05-03-2019, 02:21 AM
मैं अपने बारे में ज्यादा जानकारी नहीं दे सकता क्योंकि उससे मेरी व्यक्तिगत पहचान जाहिर हो सकती है, जो मैं किसी कीमत पर नहीं चाहता। बस थोड़ी बहुत जरूरी चीजें बताये दे रहा हूं कि उम्र में पचास पार हो चुका हूँ। केन्द्र सरकार के आधीन एक अधिकारी हूँ और दिल्ली में ही नियुक्त हूँ जो कि मेरा होमटाउन भी है। दिखने में न बहुत अच्छा ही कहा जा सकता हूँ और न ही खराब।
पुराने जमाने के अमीरों में से हूँ तो शानदार घर है और पहले तो काफी नौकर चाकर भी होते थे जब पूरा परिवार साथ होता था लेकिन मैंने एक जरूरी नौकर को छोड़ सभी को हटा दिया है, क्योंकि मैं अकेला हूँ.
एक खाना बनाने वाली है जो सुबह शाम आती है और खाना बना जाती है। बाकी साफ सफाई खेम सिंह देख लेता है जो शुरू से हमारे पास है। एक माली सप्ताह में एक बार आता है और लॉन आदि में रखे पौधों की देखभाल कर जाता है।
अब आते हैं इस मुद्दे पर कि मैं अकेला क्यों हूँ… दो साल पीछे तक इसी घर में पत्नी वीणा भी रहती थी और बेटा बेटी आर्यन और सोनिया भी। फिर कुछ ऐसा हुआ कि सब बिखर गया। यह सब बताने की नौबत भी इसलिये आई कि मैं किसी को कभी वह सब बातें बता ही नहीं पाया … आखिर मर्द था, और कदम कदम पे हार थी तो कहता भी किससे? यहां पहचान छुपा कर कह सकता हूँ तो मन का बोझ हल्का कर रहा हूं।
संसार में तरह-तरह के लोग हैं और ज्यादातर एक मर्द या एक औरत के रूप में संपूर्ण ही हैं लेकिन सभी संपूर्ण नहीं हैं। कुछ में कमियां भी रह जाती हैं … यह हार्मोनल असंतुलन के कारण होता है। जिसे साधारण पैमाने पर कहा जाये तो यूँ समझिये कि संभोग के लिये लगभग सभी योग्य होते हैं लेकिन मिजाजन कुछ पुरुष और स्त्री इस मामले में अति सक्रिय होते हैं, वहीं कुछ स्त्री पुरुष इस मामले में बेहद ठंडे होते हैं और इस ठंडेपन की शिकार ज्यादातर औरतें होती हैं, जिसका एक या मुख्य कारण शायद सामाजिक पालन पोषण होता हो… लेकिन कुछ पुरुष भी उसी तरह ठंडे स्वभाव के होते हैं, भले उनकी संख्या बेहद कम हो।
दुर्भाग्य से ऐसा ही एक पुरुष मैं हूँ। पच्चीस की उम्र में मेरी वीणा से शादी हुई थी, उससे पहले इस चीज की तरफ तो मेरा कभी ध्यान ही नहीं गया था। ऐसा नहीं था कि मुझमें कोई शारीरिक कमी थी। भरपूर मर्दाना बदन था, लिंग भी सामान्य पुरुष की तरह उत्तेजित और स्तंभन के पश्चात स्खलित होता था। किसी किस्म का कोई समलैंगिक आकर्षण भी नहीं था। बस सेक्सुअल हार्मोन्स अति सक्रिय नहीं थे बल्कि कहा जाये तो बहुत स्लो थे… सेक्स में मेरी दिलचस्पी बेहद कम थी।
कोई नारी शरीर मुझे उतना नहीं उत्तेजित करता था जितना बाकियों को। मैं साथी लड़कों के साथ मस्तराम वाला साहित्य भी पढ़ता था और ब्लू फिल्मों को भी देख लेता था लेकिन मैंने हमेशा महसूस किया कि उन्हें ले कर मुझमें वह रोमांच नहीं पैदा होता था जो बाकियों में होता था। वह सब मुझे उतना रूचिकर नहीं लगता था जितना साथ के दूसरे लड़कों को, या उस युवावस्था में लगना चाहिये था।
