05-08-2020, 02:40 PM
शयनकक्ष के दरवाजे पर फिर एक भय और सिहरन… पर कमर में लिपटी विनय की बाँह मुझे आग्रह से ठेलती अंदर ले आई। मेरी पायल की छन-छन मेरी चेतना पर तबले की तरह चोट कर रही थी। पाँव के नीचे नर्म गलीचे के स्पर्श ने मुझे होश दिलाया कि मैं कहाँ और किसलिए थी। मैं पलंग के सामने थी। पैंताने की तरफ दीवार पर बड़ा-सा आइना कमरे को प्रतिबिम्बि्त कर रहा था। रोमांटिक वतावरण था। दीवारों पर की अर्द्धनगन स्त्री छवियाँ मानो मुझे अपने में मिलने के लिए बुला रही थीं।
मैंने अपने पैरों के पीछे पैरों का स्पर्श महसूस किया … मैं पीछे घूमी। विनय के होंठ सीधे मेरे होंठों के आगे आ गए। बचने के लिए मैं पीछे झुकी लेकिन पीछे मेरे पैर पलंग से सट गए। उनके होंठ स्वत: मुझसे जुड़ गए। जब उनके होंठ अलग हुए तो मैंने देखा दरवाजा खुला था और संजय-विद्या के पाँव नजर आ रहे थे। शायद वे दोनों भी एक-दूसरे को चूम रहे थे। क्या संजय भी चुंबन में डूब गए होंगे? क्या विद्या मेरी तरह विनय के बारे में सोच रही होगी? पता नहीं। मैंने उनकी तरफ से ख्याल हटा लिया।
विनय पुन: चुंबन के लिए झुके। इस बार मन से संकोच को परे ठेलते हुए मैंने उसे स्वीकार कर लिया। एक लम्बा और भावपूर्ण चुंबन। मैंने खुद को उसमें डूबने दिया। उनके होंठ मेरे होंठों और अगल बगल को रगड़ रहे थे। उनकी जीभ मेरे मुँह के अंदर उतरी। मैंने अपनी जीभ से उसे टटोल कर उत्तर दिया। मेरी साँसें तेज हो गईं।
पतले कपड़े के ऊपर उनके हाथों का स्पर्श बहुत साफ महसूस हो रहा था। जब वे स्तनों पर उतरे तो मैं सब कुछ भूल जाने को विवश हो गई। मैंने उन्हें अपनी बाँहों से रोकना चाहा लेकिन मुझे प्राप्त हो रहा अनुभव इतना सुखद था कि बाँहें शीघ्र शिथिल हो गईं। ब्रा के अंदर चूचुक मुड़ मुड़ कर रगड़ खा रहे थे। मेरे स्तन हमेशा से संवेदनशील रहे हैं और उनको थोड़ा सा भी छेडना मुझे उत्तेजित कर देता है। मेरे स्तन विद्या से बड़े थे और विनय के बड़े हाथों में निश्चय ही वह अधिक मांसलता से समा रहे होंगे। मुझे अपने बेहतर होने की खुशी हुई। मुझे भी उनकी संजय से बड़ी हथेलियाँ बहुत आनन्दित कर रही थीं। उनमें रुखाई नहीं थी – कोमलता के साथ एक आग्रह, मीठी-सी नहीं हटने की जिद।
मुझे लगा रात भर रुकने का निर्णय शायद गलत नहीं था। मन में ‘यह सब अच्छा नहीं है’ की जो कुछ भी चुभन थी वह कमजोर पड़ती जा रही था। मुझे याद आया कि हम चारों एक साथ बस एक दोस्ताना मुलाकात करने वाले थे। लेकिन मामला बहुत आगे बढ़ गया था। अब वापसी भला क्या होनी थी। मैंने चिंता छोड़ दी, जब इसमें हूँ तो एंजॉय करूँ।
