07-03-2019, 10:18 AM
<br /> दोपहर के खाने के बाद उसके पति निकल जाते थे और में हॉल में बैठकर टीवी देखते रहता था. बाद में अपना काम ख़तम कर के शालू दीदी बाहर आती थी और मेरे बाजू में दीवानपर बैठती थी. हम दोनो टीवी देखते देखते बातें करते रहते थे. दोपहर को दीदी हमेशा सोती थी इसलिए थोड़े समय बाद वो वही पे दीवानपर सो जाती थी.
</p><p>जब वो गहरी नींद में सो जाती थी तब में बीना जीझक उसे बड़े गौर से देखता और निहारता रहता था. अगर संभव होगा तो में उसके छाती के उप्पर का पल्लू सावधानी से थोड़ा सरकाता था और उसके उभारों की सांसो के तालपर हो रही हलचल को देखते रहता था. और उसका सीधा, चिकना पेट, गोला, गहरी नाभी और लचकदार कमर को वासना भरी आँखों से देखते रहता था. कभी कभी तो में उसकी साड़ी उप्पर करने की कोशिश करता था लेकिन उसके लिए मुझे काफ़ी सावधानी बरतनी पड़ती थी और में सिर्फ़ घुटने तक उसकी साड़ी उप्पर कर सकता था.
</p><p>उनके घर में बंद रूम जैसा बाथरूम नही था बल्की किचन के एक कोने में नहाने की जगह थी. दो बाजू में कोने की दीवार, सामने से वो जगह खुली थी और एक बाजू में चार फूट उँची एक छोटी दीवार थी. शालू दीदी सुबह जल्दी नहाती नही थी. सुबह के सभी काम निपटने के बाद और उसके पति दुकान में जाने के बाद वो आराम से आठ नौ के दरम्यान नहाने जाती थी. उसका लड़का सोता रहता था और दस बजे से पहले उठता नही था. में भी सोने का नाटक करता रहता था. नहाने के लिए बैठने से पहले शालू दीदी किचन का दरवाजा बंद कर लेती थी. में जिस रूम में सोता था वो किचन को लगा के था. में शालू दीदी की हलचल का जायज़ा लेते रहता था और जैसे ही नहाने के लिए वो किचन का दरवाजा बंद कर लेती थी वैसे ही में उठकर चुपके से बाहर आता था
.</p><p>किचन का दरवाजा पुराने स्टाइल का था यानी उस में वर्टीकल गॅप थी. वैसे तो वो गॅप बंद थी लेकिन मैंने गौर से चेक करके मालूम कर लिया था के एक दो जगह उस गॅप में दरार थी जिसमें से अंदर का कुछ भाग दिख सकता था. नहाने की जगह दरवाजे के बिलकूल सामने चार पाँच फूट पर थी. दबे पाँव से में किचन के दरवाजे में जाता था और उस दरार को आँख लगाता था. मुझे दिखाई देता था के अंदर शालू दीदी साड़ी निकाल रही थी. बाद में ब्लाउस और पेटीकोट निकालकर वो ब्रा और पैंटी पहने नहाने की जगह पर जाती थी. फिर गरम पानी में उसे चाहिए उतना ठंडा पानी मिलाके वो नहाने का पानी तैयार करती थी
</p><p>जब वो गहरी नींद में सो जाती थी तब में बीना जीझक उसे बड़े गौर से देखता और निहारता रहता था. अगर संभव होगा तो में उसके छाती के उप्पर का पल्लू सावधानी से थोड़ा सरकाता था और उसके उभारों की सांसो के तालपर हो रही हलचल को देखते रहता था. और उसका सीधा, चिकना पेट, गोला, गहरी नाभी और लचकदार कमर को वासना भरी आँखों से देखते रहता था. कभी कभी तो में उसकी साड़ी उप्पर करने की कोशिश करता था लेकिन उसके लिए मुझे काफ़ी सावधानी बरतनी पड़ती थी और में सिर्फ़ घुटने तक उसकी साड़ी उप्पर कर सकता था.
</p><p>उनके घर में बंद रूम जैसा बाथरूम नही था बल्की किचन के एक कोने में नहाने की जगह थी. दो बाजू में कोने की दीवार, सामने से वो जगह खुली थी और एक बाजू में चार फूट उँची एक छोटी दीवार थी. शालू दीदी सुबह जल्दी नहाती नही थी. सुबह के सभी काम निपटने के बाद और उसके पति दुकान में जाने के बाद वो आराम से आठ नौ के दरम्यान नहाने जाती थी. उसका लड़का सोता रहता था और दस बजे से पहले उठता नही था. में भी सोने का नाटक करता रहता था. नहाने के लिए बैठने से पहले शालू दीदी किचन का दरवाजा बंद कर लेती थी. में जिस रूम में सोता था वो किचन को लगा के था. में शालू दीदी की हलचल का जायज़ा लेते रहता था और जैसे ही नहाने के लिए वो किचन का दरवाजा बंद कर लेती थी वैसे ही में उठकर चुपके से बाहर आता था
.</p><p>किचन का दरवाजा पुराने स्टाइल का था यानी उस में वर्टीकल गॅप थी. वैसे तो वो गॅप बंद थी लेकिन मैंने गौर से चेक करके मालूम कर लिया था के एक दो जगह उस गॅप में दरार थी जिसमें से अंदर का कुछ भाग दिख सकता था. नहाने की जगह दरवाजे के बिलकूल सामने चार पाँच फूट पर थी. दबे पाँव से में किचन के दरवाजे में जाता था और उस दरार को आँख लगाता था. मुझे दिखाई देता था के अंदर शालू दीदी साड़ी निकाल रही थी. बाद में ब्लाउस और पेटीकोट निकालकर वो ब्रा और पैंटी पहने नहाने की जगह पर जाती थी. फिर गरम पानी में उसे चाहिए उतना ठंडा पानी मिलाके वो नहाने का पानी तैयार करती थी
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.