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Adultery कामया बहू से कामयानी देवी
#18
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भीमा ने भी उसे डिस्टर्ब ना करते हुए अपनी धोती और अंडरवेर उठाया और उस सुंदर काया के दर्शन करते हुए अपने कपड़े पहनने लगा। उसके मन की इक्षा अब भी पूरी नहीं हुई थी। उस अप्सरा को वैसे ही छोड़कर वो नहीं जाना चाहता था। वो एक बार वहीं खड़े हुए बहू को एकटक देखता रहा और उसके साथ गुजरे हुए पल को याद करता रहा।

बहू की कमर के चारों और उसकी पेटीकोट अब भी बंधी हुई थी, पर ब्लाउज़ के सारे बटन खुले हुए थे और उसके कंधों के ही सहारे थे। उसकी चूचियां अब बहुत ही धीरे-धीरे ऊपर और नीचे हो रही थी नाभि से सहारे उसका पेट बिकुल बिस्तर से लगा हुआ था। जांघों के बीच काले-काले बाल जो की उस हसीना के अंदर जाने के द्वार के पहरेदार थे, पेट के नीचे दिख रहे थे, और लम्बी-लम्बी पतली सी जांघों के बाद टांगों पर खतम हो जाती थी।

भीमा की नजर एक बार फिर बहू पर पड़ी, और वो वापस जाने को पलटा। पर कुछ सोचकर वापस बिस्तर तक आया और बिस्तर के पास झुक कर बैठ गया, और बहू के चेहरे से बालों को हटाकर बिना किसी डर के अपने होंठों को बहू के होंठों से जोड़कर उसके मधु का पान करने लगा। वो बहुत देर तक बहू के ऊपर फिर नीचे के होंठों को अपने मुख में लिए चूसता रहा, और फिर एक लम्बी सी सांस छोड़कर उठा और नीचे रखी एक कंबल से बहू को ढक कर वापस दरवाजे से बाहर निकल गया।

***** *****
कामया पड़े हुए भीमा की हर हरकत को देख भी रही थी और महसूस भी कर रही थी लेकिन उसके शरीर में इतनी जान ही नहीं बची थी की वो कोई कदम उठाती या फिर अपने को ढकती। वो तो बस लेटी-लेटी
भीमा की हर उस हरकत का लुत्फ उठा रही थी जो की आज तक उसके जीवन में नहीं हुआ था। वो तब भी उठी हुई थी जब वो उसके ऊपर से हटा था, और उसने पलटकर अपनी धोती और अंडरवेर पहना था। कितना बलिष्ठ था वो बिल्कुल कसा हुआ सा और उसके नितम्ब तो जैसे पत्थर का टुकड़ा था, बिल्कुल कसा हुआ और काला-काला था। जांघों में बाल थे और लिंग तो झड़ने के बाद भी कितना लंबा और मोटा था, कमर के चारों ओर एक घेरा सा था और उसके ऊपर उसका सीना था, काले और सफेद बालों को लिए हुए।

वो लेटी हुई भीमा को अच्छे से देखी थी, उतना अच्छे से तो उसने अपने पति को भी नहीं देखा था। पर ना जाने क्यों उसे भीमा चाचा को इस तरह से छुपकर देखना बहुत अच्छा लगा, और जब वो जाते-जाते रुक गये थे और पलटकर आकर उसके होंठों को चूमा था, तो उसका मन भी उनको चूमने का हुआ था। पर शरम और डर के मारे वो चुपचाप लेटी रही थी, उसे बहुत मजा आया था।

उसके पति ने भी कभी झड़ने के बाद उसे इस तरह से किस नहीं किया था, या फिर ढक कर सुलाने की कोशिश नहीं की थी। वो लेटी-लेटी अपने आपसे ही बातें करती हुई सो गई, और एक सुखद कल की ओर चाल दी। उसे पता था की अब वो भीमा चाचा को कभी भी रोक नहीं पाएगी, और वो यह भी जानती थी की जो उसकी जिंदगी में खालीपन था, अब उसे भरने के लिए भीमा चाचा काफी हैं। वो अब हर तरीके से अपने शरीर का सुख भीमा चाचा से हासिल कर सकती है, और किसी को पता भी नहीं चलेगा और वो एक लम्बी सी सुखद नींद के आगोश में समा गई

