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Adultery पत्नी एक्सचेंज
#13
काश मैं द्वन्द्वहीन होकर इस आनन्द का भोग करती। मन में पीढ़ियों से जमे संस्कार मानते कहाँ हैं। बस एक ही बात का दिलासा था कि संजय भी संभवत: इसी तरह आनंदमग्न होंगे। इस बार विनय के बड़े हाथों को अपने नग्न स्तनों पर महसूस किया। पूर्व की अपेक्षा यह कितना आनन्ददायी था। उनके हाथ में मेरा उरोज मनोनुकूल आकारों में ढल रहा था। वे उन्हें कुम्हार की मिट्टी की तरह गूंथ रहे थे। मेरे चूचुक सख्त हो गए थे और उनकी हथेली में चुभ रहे थे।

होंठ, ठुड्डी, गले के पर्दे, कंधे, कॉलर बोन… उनके होंठों का गीला सफर मेरी संवेदनशील नोंकों के नजदीक आ रहा था। प्रत्याशा में दोनों चुंचुक बेहद सख्त हो गए थे। मैं शर्म से विनय का सिर पकड़ कर रोक रही थी हालाँकि मेरे चूचुक उनके मुँह की गर्माहट का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। उनके होंठ नोंकों से बचा-बचा कर अगल-बगल ही खेल रहे थे। लुका-छिपी का यह खेल मुझे अधीर कर रहा था।

एक, दो, तीन… उन्होंने एक तने चूचुक को जीभ से छेड़ा़… एक क्षण का इंतजार… और… हठात् एकदम से मुँह में ले लिया। आऽऽऽह … लाज की दीवार फाँद कर एक आनन्द की किलकारी मेरे मुँह से निकल ही गई। वे उन्हें हौले हौले चूस रहे थे – बच्चे की तरह। बारी बारी से उन्हें कभी चूसते, कभी चूमते, कभी होंठों के बीच दबा कर खींचते। कुछ क्षणों की हिचक के बाद मैं भी उनके सिर पर हाथ फिरा रही थी। यह संवेदन अनजाना नहीं था पर आज इसकी तीव्रता नई थी। मैं सुख की हिलोरों में झूल रही थी। निरंतर लज्जा का रोमांच उसमें सनसनी घोल रहा था। एक परपुरुष मेरी देह के अंतरंग रहस्यों से परिचित हो रहा था जो सामान्य स्थिति में शिष्टता के दायरे से बाहर होता। मेरी देह की कसमसाहट उन्हे आगे बढ़ने के लिए हरी झण्डी दिखा रही थीं। उनका दाहिना हाथ मेरे निचले उभार को सहला रहा था। … अगर मेरे पति मुझे इस अवस्थां में देखते तो? रोंगटे खड़े हो गए। लेकिन केवल शर्म से नहीं बल्कि उस आह्लादकारी उत्तेजना से भी जो अचानक अभी अभी मेरे पेड़ू से आई थी। विनय का दायाँ हाथ मेरे ‘त्रिभुज’ को मसलता होंठों के अंदर छिपी भगनासा को सहला गया था।

मेरी जाँघें कसी न रह पाईं। मेरी मौन अनुमति से उन्होंने उन्हें फैला दिया और मेरी इस ‘स्वीकृति’ का चुम्बन से स्वागत किया। उनकी उंगलियों ने नीचे उतरकर गर्म गीले होंठों का जायजा लिया। मैं महसूस कर रही थी अपने द्रव को अंदर से निकलते हुए। उनकी उंगली चिपचिपा रही थी। एक बार उस गीलेपन को उन्होंने ऊपर ‘फुलझड़ी’ में पोंछ भी दिया।

