05-08-2020, 02:39 PM
एक और शंका दिमाग में उठती – ईमेल का प्रिंट लेने और उसे घर लेकर आने की क्या जरूरत थी। वो तो ऐसे ही गुप्त और सुरक्षित रहता? कहीं इन्होंने जानबूझकर तो ऐसा नहीं किया? कि मुझे उनके इरादे का पता चल जाए और उन्हें मुझ से कहना नहीं पड़े? जितना सोचती उतना ही लगता कि यही सच है। ओह, कैसी चतुराई थी!!
“तुम क्या चाहते हो?”, “मुझे तुमसे यह उम्मींद नहीं थी”, “मैं सोच भी नहीं सकती”, “तुम ऐसी मेरी इतनी वफादारी, दिल से किए गए प्या्र का यही सिला दे रहे हो?”, “तुमने इतना बड़ा धक्काै दिया है कि जिंदगी भर नहीं भूल पाऊँगी?” मेरे ऐसे तानों, शिकायतों को सुनते और झेलते ये एक ही स्पष्टीकरण देते, “मैं तुम्हें धोखा देने की सोच भी नहीं सकता। तुम मेरी जिंदगी हो। अब क्या करूँ, मेरा मन ऐसा चाहता है। मैं छिप कर तो किसी औरत से संबंध नहीं बना रहा हूँ। मैं ऐसा चाहता ही नहीं। मैं तो तुम्हें चाहता हूँ।”
तिरस्काैर से मेरा मन भर जाता। प्यार और वफादारी का यह कैसा दावा है?
“जो करना हो वो मैं तुम्हें विश्वास में लेकर ही करना चाहता हूँ। तुम नहीं चाहती हो तो नहीं करूँगा।”
मैं जानती थी कि यह अंतिम बात सच नहीं थी। मैं तो नहीं ही चाहती थी, फिर ये यह काम क्योंं कर रहे थे?
“मेरी सारी कल्पना तुम्हींं में समाई हैं। तुम्हें छोड़कर मैं सोच भी नहीं पाता। यह धोखा नहीं है, तुम सोच कर देखो। छुप कर करता तो धोखा होता। मैं तो तुमको साथ लेकर चलना चाहता हूँ। आपस के विश्वास से हम कुछ भी कर सकते हैं। हम संस्कारों से बहुत बंधे होते हैं, इसीलिए खुले मन से देख नहीं पाते। गौर से सोचो तो यह एक बहुत बड़े विश्वास की बात भी हो सकती है कि दूसरा पुरुष तुम्हें एंजाय करे और मुझे तुम्हें खोने का डर नहीं हो। पति-पत्नी अगर आपस में सहमत हों तो कुछ भी कर सकते हैं। अगर मुझे भरोसा न हो तो क्या मैं तुम्हें। किसी दूसरे के साथ देख सकता हूँ?”
“तुम क्या चाहते हो?”, “मुझे तुमसे यह उम्मींद नहीं थी”, “मैं सोच भी नहीं सकती”, “तुम ऐसी मेरी इतनी वफादारी, दिल से किए गए प्या्र का यही सिला दे रहे हो?”, “तुमने इतना बड़ा धक्काै दिया है कि जिंदगी भर नहीं भूल पाऊँगी?” मेरे ऐसे तानों, शिकायतों को सुनते और झेलते ये एक ही स्पष्टीकरण देते, “मैं तुम्हें धोखा देने की सोच भी नहीं सकता। तुम मेरी जिंदगी हो। अब क्या करूँ, मेरा मन ऐसा चाहता है। मैं छिप कर तो किसी औरत से संबंध नहीं बना रहा हूँ। मैं ऐसा चाहता ही नहीं। मैं तो तुम्हें चाहता हूँ।”
तिरस्काैर से मेरा मन भर जाता। प्यार और वफादारी का यह कैसा दावा है?
“जो करना हो वो मैं तुम्हें विश्वास में लेकर ही करना चाहता हूँ। तुम नहीं चाहती हो तो नहीं करूँगा।”
मैं जानती थी कि यह अंतिम बात सच नहीं थी। मैं तो नहीं ही चाहती थी, फिर ये यह काम क्योंं कर रहे थे?
“मेरी सारी कल्पना तुम्हींं में समाई हैं। तुम्हें छोड़कर मैं सोच भी नहीं पाता। यह धोखा नहीं है, तुम सोच कर देखो। छुप कर करता तो धोखा होता। मैं तो तुमको साथ लेकर चलना चाहता हूँ। आपस के विश्वास से हम कुछ भी कर सकते हैं। हम संस्कारों से बहुत बंधे होते हैं, इसीलिए खुले मन से देख नहीं पाते। गौर से सोचो तो यह एक बहुत बड़े विश्वास की बात भी हो सकती है कि दूसरा पुरुष तुम्हें एंजाय करे और मुझे तुम्हें खोने का डर नहीं हो। पति-पत्नी अगर आपस में सहमत हों तो कुछ भी कर सकते हैं। अगर मुझे भरोसा न हो तो क्या मैं तुम्हें। किसी दूसरे के साथ देख सकता हूँ?”
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