शाम को इंटरकोम की घंटी के साथ ही उसकी नींद खुली और उसने झट से फोन उठाया- “हाँ…”

भीमा- “जी वो माँजी आने वाली हैं चाय के लिए…”

कामया- “हाँ…” और फोन रख दिया। लेकिन अचानक ही उसके दिमाग की घंटी बज गई।

अरे यह तो भीमा चाचा थे? पर क्यों उन्होंने फोन किया मम्मीजी भी तो कर सकती थी? तभी उसका ध्यान अपने आप पर गया। अरे वो तो पूरी तरह से नंगी थी। उसके जेहन में दोपहर की बातें घुमाने लगी थी। वो वैसे ही बिस्तर पर बैठी अपने बारे में सोचने लगी थी। वो जानती थी की आज उसने क्या किया था? सेक्स की भूख खतम होते ही उसे अपनी इज्जत का ख्याल आ गया था। वो फिर से चिंतित हो गई और कंधों पर पड़े अपने ब्लाउज़ को ठीक करने लगी, और धीरे से उतरकर बाथरूम की ओर चल दी।

बाथरूम में जाने के बाद उसने अपने आपको ठीक से साफ किया और बाहर से कमरे में आ गई थी। वार्डरोब से सूट निकालकर वो जल्दी से तैयार होने लगी थी। पर ध्यान उसका पूरे समय मिरर पर था। उसका चेहरा दमक रहा था, जैसे कोई चिंता या कोई जीवन की समस्या ही नहीं हो उसके दिमाग पर। हाँ… आज तक उसका चेहरा इतना नहीं चमका था। वो मिरर के पास आकर और गौर से देखी तो उसकी आँखों में एक अजीब सा नशा था, और उसके होंठों पर एक अजीब सी खुशी। उसका सारा बदन बिल्कुल हल्का लग रहा था।

दोपहर के सेक्स के खेल के बाद वो कुछ ज्यादा ही चमक गया था। वो सोचते ही उसके शरीर में एक लहर सी दौड़ गई और उसके निपल फिर से टाइट होने लगे थे। उसने अपने हाथों से अपनी चूचियों को एक बार सहलाकर छोड़ दिया और अपने दिमाग से इस घटना को निकाल देना चाहती थी। वो जल्दी से तैयार होकर नीचे की ओर चली। सीढ़ियों के कोने से ही उसने देख लिया था की मम्मीजी अपने कमरे से अभी ही निकली हैं। अच्छा हुआ भीमा ने फोन कर दिया था, नहीं तो वो तो सोती ही रह जाती। वो जल्दी से मम्मीजी के पास पहुँच गई और दोनों की चाय सर्व करने लगी। वो शांत थी।

मम्मीजी- तैयार हो गई?

कामया- जी।

मम्मीजी- अरे लक्खा के साथ नहीं जाना गाड़ी चलाने?

कामे- जी जी हाँ… बस चाय पीकर तैयार होती हूँ।

लक्खा का नाम सुनते ही पता नहीं क्यों उसके अंदर एक उथल पुथल फिर मच गई। उसे लक्खा काका की आँखें नजर आने लगी थी, और फिर वहीं बैठे-बैठे दोपहर की बातों पर भी ध्यान चला गया। किस तरह से भीमा चाचा ने उसे उठाया था और बिस्तर पर रखा था, और उसने किस तरह से उनका हाथ पकड़कर अपने सीने पर रखा था। सोचते-सोचते और चाय पीते-पीते उसके शरीर में एक सिहरन सी वापस दौड़ने लगी थी। उसकी चूचियां फिर से ब्रा में टाइट हो गई थीं, और उसकी जांघों के बीच में फिर से कूड़कुड़ी सी होने लगी थी। पर मम्मीजी के सामने वो चुपचाप अपने को रोके हुए चाय पीती रही। पर एक, लम्बी सी सांस जरूर उसके मुख और नाक से निकल ही गई।

मम्मीजी का ध्यान भी उस तरफ गया और कामया की ओर देखकर पूछा- क्या हुआ?

कामया- “जी कुछ नहीं, बस हम्म्म्म…”

मम्मीजी- आराम से चलाना और कोई जल्दीबाजी नहीं करना। ठीक है?