अब उनका मुंह स्तनों को छोड़ कर नीचे उतरा। थोड़ी देर के लिए नाभि पर ठहर कर उसमें जीभ से गुदगुदी की। उन्होंने एक हाथ से मेरे बाएँ पैर को उठाया और उसे घुटने से मोड़ दिया। अंदरूनी जाँघों को सहलाते हुए वे बीच के होठों पर ठहर गये। दोनों उंगलियों से होठों को फैला दिया।

“हे भगवान!” मैंने सोचा, “संजय के पश्चात यह पहला व्यक्ति है जो मुझे इस तरह देख रहा है।” मुझे खुद पर शर्म आई। वे उंगलियों से होठों को छेड़ रहे थे जिस से मैं मचल रही थी। एक उंगली मेरे अंदर डूब गई। मेरी पीठ अकड़ी, पाँव फैले और नितम्ब हवा में उठने को हो गये। वे उंगली अंदर-बाहर करते रहे‌ – धीरे धीरे, नजाकत से, प्यार से, बीच-बीच में उसे वृत्ताकार सीधे-उलटे घुमाते। जब उनकी उंगली मेरी भगनासा सहलाती हुई गुजरी तो मेरी साँस निकल गई। मैं स्वयं को उस उंगली पर ठेलती रही ताकि उसे जितना ज्यादा हो सके अंदर ले सकूँ।

विनय ने वो उंगली बाहर निकाली और मुझे देखते हुए उसे धीरे-धीरे मुँह में डालकर चूस लिया। मैं शरम से गड़ गई। वे भी शर्माए हुए मुझे देख रहे थे। ऊन्होंने जीभ निकालकर अपने होंठों को चाट भी लिया। क्या योनि का द्रव इतना स्वादिष्ट होता है? मेरी गीली फाँक पर ठंडी हवा का स्पर्श महसूस हो रहा था। मैंने पुनः पैर सटा लिये। उन्होंने ठेलते हुए फिर दोनों पैरों को मोड़ कर फैला दिया। मैंने विरोध नहीं के बराबर किया। वे मेरी जांघों के बीच आ गए। जैसे जैसे वे मुझे विवश करते जा रहे थे मैं हारने के आनन्द से भरती जा रही थी।

लक्ष्य अब उनके सामने खुला था। ठंड लग रही योनि को विनय के गर्म होंठों का इंतजार था। भौंरा फूल के ऊपर मँडरा रहा था। वे झुके और ‘फुलझड़ी’ से उनकी साँस टकराई। मैं उत्कंठा से भर गई। अब उस स्वर्गिक स्पर्श का साक्षात्कार होने ही वाला था। आँखों की झिरी से देखा…. वे कैसी तो एक दुष्ट मुस्कान के साथ उसे देख रहे थे… वे झुके… और…. मैंने चुम्बनों की एक श्रृंखला ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर गुजरते महसूस की। मैंने किसी तरह अपने को ढीला किया मगर जब जीभ की नोक अंदर घुसी तो मैंने बिस्तर की चादर मुट्ठियों में भींच ली।

वे देख रहे थे कि मैं कितने तनाव में हूँ। मैं इतनी जोर-जोर कराह रही थी और नितंब उठा रही थी कि मुझे चाटने में उन्हें खासी मुश्किल हो रही होगी। अब उन्होंने मेरी जाँघों को अपनी शक्तिशाली बाहों की गिरफ्त में ले लिया। वे मेरी दरार में धीरे धीरे जीभ चलाते रहे। उनके फिसलते हुए होंठ कटाव के अंदर कोमल भाग में उतरे और भगनासा को गिरफ्तार कर लिया। मैं बिस्तर पर उछल गई। पर वे मेरे नितम्बों को जकड़ कर होंठों को अंदर गड़ाए रहे। इस एकबारगी हमले ने मेरी जान निकाल दी।

