05-08-2020, 02:39 PM
यह सब फुसलाने वाली बातें थीं, मु्झे किसी तरह तैयार कर लेने की। मुझे यह बात ही बरदाश्त से बाहर लगती थी। मैं सोच ही नहीं सकती कि कोई गैर मर्द मेरे शरीर को हाथ भी लगाए। वे औरतें और होंगी जो इधर उधर मुँह मारती हैं।
पर बड़ी से बड़ी बात सुनते-सुनते सहने योग्य हो जाती है। मैं अनिच्छा से सुन लेती थी। साफ तौर पर झगड़ नहीं पाती थी, ये इतना साफ तौर पर दबाव डालते ही नहीं थे। बस बीच-बीच में उसकी चर्चा छेड़ देना। उसमें आदेश नहीं रहता कि तुम ऐसा करो, बस ‘ऐसा हो सकता है’, ‘कोई जिद नहीं है, बस सोचकर देखो’, ‘बात ऐसी नही वैसी है’, वगैरह वगैरह। मैं देखती कि उच्च शिक्षित आदमी कैसे अपनी बुद्धि से भरमाने वाले तर्क गढ़ता है।
अपनी बातों को तर्क का आधार देते, “पति-पत्नी में कितना भी प्रेम हो, एक ही आदमी के साथ सेक्स धीरे धीरे एकरस हो ही जाता है। कितना भी प्रयोग कर ले, उसमें से रोमांच घट ही जाता है। ऐसा नहीं कि तुम मुझे नहीं अच्छी लगती हो या मैं तुम्हें अच्छां नहीं लगता। जरूर, बहुत अच्छे लगते हैं पर …”
“पर क्या ?” मन में सोचती कि सेक्सं अच्छा नहीं लगता तो क्या, दूसरे के पास चले जाएँगे? पर उस विनम्र आदमी की शालीनता मुझे भी मुखर होने से रोकती।
“कुछ नहीं…” अपने सामने दबते देखकर मुझे ढांढस मिलता, गर्व होता कि कि मेरा नैतिक पक्ष मजबूत है, मेरे अहम् को खुशी भी मिलती। पर औरत का दिल…. उन पर दया भी आती। अंदर से कितने परेशान हैं !
पुरुष ताकतवर है, तरह तरह से दबाव बनाता है। याचक बनना भी उनमें एक है। यही प्रस्तांव अगर मैं लेकर आती तो? कि मैं तुम्हाेरे साथ सोते सोते बोर हो गई हूँ, अब किसी दूसरे के साथ सोना चाहती हूँ, तो?
दिन, हफ्ते, महीने, वर्ष गुजरते गए। कभी-कभी बहुत दिनों तक उसकी बात नहीं करते। तसल्ली होने लगती कि ये सुधर गए हैं। लेकिन जल्दी ही भ्रम टूट जाता। धीरे-धीरे यह बात हमारी रतिक्रिया के प्रसंगों में रिसने लगी। मुझे चूमते हुए कहते, सोचो कि कोई दूसरा चूम रहा है। मेरे स्तनों, योनिप्रदेश से खेलते मुझे दूसरे पुरुष का ख्याल कराते। उस विनय नामक किसी दूसरी के पति का नाम लेते, जिससे इनका चिट्ठी संदेश वगैरह का लेना देना चल रहा था। अब उत्तेाजना तो हो ही जाती है, भले ही बुरा लगता हो। मैं डाँटती, उनसे बदन छुड़ा लेती, पर अंतत: उत्तेजना मुझे जीत लेती। बुरा लगता कि शरीर से इतनी लाचार क्यों हो जाती हूँ। कभी कभी उनकी बातों पर विश्वांस करने का जी करता। सचमुच इसमें कहाँ धोखा है। सब कुछ तो एक-दूसरे के सामने खुला है। और यह अकेले अकेले लेने का स्वार्थी सुख तो नहीं है, इसमें तो दोनों को सुख लेना है। पर दाम्पत्यव जीवन की पारस्पतरिक निष्ठा् इसमें कहाँ है? तर्क-वितर्क, परम्परा से मिले संस्कारों, सुख की लालसा, वर्जित को करने का रोमांच, कितने ही तरह के स्त्री -मन के भय, गृहस्थीे की आशंकाएँ आदि के बीच मैं डोलती रहती।
पता नहीं कब कैसे मेरे मन में ये अपनी इच्छा का बीज बोने में सफल हो गए। पता नहीं कब कैसे यह बात स्वीकार्य लगने लगी। बस एक ही इच्छाा समझ में आती। मुझे इनको सुखी देखना है। ये बार बार विवशता प्रकट करते, “अब क्या करूँ, मेरा मन ही ऐसा है। मैं औरों से अलग हूँ पर बेइमान या धोखेबाज नहीं। और मैं इसे गलत मान भी नहीं पाता। यह चीज हमारे बीच प्रेम को और बढ़ाएगी।!”