कामया- “जी हाँ…” वो ना चाहकर भी अपनी सांसों पर कंट्रोल नहीं रख पा रही थी। उसका शरीर उसका साथ नहीं दे रहा था। वो चाहती थी की किसी तरह से वो अपने आप पर कंट्रोल कर ले। पर पता नहीं क्यों लक्खा काका के साथ जाने की बात से ही वो उत्तेजित होने लगी थी।

मम्मीजी- "चल जल्दी कर ले, 6:00 बजने को हैं, लक्खा आता ही होगा। तेरे जाने के बाद ही पूजा में बैठूँगी। जा तैयार हो जा…”

मम्मीजी की आवाज ने कामया को चौंका दिया था। वो भी जल्दी से चाय खतम करके अपने कमरे की ओर भागी और वार्डरोब के सामने खड़ी हो गई। क्या पहनूं? सूट ही ठीक है। पर साड़ी में वो ज्यादा अच्छी लगती है, और सेक्सी भी। लक्खा भी अपनी आँखें नहीं हटा पा रहा था। उसके होंठों पर एक कातिल सी मुश्कान दौड़ गई थी। उसने फिर से वही साड़ी निकाली जो वो उस दिन पहनकर पार्टी में गई थी, और हैंगर पर लिए अपने सामने करती हुई उसे ध्यान से देखती रही। फिर एक झटके से अपने आपको तैयार करने में जुट गई थी। बड़े ही सौम्य तरीके से उसने अपने आपको सजाया था, जैसे की वो अपने पति या फिर किसी दोस्त के साथ कहीं पार्टी या फिर किसी डेट पर जा रही हो। हर बार जब भी वो अपने को मिरर में देखती थी तो उसके होंठों पर एक मुश्कान दौड़ पड़ती थी।

एक मुश्कान जिसमें बहुत से सवाल छुपे थे, एक मुश्कान जिससे कोई भी देख लेता तो कामया के दिल की हाल को जबान पर लाने से नहीं रोक पाता, एक मुश्कान जिसके लिए कितने ही जान निछावर हो जाते पता नहीं। जब वो तैयार होकर मिरर के सामने खड़ी हुई तो वो क्या लग रही थी, खुले बाल कंधों तक, सपाट कंधे और उसपर जरा सी ब्लाउज़ की पट्टी, सामने से ब्लाउज़ इतना खुला था की उसकी आधी चूचियां बाहर की ओर निकल पड़ी थीं, साड़ी का पल्लू लेते हुए वो ब्लाउज़ पर पिन लगाने को हुई, पर जाने क्यों उसने पिन वहीं छोड़ दिया, और फिर से अपने पल्लू को ठीक से ब्लाउज़ के ऊपर रखने लगी।

दायें साइड का चूची तो पूरा बाहर थी, और साड़ी उसकी दोनों चूचियों के बीच से होता हुआ पीछे चला गया था। खुले पल्ले की साड़ी होने की वजह से सिर्फ एक महीन लाइन या ढका हुआ था उसकी चूची, या कहिए सामने वाले की जोर आजमाइश के लिए थे। यह साड़ी का पल्लू की देखो क्या छुपा रखा है अंदर। हाँ… हाँ… ही ही साड़ी या पेटीकोट बांधते समय भी कामीया ने बहुत ध्यान से उसे कमर के काफी नीचे बांधा था, ताकी उसका पेट और नाभि अच्छे से दिखाई दे, और साफ-साफ दिखाई दे, ताकी उसपर से नजर ही ना हटे, और पीछे से भी कमर के चारों तरफ एक हल्का सा घेरा जैसा ही ले रखा था उसने, ना ही कमर को ढकने की कोशिश थी, और बल्की दिखाने की कोशिश ज्यादा थी। कामया ने हाथों में लटकी हुई साड़ी को लपेटकर वो एक चंचल सी लड़की के समान मिरर के सामने खड़ी हुई अपने को निहारती रही।

और तभी इंटरकाम की घंटी बजी, मम्मीजी ने कहा- क्या हुआ बहू तैयार नहीं हुई क्या? लक्खा तो आ गया है।

कामया- “जी आती हूँ…”

