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गाँव की डॉक्टर साहिबा ( पुरी कहनी )
#11
“वो देखो बीबी जी आपका बंगला आ गया” सत्तू ने एक दम खुश होके पुरे दम से काव्या को बोला.

काव्य ने ख़ुशी से नज़र दौड़ाई तो उसको वही १८ साल पुराना किशोरीलाल अग्रवाल भवन दिख गया. वही जिसमे वो बचपन में लुका छुपी खेलती थी, दौड़ती थी, अपनी गुडिया संग खेलती थी, नाना के साथ सैर पे जाती थी, नानी से कहानिया सुनती थी. उसका ख़ुशी का कोई किनारा न रहा. वो ख़ुशी से फुले नहीं समां रही थी. उसके घर के गेट से ही अंदर की पौधों फुलोकी बगिया दिख रही थी. बचपन में वो उन पौधों को पानी डालती थी. आज वही बगिया अब बहुत खुबसूरत हो गयी बिलकुल काव्या की तरह. पर्यावरण का देखभाल करो तो वो भी तुम्हारा देखभाल करेगा ये विचार यहाँ पे हमें मिलता हैं. उस बगिया से आने वाली फूलो की महक बाहर तक आ रही थी. पूरा वातावरण जैसे महक गया था और साथ ही वो भव्य बंगला उसमे जैसे किसी राज महल जैसे प्रतीत हो रहा था. मानो वो अपनी राजकुमारी के स्वागत में सज धज के खड़ा हो.
जैसे तैसे देहाती ऑटो बंगले के गेट के पास रुक गया. काव्या ने अपने पैर ऑटो के बाहर रख दिए. अपने घर को इतने सालो के बाद देख वो बहुत ज्यादा खुश नज़र आ रही थी. फूलों की महक उसको और सकारात्मक हवा प्रदान कर रही थी. उसने वही बड़े ही आराम से खड़े-खड़े एक लम्बी आह भरी और भारी अंगडाई ली. जिससे उसके दोनों हाथ ऊपर हो गए और आखे बंद हो गयी. होठो पे सतुष्टि से भरी मुस्कान आ गयी.
“हम्म....आई लव माय होम..आव....”

जैसे ही उसको ऐसे खड़े मुद्रा में सबने देखा, सुलेमान झट से ऑटो से उतर गया. उसने बिना कोई देरी किये काव्या के नजदीक जाकर अपनी नाक उसके गोरी चिकनी खुली बघलों में घुसा दी. और एक लम्बी सांस भरी.

“स......आह.....”

अपनी बघलो में अचानक कुछ गुदगुदी महसूस हुए काव्या ने अपनी आखे खोली और एकदम से दोनों हाथ निचे करके थोडा पिच्छे हट गयी. सुलेमान अपने इतने करीब खड़ा देख के वो चौक गयी.

“ये क्या कर रह थे तुम?” उसने बड़े आश्चर्यता से और जोर से सुलेमान से कहा.

“जी...मैं बीबीजी..काव्या मैं तो बस फूलो की खुशबू ले रहा था....” ऐसा बोलके और उसने यहाँ वहा देखा जैसे वो उसको दिखा रहा हो, फूल उसको कितने पसंद हैं.

काव्या ने थोडा मूह टेढा किया. पर उसका ध्यान फिलहाल सुलेमान से हटकर अपनी पुराणी यादो पे था. सो उसने खुद ही उसकी बात को इग्नोर किया.
“अछ्छा,...ओके..”

“हा काव्या..मुझे तो फूलो को सूंघना पसंद हैं. मैं तो उसको चाटता भी हूँ कभी कभी..” अपने भद्दे होठो पे अपनी जुबान फिरते उसने काव्या की बघलो की तरफ देखके बड़े ही कामुक अंदाज़ में ये बोल दिया.

काव्या उसके हर बात को इगनोर करके बस अपने घर की और देख रही थी. तभी उसने कहा ,”अच्छा ये लो पैसे”
उसने अपनी पर्स से २००० की नोट निकाल के उसको दे दी. उसको देख के सत्तू बोला “अरे बीबीजी..हमारे पास इतना पैसा कहा होगा..इसका छूटटा नहीं हैं हमरे पास.”

“ऊप्स..मेरे पास तो यही सब नोट हैं. बाकि १०-२० के हैं थोड़े ”

बस सुलेमान को यही चांस मिल गया उसने झट से कहा,
“अरे काव्या तुम क्यों सोच रही हो इतना..पैसे रहने दो हम ले लेगे तुमसे बाद में. सलमा की इलाज के लिए आना ही हैं न तुमको तब दे देना..जो देना हैं वो”

“अरे हाँ...थैंक्स ..मैं भूल ही गयी थी”, काव्या ने एक मुस्कान के साथ जवाब दिया.

