06-08-2020, 12:22 PM
(This post was last modified: 06-08-2020, 12:27 PM by neerathemall. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
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क्या आपने इब्ने सफी का उपन्यास ‘कुंए का राज’ पढ़ा है? इस कहानी में आपको कई दिलचस्प किरदार मिल जाएंगे. तारिक जिसकी आंखें खतरनाक थीं (कहानी के बीच में पता चलता है कि दरअसल वो सांप के जहर का नशा करता है), जिसके पास एक अजीबोगरीब नेवला था जो पल भर में बड़े से बड़े शहतीर काट कर फेंक देता था.
परवेज- एक चालीस साल का बच्चा जो घुटनों के बल चलता था, बोतल से दूध पीता था और नौकर उसे गोद में उठाए फिरते थे. वो इमारत जिसकी दीवारों से दरिंदे जानवरों की आवाजें आती थीं. वो कुआं जिससे अंगारों की बौछारें निकलती थीं. क्या कहा, आपने नहीं पढ़ा? तो हम ये कह सकते हैं की आपसे कुछ ऐसा छूट गया है जो बेशकीमती था.
लगभग तीन दशक में बिना दोहराए 126 उपन्यास लिखे
इब्ने सफी हर महीने एक नॉवेल लिखते थे. उनका पहला उपन्यास था ‘दिलेर मुजरिम’ जो साल 1952 में प्रकाशित हुआ. इसी साल उनके 10 और उपन्यास आए. 1952 से 1979 तक उन्होंने कुल 126 उपन्यास लिखे लेकिन अपने आपको कभी दोहराया नहीं. शुरूआती लेखन में उनके ऊपर अंग्रेजी नॉवेलों का असर रहा लेकिन जल्दी ही उनका कथानक पूरी तरह से हिंदुस्तानी परिवेश में रच और बस गया. फिर उपन्यास में उन्होंने ऐसे नायाब प्रयोग किये जो आज भी अनूठे हैं.
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ये लेखक इब्ने सफी का इसलिए हमेशा ऋणी रहेगा क्योंकि उसका ये निश्चित मानना है कि अगर जासूसी दुनिया पढ़ने के लिए उसमें दीवानगी न पैदा हुई होती तो उसका उर्दू सीखना नामुमकिन था. पहले बड़ी बहनों से जासूसी दुनिया को सुनना फिर हिज्जे लगा-लगाकर उन्हें अकेले में पढ़ना. ये तो लेखक को बहुत बाद में आभास हुआ कि किसी भाषा को तभी आत्मसात किया जा सकता है जब उस भाषा के सहारे आप अपनी कल्पनाओं में गोते लगाने लगें.
इब्ने सफी का नाम था असरार अहमद और इलाहाबाद जिले के नारा कस्बे में 26 जुलाई, 1928 को उनका जन्म हुआ था. उस जमाने में बीए पास करना एक उपलब्धि हुआ करती थी (उन्होंने आगरा विश्वविद्द्यालय से बीए पास किया) शायद इसीलिए वो हमेशा ‘इब्ने सफी बीए’ लिखा करते थे. हालांकि शुरुआती दिनों में उन्होंने ‘असरार नारवी’, ‘सनकी सोल्जर’ और ‘तुगरल फुरगान’ नाम से भी उर्दू पत्रिका निकहत के लिए लिखा जो इलाहाबाद से निकलती थी.
असरार अहमद यानी इब्ने सफी बाद में पकिस्तान चले गए लेकिन निकहत पब्लिकेशन से उनका अनुबंध बना रहा और उनके उपन्यास हिन्दुस्तानी पाठकों तक हर महीने पहुंचते रहे. ये उपन्यास मूलतः उर्दू में छपते थे जिनका हिंदी अनुवाद प्रेम प्रकाश करते थे. उन्होंने इब्ने सफी के जासूसों के नाम हिंदी पाठकों के लिए गढ़ लिए थे.
क्या आपने इब्ने सफी का उपन्यास ‘कुंए का राज’ पढ़ा है? इस कहानी में आपको कई दिलचस्प किरदार मिल जाएंगे. तारिक जिसकी आंखें खतरनाक थीं (कहानी के बीच में पता चलता है कि दरअसल वो सांप के जहर का नशा करता है), जिसके पास एक अजीबोगरीब नेवला था जो पल भर में बड़े से बड़े शहतीर काट कर फेंक देता था.
परवेज- एक चालीस साल का बच्चा जो घुटनों के बल चलता था, बोतल से दूध पीता था और नौकर उसे गोद में उठाए फिरते थे. वो इमारत जिसकी दीवारों से दरिंदे जानवरों की आवाजें आती थीं. वो कुआं जिससे अंगारों की बौछारें निकलती थीं. क्या कहा, आपने नहीं पढ़ा? तो हम ये कह सकते हैं की आपसे कुछ ऐसा छूट गया है जो बेशकीमती था.
लगभग तीन दशक में बिना दोहराए 126 उपन्यास लिखे
इब्ने सफी हर महीने एक नॉवेल लिखते थे. उनका पहला उपन्यास था ‘दिलेर मुजरिम’ जो साल 1952 में प्रकाशित हुआ. इसी साल उनके 10 और उपन्यास आए. 1952 से 1979 तक उन्होंने कुल 126 उपन्यास लिखे लेकिन अपने आपको कभी दोहराया नहीं. शुरूआती लेखन में उनके ऊपर अंग्रेजी नॉवेलों का असर रहा लेकिन जल्दी ही उनका कथानक पूरी तरह से हिंदुस्तानी परिवेश में रच और बस गया. फिर उपन्यास में उन्होंने ऐसे नायाब प्रयोग किये जो आज भी अनूठे हैं.
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ये लेखक इब्ने सफी का इसलिए हमेशा ऋणी रहेगा क्योंकि उसका ये निश्चित मानना है कि अगर जासूसी दुनिया पढ़ने के लिए उसमें दीवानगी न पैदा हुई होती तो उसका उर्दू सीखना नामुमकिन था. पहले बड़ी बहनों से जासूसी दुनिया को सुनना फिर हिज्जे लगा-लगाकर उन्हें अकेले में पढ़ना. ये तो लेखक को बहुत बाद में आभास हुआ कि किसी भाषा को तभी आत्मसात किया जा सकता है जब उस भाषा के सहारे आप अपनी कल्पनाओं में गोते लगाने लगें.
इब्ने सफी का नाम था असरार अहमद और इलाहाबाद जिले के नारा कस्बे में 26 जुलाई, 1928 को उनका जन्म हुआ था. उस जमाने में बीए पास करना एक उपलब्धि हुआ करती थी (उन्होंने आगरा विश्वविद्द्यालय से बीए पास किया) शायद इसीलिए वो हमेशा ‘इब्ने सफी बीए’ लिखा करते थे. हालांकि शुरुआती दिनों में उन्होंने ‘असरार नारवी’, ‘सनकी सोल्जर’ और ‘तुगरल फुरगान’ नाम से भी उर्दू पत्रिका निकहत के लिए लिखा जो इलाहाबाद से निकलती थी.
असरार अहमद यानी इब्ने सफी बाद में पकिस्तान चले गए लेकिन निकहत पब्लिकेशन से उनका अनुबंध बना रहा और उनके उपन्यास हिन्दुस्तानी पाठकों तक हर महीने पहुंचते रहे. ये उपन्यास मूलतः उर्दू में छपते थे जिनका हिंदी अनुवाद प्रेम प्रकाश करते थे. उन्होंने इब्ने सफी के जासूसों के नाम हिंदी पाठकों के लिए गढ़ लिए थे.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
