17-08-2020, 06:28 PM
अंतिम भाग........
अपनी जिंदगी की यात्रा पूरी कर रही थी,
उसे लगा, अब इस शरीर में चाँद साँसे ही बची हैं,
उसने अपने बेटे , प्रीतम को बुलाया ,
और कंपकंपाते हुए होठों से बोली : “ बेटा, तुमने मेरे बुढ़ापे में बहुत बड़ा सहारा दिया ,
मेरे वारिस बनकर रहे, मेरे पति की निशानी ना होते हुए भी तुमने अपने फ़र्ज़ का अब तक बखूबी निर्वाह किया है,
बेटे, मेरे मरने के बाद मेरा अंतिम संस्कार ,सामाजिक रीति रिवाज़ के साथ पूरा करना,
जिससे समाज के ठेकेदार, ये ना समझे कि मुझे,
दाग देने वाला कोई ना था, मैंने तुम्हे दिल से अपना बेटा माना है,
मैं तुम्हें इसलिए तुम्हारे घर नहीं जाने देती थी,
डर लगता था, कहीं तुम हमेशा के लिए मुझसे दूर ना हो जाओ,
मैं तुमसे वचन मांगती हूँ, साथ ही, इस कुटिया की जिम्मेदारी तुम्हें सौंपती हूँ, ये मेरे पति और तुम्हारे मुंह बोले ‘पिता जी’ की अंतिम निशानी ,
और पहचान है,
इतना कहते कहते उस बूढी माँ की आँखें अपलक शून्य को ऐसे निहारती रह गयी,
जैसे अपनी अंतिम यात्रा का मार्ग देख रहीं हों, यमराज के दूतों को साक्षात् देख रहीं हो,
अब प्रीतम के शब्दों में..............
मैंने अपनी पत्नी,बच्चों और गांव वासियों के साथ मिलकर सामाजिक रीति रिवाजों तथा पूर्ण विधि विधान के साथ माँ का अंतिम संस्कार किया......
मैंने निश्चय किया कि,
मैं उसी कुटिया में अपनी दूसरी ‘माँ’ के बसाए परिवार के साथ माँ की उम्मीदों को ताउम्र पूरा करूँगा,
इस दौरान मेरी जन्म देने वाली ‘माँ’ राजेश्वरी, पत्नी बसन्ती देवी, पिता और मेरा पुत्र शेखू उस कुटिया में मिलने आते रहे,
घर जाने की जिद भी करते, लेकिन मैंने उनसे कहा,
पिता जी , जितने दिन ‘उसने’ आपका पुत्र बनने का सौभाग्य दिया,
उसका मैं हमेशा ऋणीय रहूँगा, हमेशा आपका ही पुत्र रहूँगा, लेकिन जिस माँ ने मुझे जिलाया, एक नयी दिशा दी,उस फ़र्ज़ से मैं नहीं हट सकता, उसको दिया वचन मैं नहीं तोड़ सकता, हाँ आप जब चाहे मुझसे मिलने आ सकते हैं,
पिताजी ने रोने के साथ ही मुझे कस की सीने से लगा लिया,
मैंने अपने पुत्र शेखू को भी सीने सा लगा लिया, वो बहुत रोया,
लेकिन मैं विवश था,
इसके बाद मैं अपने गाँव कभी नहीं गया,
इतना कहते कहते प्रीतम रोने लगे, आंसू बहाने लगे,
कहने लगे साहब, अपनी अपनी किस्मत है,
मैंने उन्हें (मेरे चाचा जी ने) समझाया कि,
प्रीतम साहब, आपने अपनी मुंह बोली ‘माँ’ के साथ जो फ़र्ज़ निभाया वो काबिले तारीफ़ है,
इस कलियुग में ख़ास रिश्तों के साथ भी बहुत से अपना फ़र्ज़ भी नहीं निभाते, कतराते हैं,
आपने, एक बूढी माँ का दर्द समझकर, उसका साथ देकर,
और आदेश मानकर एक अच्छे इंसान का प्रमाण दिया ,
ईश्वर आपको लम्बी उम्र से नवाज़े, ताकि उस माँ की याद चिर स्थाई रह सके,...............
