06-08-2020, 12:23 PM
सिर्फ अगाथा क्रिस्टी की ही बात नहीं है, हिंदी के एक और बेहद सफल जासूसी लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक का भी मानना है 'इब्ने सफी को जन्मजात रहस्यकथा लेखक कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. जब तक उन्होंने लिखा, इस क्षेत्र में उनसे आगे कोई नहीं था.'
उपन्यास ऐसे बिकते थे जैसे राशन की दुकान पर शक्कर
ब्लिट्ज (उर्दू संस्करण) के संपादक और मशहूर शायर ‘हसन कमाल’ अपने बचपन के लखनऊ में बिताए दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि 'जिस दिन इब्ने सफी का नोवेल दुकान पर आने वाला होता था, घंटों पहले से दुकान के सामने लाइन लग जाती थी. उनके उपन्यास ऐसे बिकते थे जैसे राशन की दुकान पर शक्कर.'
आज के समय में उपन्यास लेखन पर (खासतौर पर हिंदी में), एक प्रश्न-चिन्ह लगा हुआ है. लेकिन लोकप्रिय मनोरंजन की अगर बात की जाए तो ‘पल्प-फिक्शन’ यानी लुगदी साहित्य में जो कुछ हमारे सामने है उसमें चालू, बाजारू, या फुटपाथिया कहे जाने वाले उपन्यासों की भरमार है. ऐसे में इब्ने सफी के उपन्यासों के किरदार, उनका नैतिक आचरण, दिलकश साहित्यिक भाषा और कथानक में पाठकों को बांधे रखने की अद्भुत क्षमता सिर्फ उन्हीं के दिमाग की उपज थी.
ज़ाहिर है कि जुर्म ही वो चीज़ है जिसके इर्द-गिर्द जासूसी कहानी का ताना-बाना बुना जाता है लेकिन इब्ने सफी जासूसी कहानी के बहाने समाज की जेहनी परवरिश भी करते चलते हैं. वो खुद एक जगह लिखते हैं- 'मैं सोचता... सोचता रहा. आखिरकार इस नतीजे पर पहुंचा कि आदमी में जब तक कानून को स्वीकार करने का सलीका नहीं पैदा होगा, यही सब कुछ होता रहेगा. यह मेरा मिशन है कि आदमी कानून का एहतेराम करना सीखे और जासूसी नॉवेल की राह मैंने इसीलिए चुनी थी. थके हारे लोगों का मनोरंजन भी करता हूं और उन्हें कानून को स्वीकार करना भी सिखाता हूं.'
उपन्यास ऐसे बिकते थे जैसे राशन की दुकान पर शक्कर
ब्लिट्ज (उर्दू संस्करण) के संपादक और मशहूर शायर ‘हसन कमाल’ अपने बचपन के लखनऊ में बिताए दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि 'जिस दिन इब्ने सफी का नोवेल दुकान पर आने वाला होता था, घंटों पहले से दुकान के सामने लाइन लग जाती थी. उनके उपन्यास ऐसे बिकते थे जैसे राशन की दुकान पर शक्कर.'
आज के समय में उपन्यास लेखन पर (खासतौर पर हिंदी में), एक प्रश्न-चिन्ह लगा हुआ है. लेकिन लोकप्रिय मनोरंजन की अगर बात की जाए तो ‘पल्प-फिक्शन’ यानी लुगदी साहित्य में जो कुछ हमारे सामने है उसमें चालू, बाजारू, या फुटपाथिया कहे जाने वाले उपन्यासों की भरमार है. ऐसे में इब्ने सफी के उपन्यासों के किरदार, उनका नैतिक आचरण, दिलकश साहित्यिक भाषा और कथानक में पाठकों को बांधे रखने की अद्भुत क्षमता सिर्फ उन्हीं के दिमाग की उपज थी.
ज़ाहिर है कि जुर्म ही वो चीज़ है जिसके इर्द-गिर्द जासूसी कहानी का ताना-बाना बुना जाता है लेकिन इब्ने सफी जासूसी कहानी के बहाने समाज की जेहनी परवरिश भी करते चलते हैं. वो खुद एक जगह लिखते हैं- 'मैं सोचता... सोचता रहा. आखिरकार इस नतीजे पर पहुंचा कि आदमी में जब तक कानून को स्वीकार करने का सलीका नहीं पैदा होगा, यही सब कुछ होता रहेगा. यह मेरा मिशन है कि आदमी कानून का एहतेराम करना सीखे और जासूसी नॉवेल की राह मैंने इसीलिए चुनी थी. थके हारे लोगों का मनोरंजन भी करता हूं और उन्हें कानून को स्वीकार करना भी सिखाता हूं.'
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