एक बार फिर से काव्या के बदन पर नज़र फिराते हुए सुलेमान के बड़े कामुक स्वर में धीरे से कहा,
“ऐसे भूल मत जाना बीबीजी..हमरे पैसे हैं आप के पास..सूद के साथ वापस लेंगे फिर तो..और हिसाब के पक्के हैं हम आप से तो ले कर रहेंगे“

और इस बात पे सब हसने लगे. काव्या भी उन सब के साथ ताल में ताल मिला कर हस गयी.

“ओके बाबा..ओके..मैं दूंगी तुमको पैसे”, हस्ते हुए अपनी बैग ले कर वो गेट के अंदर आ गयी.

“बाय..सी यू,....” सबको बाय बोलते हुए वो जब मूडी तब वो नज़ारा सच में देखने लायक था. जैसे कोई रानी अपने महल में जा रही हो. मटक मटक के उसका पिचवाडा घुमे जा रहा था. दोनों कलूटे आखरी मंजील तक उसके पिछवाड़े को निहारते रहे.
फिर एक बार काव्या ने घर के मैं दरवाजे के पास जाके वापस मुडके अपनी हाथो से सबको बाय बोला. यहाँ दोनों कलूटे भी जोर से बोल पड़े ”मिलना बिबीजी..हम आयेंगे वापस..” और काव्या ने दरवाजे की बेल बजायी और अपने घर के अन्दर प्रवेश किया.

जैसे ही वो अन्दर गयी यहाँ सुलेमान सत्तू से बोल पड़ा,

” मादरचोद..इस डोक्टोरनी ने आग लगा दी हैं मेरे लवडे में”

सत्तू बोला” बात तो ठीक हैं गुरु, मेरा भी हाल वैसा ही हैं जैसा तुम्हारा..”

“कुछ भी बोल माल हाथ से नहीं जाने देना हैं सत्तू...”

“वो बात तो सही हैं गुरु पर अपनी तो हालत अभी भी ख़राब हो गयी हैं,.इसको ठंडा करना होगा..”

“तो फिर सोच क्या रहा हैं गांडू..भगा ऑटो अपने झोपडी की तरफ”

और दोनों कलूटे हस कर ऑटो में बैठ गए. ऑटो चालू करके सत्तू ने उसको खेतो की और मोड़ा सलमा को समझ में देरी नहीं लगी के ने उसको वक़्त ने फिर से एक घंटा पिच्छे की और मोड़ दीया था.
जैसे ही काव्या ने डोर बेल बजाई नानी ने दरवाजा खोला. वो पहले अपनी नानी से मिली. उनके पैर छुए. और उनको गले लगा लिया. अपनी पोती को देख नानी बड़ी खुश हुयी. काव्या जब १० साल की थी तब वह आई थी. तब उसने खेल खेल के पूरा घर सर पे रख दिया था. नानी को वो दिन याद आये. लेकिन अब उसको क्या पता के २८ साल की काव्या अब जो खेल यहाँ खेलने वाली हैं शायद उससे पूरा समा, सर चढ़ना हैं. काव्या ने नानी को एक जोर से ज़प्पी दी.
“जुग जुग जियो बेटी. बड़ी लेट आई हो गाडी सब खैरियत से मिली न?”

“ओह नानी वो सब ठीक मिला. पता हैं यहाँ के लोग भी काफी अच्छे हैं, एक औटोवाला था उसने यहाँ तक लाके छोड़ा मुझे”

“हाँ बेटी वो तो हैं, इसीलिए मुझे गाँव से शहर आने का कभि मन नहीं करता. तेऋ मा हर बार बोलती हैं पर मैं नहीं सुनती उसकी कभी...हा हा ” और नानी हसने लगी.

“सच नानी. कितनी ताज़ी हवा हैं यहाँ. कितने अच्छे लोग हैं यहाँ. अब तो मैं फुल आराम करुँगी देखो”

“अरे क्यों नहीं बेटी जब तक रहो तब तक सिर्फ आराम करो कोई बात लगे तो बता देना. तेरे नाना की आत्मा को शान्ति मिलेगी आज कितने दिन के बाद पोती घर आई हैं”

दोनों हॉल में लगी हुयी किशोरीलाल के बड़े तस्वीर के सामने आ गए.
“सच नानी, नाना जी की बहुत याद आती हैं मुझे भी.”

“हा बेटी. पर सब उसके हाथ में हैं. हम क्या कर सकते हैं.”

और सब तरफ एक दम शांति छा गयी. तभी खिड़की से ठंडी हवा का झोका आया और नानाजी के तस्वीर से एक फूल निचे गिर गया.
“अरे बीटा लो. नाना भी खुश हुए देखो प्रकृति का सन्देश”
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RE: गाँव की डॉक्टर साहिबा ( पुरी कहनी ) - by THANOS RAJA - 25-08-2020, 01:43 PM



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