अंदर उनकी जीभ तेजी से अंदर-बाहर हो रही थी। यह एक नया तूफानी अनुभव था। मैं साँस भी ले नहीं पा रही थी। उनकी नाक मेरी भगनासा को रगड़ रही थी। ठुड्डी के रूखे बाल गुदा के आसपास गड़ रहे थे, जीभ योनि के अंदर लपलपा रही थी… ओ माँ… ओ माँ… ओ माँ… मैं मूर्छित हो गई। कुछ क्षण के लिये लगा मेरी साँस बंद हो गई है। वे रुक गये… मेरे लिये यह एक अद्भुत अनुभव था। मुझे उनके मुँह में स्खलित होना बहुत अच्छा लगा।

… वे अचानक उठे और चड्ढी को सामने से थामे तेजी से बाथरूम की ओर लपके। मैं समझ गई कि उत्तेजना ने उनकी भी छुट्टी कर दी थी। मुझे अपने ऊपर गर्व हुआ कि मैंने विनय जैसे परिष्कृत पुरुष को बिना कुछ किये ही स्खलित कर दिया। मैं आंख मूँद कर चरमोत्कर्ष-पश्चात के सुखद एहसास का आनन्द ले रही थी।

मुझे उनके लौटने का आभास तब हुआ जब उन्होंने मेरे संतुष्ट चेहरे को प्यार से चूमा। वे मेरे हाथ, पाँव, बाँहें, कंधे, पेट सहला रहे थे। एक संक्षिप्त सी मालिश ही शुरू कर दी उन्होंने। मेरी आँखें फिर मुंद गयीं। संजय…! मुझे मेरे पति का ख्याल आया …! क्या कर रहे होंगे वे? क्या उनके बिस्तर पर भी विद्या ऐसे ही निढाल पड़ी होगी? क्या वे उसे ऐसे ही प्यार कर रहे होंगे? मैंने अपने दिल को टटोला कि कहीं मुझे ईर्ष्या तो नहीं हो रही थी? लेकिन ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ!

आँखें खोली तो पाया विनय मुझे ही देख रहे थे – मेरे सिरहाने बैठे। मैंने शर्मा कर पुन: आँखें मूँद लीं। उन्होंने झुक कर मुझे चू्मा – लगा जैसे यह मेरे सफल स्खलन का पुरस्कार हो। मैंने उस चुम्बन को दिल के अंदर उतार लिया।

मैंने आंखें खोलीं। तौलिया सामने से थोडा खुला हुआ था। नजर एकदम से अंदर गई। शिथिल लिंग की अस्पष्ट झलक … “सात इंच … पूरा अंदर तक मार करेगा” … संजय की बात कान में गूँज गई। अभी सिकुड़ी अवस्था में कैसा लग रहा था वो? बच्चे सा – मानो कोई गलती कर के सजा के इंतजार में सिर झुकाए हुए हो … गलती तो उसने की ही थी – काम करने से पहले ही झड़ गया था। अच्छा भी लगा। दो बार चरमोत्कर्ष के बाद मैं थकी हुई थी। स्तऩ, चुंचुक, भगनासा आदि इतने संवेदनशील हो गए थे कि उनको छूना भी पीड़ाजनक था।

संजय की बात फिर मन में घूम गई, “पूरा अंदर तक मार करेगा!” हुँह …! पुरुषों का घमंड …! जैसे स्त्री लिंग की दया पर निर्भर हो! एक क्षण को लगा कि योनि-प्रवेश के समय उनका लिंग न उठ पाए तो मैं उनकी लज्जित-चिंतित अवस्‍था पर दया करूँ।

ओह …! कहाँ तो परपुरुष के स्पर्श की कल्पना भी भयावह लगती थी, कहाँ मैं उसके लिंग के बारे में सोच रही थी। किस अवस्था में पहुँच गई थी मैं!

उन्होंने कटोरी उठाई।

“क्या है?”
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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RE: पत्नी एक्सचेंज - by neerathemall - 05-08-2020, 02:42 PM
REमेरी सहेली - by neerathemall - 21-08-2020, 02:25 PM



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