जबकि वीणा का स्वभाव बेहद उलट था… उसके सेक्सुअल हार्मोन्स आति सक्रिय थे; वह बेहद गर्म तबीयत की युवती थी। शादी के शुरुआती दौर में ऐसा लगता था जैसे उस पर चौबीस घंटे सेक्स का भूत सवार रहता हो। वह चाहती थी कि हम दिन रात सेक्स करें लेकिन मैं उस मिजाज का था ही नहीं। मैं बमुश्किल शुरु में दिन में एक बार और थोड़ा वक्त गुजरते ही हफ्ते में दो तीन बार तक ही कर पाता था।
यह उसके लिहाज से ऊंट के मुंह में जीरे जैसी स्थिति थी। शुरू में वह बर्दाश्त करती रही लेकिन फिर आगे चल कर यही अभाव चिड़चिड़ाहट में बदल गया और हममें इस बात को ले कर झगड़े होने लगे।
मेरे अंदर के मर्द को जगाने, उकसाने के लिये वह अपनी हास्टल लाईफ की कहानियाँ सुनाने लगी कि वह कितना और कैसे-कैसे सेक्स करती थी और एक मैं हूं। यह मेरे लिये शर्मिंदगी की बात थी कि मेरी पत्नी को इतने लोग पहले ही भोग चुके थे और मुझे इस बात पे गुस्सा आना चाहिये था लेकिन अपनी कमजोरी के चलते मैं वह गुस्सा भी पी जाता था। मैंने दवा इलाज करने की कोशिश की… उनका थोड़ा असर तो होता लेकिन अब इसके लिये जिंदगी भर भी दवायें तो नहीं खाई जा सकती थीं।
तो चार दिन की चांदनी होती और फिर अंधेरी रात वाली नौबत आ जाती।
इसी तरह लड़ते झगड़ते दो साल गुजर गये और उसने आर्यन और सोनिया के रूप में दो जुड़वां बच्चों को जन्म दिया। मैं खुश था कि इस बहाने उसका मिजाज बदलेगा। बच्चे दो काफी थे, मैंने अपना आप्रेशन भी करवा लिया।
अगले चार-पांच साल स्थिति थोड़ी सामान्य रही। एक साथ दो बच्चों की जिम्मेदारी में उलझे रहना ही उसे थका देता था और जितनी ऊर्जा फिर सेक्स के लिये बचती थी, उससे मैं निपट सकता था।
लेकिन जैसे ही बच्चे थोड़ा बड़े हुए, जिम्मेदारियाँ कम हुईं और उसे वक्त मिलने लगा… वह धीरे-धीरे फिर उसी आक्रामक रूप में आने लगी जिसे संभाल पाना एक मर्द के तौर पर मेरे बस से बाहर था।
मैंने जानबूझकर अपना तबादला दक्षिण भारत में करा लिया। मुझे अंदाजा था कि उसे साउथ का रहन सहन, खान पान पसंद नहीं था और वह शायद ही वहां जाना पसंद करे। वही हुआ… या शायद इसकी वजह मुझसे आजादी थी जो उसे चाहिये थी। मैं करीब बारह साल बाहर रहा और दो तीन महीने में हफ्ते भर के लिये घर आता था लेकिन उसे शिकायत नहीं होती थी।
क्यों नहीं होती थी, यह तब पता चला जब वापस मेरा तबादला दिल्ली हुआ।
उसने न सिर्फ उच्च सोसायटी में ही कई यार बना लिये थे बल्कि घर का ड्राइवर तक उसके काम आ रहा था। मुझे यह बातें इधर-उधर से पता चलीं थीं लेकिन मैंने पूछा तो उसने बड़ी आसानी से स्वीकार कर लिया। तब तक बच्चे बोर्डिंग के लायक हो चुके थे तो उन्हें देहरादून डाल दिया था और अब हम मियाँ बीवी अकेले ही रहते थे। मुझे लगा था कि वक्त के साथ उसकी भूख कमजोर पड़ जायेगी लेकिन यहां तो लक्षण उल्टे ही थे।
अब वह बेखौफ हो चुकी थी और मेरे होने की परवाह भी नहीं करती थी। मैंने भी उसकी परवाह करनी छोड़ दी थी। थोड़ा बच्चों में मन लगाने की कोशिश करता जो कभी कभार हम ले आते थे… अक्सर मैं ही उनके पास चला जाता था।