और कामया का सारा जोश जैसे पानी-पानी हो गया था। वो मम्मीजी के सामने से ऐसे कैसे निकलेगी? बाप रे बाप… क्या सोचेंगी मम्मीजी? धत्त उसके दिमाग में यह बात आई क्यों नहीं? वो अब सकपका गई थी दिमाग खराब हो गया था उसका। उसके अंदर एक अजीब सा द्वंद चल रहा था। वो खड़ी हुई और फिर से वार्डरोब के पास पहुँच गई, ताकी चेंज कर सके, वापस सूट पहनकर ही चलो जाए। वो सूट निकल ही रही थी की उसका ध्यान नीचे पड़े हुए एक कपड़े पर पड़ा। सादी से पहले का था, वो उसे बहुत अच्छा लगाता था। वो एक समर कोट टाइप का था (आप लोगों ने देखा होगा आजकल की लड़कियां पहनती हैं, ताकी धूप से या फिर धूल से बच सकें स्कूटी चलाते समय) रखा था।

उसके चेहरे पर एक विजयी मुश्कान दौड़ गई और वो जल्दी से उसे निकालकर एक झटका दिया और अपनी साड़ी को ठीक करके ऊपर से उसे पहन लिया और फिर मिरर के सामने खड़ी हो गई। हाँ, अब ठीक है। कोट के नीचे साड़ी दिख रही थी जो की बिल्कुल ठीक-ठाक थी और ऊपर से कोट उसके पूरे खुलेपन को ढके हुए था। अंदर क्या पहना था, कुछ भी नहीं दिख रहा था। हाँ… अब जा सकती है मम्मीजी के सामने से। एक शरारती मुश्कान छोड़ती हुई कामया जल्दी से अपने रूम से निकली और अपने हाई हील को जोर-जोर से पटकती हुई नीचे की ओर चली। गजब की फुर्ती आ गई थी उसमें, वो अब घर में रुकना नहीं चाहती थी।

वो जब नीचे उतरी तो मम्मीजी ड्राइंग रूम में बैठी थी। डाइनिंग रूम पार करते हुए उसने घूमकर किचेन की और देखा तो पाया की लक्खा काका भी शायद वहीं थे, और उसे देखते ही बाहर की ओर लपके, पीछे के दरवाजे से। भीमा चाचा कहीं नहीं दिखे। वो ड्राइंग रूम में मम्मीजी के सामने खड़ी थी।

मम्मीजी- अरे यह क्या पहना है?

कामया- जी वो ड्राइविंग पर जा रही थी सोचा की थोड़ा ढक कर जाती हूँ।

मम्मीजी- हाँ वो तो ठीक है, पर यह कोट क्यों? सूट भी तो ठीक था।

कामया- जी पर?

मम्मीजी- “अरे ठीक है कोई बात नहीं। तू तो बस चल ठीक है ध्यान से चलाना…” और कामया की पीठ पर हाथ देकर बाहर की ओर चल दी।

कामया भी मम्मीजी के साथ बाहर की और मुड़ी और बाहर आकर देखा की लक्खा काका कार का दरवाजा खोले खड़े हैं।

कामया थोड़ी सी ठिठकी पर अपने अंदर उठ रही कामाग्नि को वो ना रोक पाई, और अपने बढ़ते हुए कदम को ना रोक पाई थी वो। वो मम्मीजी की ओर मुश्कुराते हुए देखा, और गाड़ी के अंदर बैठ गई। लक्खा भी दौड़कर सामने की सीट पर बैठ गया था, और गाड़ी गेट के बाहर की ओर चल दी। गाड़ी सड़क पर चल रही थी और बाहर की आवाजें भी सुनाई दे रही थीं। पर अंदर एकदम सन्नाटा था। शायद सुई भी गिर जाए तो आवाज सुनाई दे जाए।

लक्खा गाड़ी चला रहा था, पर उसका मन पीछे बैठी हुई बहू को देखने को हो रहा था। पर बहुत देर तक वो देख ना सका। आज पहली बार बहू उसके साथ अकेली आई थी। वो सुंदरी जिसने की उसके मन में आग लगाई थी, उस दिन जब वो पार्टी में गई थी, और आज तो पता नहीं कैसे आई है।