अपनी जिंदगी की यात्रा पूरी कर रही थी,
उसे लगा, अब इस शरीर में चाँद साँसे ही बची हैं,
उसने अपने बेटे , प्रीतम को बुलाया ,
और कंपकंपाते हुए होठों से बोली : “ बेटा, तुमने मेरे बुढ़ापे में बहुत बड़ा सहारा दिया ,
मेरे वारिस बनकर रहे, मेरे पति की निशानी ना होते हुए भी तुमने अपने फ़र्ज़ का अब तक बखूबी निर्वाह किया है,
बेटे, मेरे मरने के बाद मेरा अंतिम संस्कार ,सामाजिक रीति रिवाज़ के साथ पूरा करना,
जिससे समाज के ठेकेदार, ये ना समझे कि मुझे,
दाग देने वाला कोई ना था, मैंने तुम्हे दिल से अपना बेटा माना है,
मैं तुम्हें इसलिए तुम्हारे घर नहीं जाने देती थी,
डर लगता था, कहीं तुम हमेशा के लिए मुझसे दूर ना हो जाओ,
मैं तुमसे वचन मांगती हूँ, साथ ही, इस कुटिया की जिम्मेदारी तुम्हें सौंपती हूँ, ये मेरे पति और तुम्हारे मुंह बोले ‘पिता जी’ की अंतिम निशानी ,
और पहचान है,
इतना कहते कहते उस बूढी माँ की आँखें अपलक शून्य को ऐसे निहारती रह गयी,
जैसे अपनी अंतिम यात्रा का मार्ग देख रहीं हों, यमराज के दूतों को साक्षात् देख रहीं हो,
अब प्रीतम के शब्दों में..............
मैंने अपनी पत्नी,बच्चों और गांव वासियों के साथ मिलकर सामाजिक रीति रिवाजों तथा पूर्ण विधि विधान के साथ माँ का अंतिम संस्कार किया......
मैंने निश्चय किया कि,
मैं उसी कुटिया में अपनी दूसरी ‘माँ’ के बसाए परिवार के साथ माँ की उम्मीदों को ताउम्र पूरा करूँगा,
इस दौरान मेरी जन्म देने वाली ‘माँ’ राजेश्वरी, पत्नी बसन्ती देवी, पिता और मेरा पुत्र शेखू उस कुटिया में मिलने आते रहे,
घर जाने की जिद भी करते, लेकिन मैंने उनसे कहा,
पिता जी , जितने दिन ‘उसने’ आपका पुत्र बनने का सौभाग्य दिया,
उसका मैं हमेशा ऋणीय रहूँगा, हमेशा आपका ही पुत्र रहूँगा, लेकिन जिस माँ ने मुझे जिलाया, एक नयी दिशा दी,उस फ़र्ज़ से मैं नहीं हट सकता, उसको दिया वचन मैं नहीं तोड़ सकता, हाँ आप जब चाहे मुझसे मिलने आ सकते हैं,
पिताजी ने रोने के साथ ही मुझे कस की सीने से लगा लिया,
मैंने अपने पुत्र शेखू को भी सीने सा लगा लिया, वो बहुत रोया,
लेकिन मैं विवश था,
इसके बाद मैं अपने गाँव कभी नहीं गया,
इतना कहते कहते प्रीतम रोने लगे, आंसू बहाने लगे,
कहने लगे साहब, अपनी अपनी किस्मत है,
मैंने उन्हें (मेरे चाचा जी ने) समझाया कि,
प्रीतम साहब, आपने अपनी मुंह बोली ‘माँ’ के साथ जो फ़र्ज़ निभाया वो काबिले तारीफ़ है,
इस कलियुग में ख़ास रिश्तों के साथ भी बहुत से अपना फ़र्ज़ भी नहीं निभाते, कतराते हैं,
आपने, एक बूढी माँ का दर्द समझकर, उसका साथ देकर,
और आदेश मानकर एक अच्छे इंसान का प्रमाण दिया ,
ईश्वर आपको लम्बी उम्र से नवाज़े, ताकि उस माँ की याद चिर स्थाई रह सके,...............
............................समाप्त.....................