विनय धीरे-धीरे पलंग पर मेरे साथ लंबे हो गए थे। वे मेरे होंठों को चूसते-चूसते उतर कर गले, गर्दन, कंधे पर चले आते लेकिन अंत में फिर जा कर होंठों पर जम जाते। उनका भावावेग देखकर मन गर्व और आनंद से भर रहा था। लग रहा था सही व्यक्ति के हाथ पड़ी हूँ। लेकिन औरत की जन्मजात लज्जा कहाँ छूटती है। जब वे मेरे स्तनों को छोड़ कर नीचे की ओर बढ़े तो मन सहम ही गया।
मैंने अपने पैरों के पीछे पैरों का स्पर्श महसूस किया … मैं पीछे घूमी। विनय के होंठ सीधे मेरे होंठों के आगे आ गए। बचने के लिए मैं पीछे झुकी लेकिन पीछे मेरे पैर पलंग से सट गए। उनके होंठ स्वत: मुझसे जुड़ गए। जब उनके होंठ अलग हुए तो मैंने देखा दरवाजा खुला था और संजय-विद्या के पाँव नजर आ रहे थे। शायद वे दोनों भी एक-दूसरे को चूम रहे थे। क्या संजय भी चुंबन में डूब गए होंगे? क्या विद्या मेरी तरह विनय के बारे में सोच रही होगी? पता नहीं। मैंने उनकी तरफ से ख्याल हटा लिया।
विनय पुन: चुंबन के लिए झुके। इस बार मन से संकोच को परे ठेलते हुए मैंने उसे स्वीकार कर लिया। एक लम्बा और भावपूर्ण चुंबन। मैंने खुद को उसमें डूबने दिया। उनके होंठ मेरे होंठों और अगल बगल को रगड़ रहे थे। उनकी जीभ मेरे मुँह के अंदर उतरी। मैंने अपनी जीभ से उसे टटोल कर उत्तर दिया। मेरी साँसें तेज हो गईं।
पतले कपड़े के ऊपर उनके हाथों का स्पर्श बहुत साफ महसूस हो रहा था। जब वे स्तनों पर उतरे तो मैं सब कुछ भूल जाने को विवश हो गई। मैंने उन्हें अपनी बाँहों से रोकना चाहा लेकिन मुझे प्राप्त हो रहा अनुभव इतना सुखद था कि बाँहें शीघ्र शिथिल हो गईं। ब्रा के अंदर चूचुक मुड़ मुड़ कर रगड़ खा रहे थे। मेरे स्तन हमेशा से संवेदनशील रहे हैं और उनको थोड़ा सा भी छेडना मुझे उत्तेजित कर देता है। मेरे स्तन विद्या से बड़े थे और विनय के बड़े हाथों में निश्चय ही वह अधिक मांसलता से समा रहे होंगे। मुझे अपने बेहतर होने की खुशी हुई। मुझे भी उनकी संजय से बड़ी हथेलियाँ बहुत आनन्दित कर रही थीं। उनमें रुखाई नहीं थी – कोमलता के साथ एक आग्रह, मीठी-सी नहीं हटने की जिद।
मुझे लगा रात भर रुकने का निर्णय शायद गलत नहीं था। मन में ‘यह सब अच्छा नहीं है’ की जो कुछ भी चुभन थी वह कमजोर पड़ती जा रही था। मुझे याद आया कि हम चारों एक साथ बस एक दोस्ताना मुलाकात करने वाले थे। लेकिन मामला बहुत आगे बढ़ गया था। अब वापसी भला क्या होनी थी। मैंने चिंता छोड़ दी, जब इसमें हूँ तो एंजॉय करूँ।
विनय धीरे-धीरे पलंग पर मेरे साथ लंबे हो गए थे। वे मेरे होंठों को चूसते-चूसते उतर कर गले, गर्दन, कंधे पर चले आते लेकिन अंत में फिर जा कर होंठों पर जम जाते। उनका भावावेग देखकर मन गर्व और आनंद से भर रहा था। लग रहा था सही व्यक्ति के हाथ पड़ी हूँ। लेकिन औरत की जन्मजात लज्जा कहाँ छूटती है। जब वे मेरे स्तनों को छोड़ कर नीचे की ओर बढ़े तो मन सहम ही गया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