एक बार इन्होंने बढ़कर कह ही दिया, “मैं तुम्हें किसी दूसरे पुरुष की बाहों में कराहता, सिसकारियाँ भरता देखूँ तो मुझसे बढ़कर सुखी कौन होगा?”
मैं रूठने लगी। इन्होंने मजाक किया, ”मैं बतलाता हूँ कौन ज्यांदा सुखी होगा! वो होगी तुम!”
“जाओ…!” मैंने गुस्से में भरकर इनकी बाँहों को छुड़ाने के लिए जोर लगा दिया। पर इन्हों ने मुझे जकड़े रखा। इनका लिंग मेरी योनि के आसपास ही घूम रहा था, उसे इन्हों ने अंदर भेजते हुए कहा, “मेरा तो पाँच ही इंच का है, उसका तो पूरा …” मैंने उनके मुँह पर मुँह जमा कर बोलने से रोकना चाहा पर… “… सात इंच का है” कहते हुए वे आवेश में आ गए। धक्केँ पर धक्के लगाते उन्होंने जोड़ा, “… पूरा अंदर तक मार करेगा!” और फिर वे अंधाधुंध धक्के लगाते हुए स्खलित हो गए। मैं इनके इस हमले से बौरा गई। जैसे तेज नशे वाली कोई गैस दिमाग में घुसी और मुझे बेकाबू कर गई।
पर बड़ी से बड़ी बात सुनते-सुनते सहने योग्य हो जाती है। मैं अनिच्छा से सुन लेती थी। साफ तौर पर झगड़ नहीं पाती थी, ये इतना साफ तौर पर दबाव डालते ही नहीं थे। बस बीच-बीच में उसकी चर्चा छेड़ देना। उसमें आदेश नहीं रहता कि तुम ऐसा करो, बस ‘ऐसा हो सकता है’, ‘कोई जिद नहीं है, बस सोचकर देखो’, ‘बात ऐसी नही वैसी है’, वगैरह वगैरह। मैं देखती कि उच्च शिक्षित आदमी कैसे अपनी बुद्धि से भरमाने वाले तर्क गढ़ता है।
अपनी बातों को तर्क का आधार देते, “पति-पत्नी में कितना भी प्रेम हो, एक ही आदमी के साथ सेक्स धीरे धीरे एकरस हो ही जाता है। कितना भी प्रयोग कर ले, उसमें से रोमांच घट ही जाता है। ऐसा नहीं कि तुम मुझे नहीं अच्छी लगती हो या मैं तुम्हें अच्छां नहीं लगता। जरूर, बहुत अच्छे लगते हैं पर …”
“पर क्या ?” मन में सोचती कि सेक्सं अच्छा नहीं लगता तो क्या, दूसरे के पास चले जाएँगे? पर उस विनम्र आदमी की शालीनता मुझे भी मुखर होने से रोकती।
“कुछ नहीं…” अपने सामने दबते देखकर मुझे ढांढस मिलता, गर्व होता कि कि मेरा नैतिक पक्ष मजबूत है, मेरे अहम् को खुशी भी मिलती। पर औरत का दिल…. उन पर दया भी आती। अंदर से कितने परेशान हैं !
