस दिन तुम्हारे दूर के मामा तुम्हारे मित्र नीरद को लेकर लड़की देखने आये, तब मेरी उम्र थी- बारह बरस. उज्जड़ दुर्गम देहात में मेरा घर था, जहां दिन में भी सियार बोलते हैं. स्टेशन से सात कोस बैलगाड़ी में चलने के बाद, डेढ़ कोस का कच्चा रास्ता पालकी से पार करने पर ही हमारे गांव पहुंचा जा सकता था. उस दिन तुम सबको कितनी परेशानी हुई थी. तिस पर हमारे पूर्वी बंगाल का भोजन; जिसका मखौल उड़ाना मामा आज भी नहीं भूलते.

तुम्हारी मां की बस एक ही ज़िद थी कि बड़ी बहू के रूप का अभाव मझली बहू के द्वारा पूरा करना. नहीं तो भला इतना कष्ट उठाकर तुम लोग हमारे गांव क्यों आते? बंगाल में- तिल्ली, यकृत, अम्लशूल और लड़की के लिए खोज नहीं करनी पड़ती. वे स्वयं आकर दबोच लेते हैं; छुड़ाये
नहीं छूटते.

बाबा का हृदय धक-धक करने लगा. मां दुर्गा का नाम जपने लगी. शहर के देवता को गांव का पुजारी कैसे तुष्ट करे? बेटी के रूप का भरोसा था. किंतु, बेटी के रूप का गुमान कुछ भी माने नहीं रखता. देखने वाला पारखी जो दाम निर्धारित करे, वही उसका मूल्य होता है. अतएव हज़ार रूप-गुण होने पर भी लड़कियों का संकोच
नहीं टूटता.

सारे घर का, नहीं-नहीं, समूचे मोहल्ले का वह आतंक मेरी छाती पर पत्थर के समान जमकर बैठ गया. उस दिन आकाश का समस्त आलोक व संसार का सम्पूर्ण सामर्थ्य, मानो दो परीक्षकों की दो जोड़ी आंखों के सामने, उस बारह-वर्षीय अबोध बालिका को पेश करने की खातिर प्यादागिरी कर रहे हों. मुझे कहीं भी छिपने की ठौर नहीं मिली.

सम्पूर्ण आकाश को रुलाती हुई शहनाई बज उठी. मैं तुम्हारे घर आ पहुंची. मेरे तमाम गुण-दोषों का ब्योरेवार हिसाब लगा कर सभी गृहिणियों को यह मानना पड़ा कि भले कुछ भी हो, मैं सुंदर ज़रूर हूं. यह बात सुनते ही मेरी बड़ी-जेठानी का मुंह चढ़ गया. मगर मेरे रूप की ज़रूरत ही क्या थी, बस, यही सोचती हूं? रूप नामक वस्तु को यदि किसी पुरातन पंडित ने गंगामाटी से गढ़ा हो तो उसका आदर-मान भी हो, किंतु उसे तो विधाता ने केवल अपनी मौज-मस्ती की रौ में निर्मित किया है. इसलिए तुम्हारे धर्म के संसार में उसका कोई दाम नहीं है.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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RE: दीदी की जेठानी - by neerathemall - 17-11-2020, 02:27 PM



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