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वह पूनम की रात
#4
‘‘बहुत सुंदर है, आज पूनम की रात जो है.‘‘ प्रीति मेरे बगल में आ कर मुझ से सट कर खड़ी हो गई. फिर वह भी उस खूबसूरत नजारे को अपलक निहारने लगी.

‘‘ऐसी रात में अगर सारी रात भी जागना पड़ जाए, तो कुछ गम नहीं,‘‘ भावातिरेक में मैं ने प्रीति के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘तुम्हें वह पूनम की रात याद है न?‘‘ प्रीति अपनी झील जैसी झिलमिलाती आंखों से मेरी ओर देखती, जैसे मुझे कुछ याद दिलाने का प्रयास करते हुए बोली.

‘‘उस रात को कैसे भूल सकता हूं? उस रात तो जैसे चांद ही धरती पर उतर आया था…‘‘ मैं ने गंभीर हो कर उदासी भरे स्वर में कहा.


उस गाने की धुन अभी भी सुनाई पड़ रही थी. चांद भी इमारतों की ओट से निकल आया था. उस की चांदनी से आंखों की ज्योत्सना बढ़ती जा रही थी पर उस रात की याद आते ही, मेरे साथसाथ प्रीति के चेहरे पर भी उदासी की झलक उतर आई. मैं ने देखा, इस के बावजूद उस के होंठों पर हलकी सी मुसकान उभर आई थी, लेकिन आंखों में तैर आए पानी को वह छिपा नहीं पाई. मैं ने उस के कंधे पर हौले से हाथ रख कर जैसे ढांढ़स बंधाने का प्रयास किया.

उस रात मेरी आंखों में नींद ही नहीं थी. बस, बिस्तर पर बारबार मैं करवटें बदल रहा था और अपने कमरे की खुली खिड़की से बाहर के नजारे को निहारे जा रहा था.

बाहर चांदी की चादर की तरह पूनम की चांदनी बिखरी हुई थी, जिस में सभी नजारे नहा रहे थे. ऐसी खूबसूरती को देख मेरे मन में आनंद की लहरें उमड़ रही थीं. खिड़की के ठीक सामने, आंगन में लगे जामुन की नईनई कोमल पत्तियों की चमक ऐसी थी, जैसे उन पर पिघली हुई चांदी की पतलीपतली परत चढ़ा दी गई हो. फिर हवा के झोंकों से अठखेलियां करती, उन पत्तियों की सरसराहट से मन में मदहोशी के साथ दिल में गुदगुदी सी पैदा हो रही थी.

दादी खाना खाने के बाद जैसा कि अकसर गांव में होता है, सीधे अपने कमरे में चली गई थीं. शायद वे सो रही थीं. रात के 9 बज चुके थे इसलिए चारों तरफ गहरी खामोशी थी. बस, कभीकभार कुत्तों के भौंकने की आवाज आती थी और दूर मैदानों में टुंगरी के आसपास उस निशाचरपक्षी के बोलने की आवाज सुनाईर् पड़ रही थी, जिसे कभी देखा तो नहीं, पर दादी से उस के बारे में सुना जरूर था, ‘रात को चरने वाली उस चिडि़या का नाम ‘टिटिटोहों‘ है. वह अधिकतर चांदनी रात में ही निकलती है.‘ उस का बोलना पता नहीं क्यों मेरे मन को हमेशा ही मोहित सा कर देता. लगता जैसे वह चांदनी रात में अपने साथ विचरण करने के लिए बुला रही हो.


मेरे दिल की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी, मन अधीर होता जा रहा था. उस वक्त एकएक पल जैसे घंटे के समान लग रहा था पर घड़ी के कांटे को मेरी तड़प से शायद कोई मतलब नहीं था. उस की चाल इतनी सुस्त जान पड़ रही थी कि अपने पर काबू रखना मुश्किल होता जा रहा था. फिर बड़ी मुश्किल से जब घड़ी के मिनट का कांटा तय समय पर जा कर अटका, तो मैं उसी बेचैनी के साथ जल्दी से

अपने बिस्तर से उठ कर आहिस्ताआहिस्ता अपने कमरे का दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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RE: वह पूनम की रात - by neerathemall - 13-11-2020, 11:25 AM



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