पुरुष ताकतवर है, तरह तरह से दबाव बनाता है। याचक बनना भी उनमें एक है। यही प्रस्तांव अगर मैं लेकर आती तो? कि मैं तुम्हाेरे साथ सोते सोते बोर हो गई हूँ, अब किसी दूसरे के साथ सोना चाहती हूँ, तो?
दिन, हफ्ते, महीने, वर्ष गुजरते गए। कभी-कभी बहुत दिनों तक उसकी बात नहीं करते। तसल्ली होने लगती कि ये सुधर गए हैं। लेकिन जल्दी ही भ्रम टूट जाता। धीरे-धीरे यह बात हमारी रतिक्रिया के प्रसंगों में रिसने लगी। मुझे चूमते हुए कहते, सोचो कि कोई दूसरा चूम रहा है। मेरे स्तनों, योनिप्रदेश से खेलते मुझे दूसरे पुरुष का ख्याल कराते। उस विनय नामक किसी दूसरी के पति का नाम लेते, जिससे इनका चिट्ठी संदेश वगैरह का लेना देना चल रहा था। अब उत्तेाजना तो हो ही जाती है, भले ही बुरा लगता हो। मैं डाँटती, उनसे बदन छुड़ा लेती, पर अंतत: उत्तेजना मुझे जीत लेती। बुरा लगता कि शरीर से इतनी लाचार क्यों हो जाती हूँ। कभी कभी उनकी बातों पर विश्वांस करने का जी करता। सचमुच इसमें कहाँ धोखा है। सब कुछ तो एक-दूसरे के सामने खुला है। और यह अकेले अकेले लेने का स्वार्थी सुख तो नहीं है, इसमें तो दोनों को सुख लेना है। पर दाम्पत्यव जीवन की पारस्पतरिक निष्ठा् इसमें कहाँ है? तर्क-वितर्क, परम्परा से मिले संस्कारों, सुख की लालसा, वर्जित को करने का रोमांच, कितने ही तरह के स्त्री -मन के भय, गृहस्थीे की आशंकाएँ आदि के बीच मैं डोलती रहती।
पता नहीं कब कैसे मेरे मन में ये अपनी इच्छा का बीज बोने में सफल हो गए। पता नहीं कब कैसे यह बात स्वीकार्य लगने लगी। बस एक ही इच्छाा समझ में आती। मुझे इनको सुखी देखना है। ये बार बार विवशता प्रकट करते, “अब क्या करूँ, मेरा मन ही ऐसा है। मैं औरों से अलग हूँ पर बेइमान या धोखेबाज नहीं। और मैं इसे गलत मान भी नहीं पाता। यह चीज हमारे बीच प्रेम को और बढ़ाएगी।!”
एक बार इन्होंने बढ़कर कह ही दिया, “मैं तुम्हें किसी दूसरे पुरुष की बाहों में कराहता, सिसकारियाँ भरता देखूँ तो मुझसे बढ़कर सुखी कौन होगा?”
मैं रूठने लगी। इन्होंने मजाक किया, ”मैं बतलाता हूँ कौन ज्यांदा सुखी होगा! वो होगी तुम!”
“जाओ…!” मैंने गुस्से में भरकर इनकी बाँहों को छुड़ाने के लिए जोर लगा दिया। पर इन्हों ने मुझे जकड़े रखा। इनका लिंग मेरी योनि के आसपास ही घूम रहा था, उसे इन्हों ने अंदर भेजते हुए कहा, “मेरा तो पाँच ही इंच का है, उसका तो पूरा …” मैंने उनके मुँह पर मुँह जमा कर बोलने से रोकना चाहा पर… “… सात इंच का है” कहते हुए वे आवेश में आ गए। धक्केँ पर धक्के लगाते उन्होंने जोड़ा, “… पूरा अंदर तक मार करेगा!” और फिर वे अंधाधुंध धक्के लगाते हुए स्खलित हो गए। मैं इनके इस हमले से बौरा गई। जैसे तेज नशे वाली कोई गैस दिमाग में घुसी और मुझे बेकाबू कर गई।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.