एक बड़ा सा लबादा पहने हुए सिर्फ साड़ी क्यों नहीं पहने हुए है बहू? वो थोड़ा सा हिम्मत करके रियर व्यू में देखने की हिम्मत जुटा ही लिया। देखा की बहू पीछे बैठी हुई बाहर की ओर देख रही थी। गाड़ी सड़क पर से तेजी से जा रही थी। लक्खा को मालूम था की कहां जाना है? बड़े साहब ने कहा था की ग्राउंड में ले जाना, वहां ठीक रहेगा। थोड़ी दूर था पर थी बहुत ही अच्छी जगह। दिन में तो बहुत चहल-हेल होती थी वहां। पर अंधेरा होते ही सब कुछ शांत हो जाता था।

पर उससे क्या? वो तो इस घर का पुराना नौकर था और बहुत भरोसा था मालिकों को उसपर। वो सोच भी नहीं सकते थे की उनकी बहू ने उस सोए हुए लक्खा के अंदर एक मर्द को जनम दे दिया था, जो की अब तक एक लकड़ी की तरह हमेशा खड़ा रहता था, अब एक पेड़ की तरह हिलने लगा था। उसके अंदर का मर्द कब और कहां खो गया था इतने सालो में उसे भी पता नहीं चला था। वो बस जी साहब और जी माँजी के सिवा कुछ भी नहीं कह पाया था इतने दिनों में। पर उस दिन की घटना के बाद वो एक अलग सा बन गया था, जब भी वो खाली समय में बैठता था तो बहू का चेहरा उसके सामने आ जाता था। उसके चेहरे का भोलापन और शरारती आँखें वो चाहकर भी उसकी वो मुश्कान को आज तक नहीं भूल पाया था। वो बार-बार पीछे की ओर देख ही लेता था पर नजर बचाकर।

उधर पीछे बैठी कामया का तो पूरा ध्यान ही लक्खा काका पर था। वो दिखा जरूर रही थी की वो बाहर या फिर उसका ध्यान कहीं और था, पर जैसे ही लक्खा काका की नजर उठने को होती वो बाहर की ओर देखने लगती और मन ही मन मुश्कुराती। वो जानती थी की लक्खा काका के मन में क्या चल रहा है? वो जानती थी की लक्खा काका के साथ आज वो पहली बार अकेली आई है, और उस दिन के बाद तो शायद लक्खा काका भी इंतेजार में ही होंगे की कब वो कामया को फिर से नजर भर के देख सकें? यह सोच आते ही कामया के पूरे शरीर में फिर से एक झुनझुनी से फैल गई और वो अपने आपको समेटकर बैठ गई। वो जानती थी की लक्खा काका में इतनी हिम्मत नहीं है की वो कुछ कह सकें, या फिर कुछ आगे बढ़ेंगे, तो कामया ने खुद ही कहानी को आगे बढ़ाने की कोशिश की।

कामया- और कितनी दूर है काका?

लक्खा जो की अपनी ही उधेड़बुन में लगा था। चलती गाड़ी के अंदर एक मधुर संगीतमय सुर को सुनकर मंत्रमुग्ध सा हो गया और बहुत ही हल्की आवाज में कहा- लक्खा- “जी बस दो-तीन मिनट लगेंगे…”

कामया- जी अच्छा।

और फिर से गाड़ी के अंदर एक सन्नाटा सा छा गया। दोनों ही कुछ सोच में डूबे थे। पर दोनों ही आगे की कहानी के बारे में अंजान थे। दोनों ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित थे पर एक दूसरे के आकर्षण से अंजान थे। हाँ… एक बात जो आम सी लगती थी और वो थी की नजर बचाकर एक दूसरे की ओर देखने की जैसे कोई कालेज के लड़के लड़कियां एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने के बाद होता था। वो था उन दोनों के बीच में।

पीछे बैठी कामया थोड़ा सा सभलकर बैठी थी और बाहर से ज्यादा उसका ध्यान सामने बैठे लक्खा काका की ओर था, वो बार-बार एक ही बात को नोटिस कर रही थी की लक्खा काका कुछ डरे हुए, और कुछ संकोच कर रहे हैं, जो वो नहीं चाहती थी। वो तो चाहती थी की लक्खा काका उसे देखें, और खूब देखें, उनकी नजर में जो भूख उसने उस दिन देखा था, वो नजर को वो आज भी नहीं भुला पाई थी। उसको वो नजर में अपनी जीत और अपनी खूबसूरती दिखाई दी थी।
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RE: कामया बहू से कामयानी देवी - by jaunpur - 11-03-2019, 12:43 PM



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