धीरे-धीरे बच्चों की बोर्डिंग की पढ़ाई पूरी हो गयी तो वे दिल्ली लौट आये। आगे वे इंग्लैंड जाना चाहते थे… मुझे एतराज नहीं था और उसे भी क्यों होता। उन्होंने अपनी कोशिशों से वहां एडमिशन ले लिया।
लेकिन उसी बीच वह घटना घट गयी… सभी घर पे थे लेकिन अचानक बेडरूम में छोटी सी बात से शुरू हुआ झगड़ा इतना विकराल हो गया कि सारा अतीत हम दोनों ने उधेड़ दिया। लड़ाई की आवाजें बाहर बच्चों ने भी सुनी थीं। झगड़े के बाद वह खुद कार ले कर बाहर निकल गयी … बच्चों ने रोकने की कोशिश की लेकिन उसके सर पर भूत सवार था।
और आधे घंटे बाद एक सिक्युरिटी वाले का फोन आया कि उसका एक्सीडेंट हो गया था और वह हास्पिटल में थी। हम दौड़ते भागते हास्पिटल पहुंचे तो वह जिंदा थी लेकिन हमारे देखते-देखते उसने दम तोड़ दिया।
हादसा हमारे लिये सदमे से कम नहीं था लेकिन इंसान उबरता ही है। बच्चे ज्यादातर मां के करीब होते हैं और फिर उन्होंने अक्सर ही मुझे बुजदिलों की तरह उससे दामन बचाते भी पाया था। भले वह सामने से न कहते हों लेकिन मुझे अहसास था कि वे माँ की मौत का जिम्मेदार मुझे ही समझते थे।
फिर वह वक्त भी आया जब वह आगे पढ़ाई के लिये इंग्लैंड चले गये और मैं अकेला रह गया उस बड़े से घर में। शायद यही मेरी नियति थी। मुझे नौकरों की जरूरत नहीं थी। खेम सिंह को छोड़ कर मैंने सबको विदा कर दिया. खाना बनाने के लिये एक उम्रदराज औरत रख ली जो सुबह शाम खाना बना जाये।
अब बच्चे वहीं रहते हैं; दो साल गुजर चुके; बस एक बार दस दिन के लिये आये थे। हां फोन पर नेट के माध्यम से जब तब बात हो जाती है।
मैं एक ठंडा और सेक्स में एक हद तक नाकाम पुरुष रहा हूँ, अब यह स्वीकारने में मुझे कोई संकोच नहीं और यही वजह थी कि इस बड़े से घर में मैं आज अकेला था। खेम सिंह घर की साफ सफाई के साथ मेरा ध्यान रखता था लेकिन उसका क्वार्टर बाहर था तो ज्यादातर वहीं रहता था।
यहां से मेरी सिंपल, बोरिंग जिंदगी में एक रोमांचक मोड़ आया। दरअसल मेरे एक साले यानि वीणा के भाई, जो कि बिहार के एक शहर में रहते थे… उनकी तरफ से एक बात आई थी कि उनकी बेटी वैदेही ने दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कालेज में एडमिशन लिया है और वह अब दिल्ली ही रहेगी। वे उसे किन्हीं कारणों से हास्टल में नहीं रखना चाहते थे तो उनकी राय थी कि मैं कोई ऐसा सुरक्षित ठिकाना देख दूं जहां वह घर की तरह ही रह कर पढ़ाई कर सके।
मेरी समझ में तो यही आया कि मेरा घर क्या बुरा था … मेरा अकेलापन भी कुछ हद तक दूर हो जायेगा और उसे भी भला क्या परेशानी होगी। उसका कालेज भी यहां से पास ही पड़ता। वे भी शायद यही कहना चाहते थे लेकिन डायरेक्ट कहने से हिचकिचा रहे थे। बहरहाल बात तय हो गयी तो अगले हफ्ते वैदेही को वे खुद आ कर मेरे पास छोड़ गये।
वह इक्कीस बाईस की वय की आकर्षक लड़की थी जो किसी भी युवा के लिये सहज आकर्षण की चीज हो सकती थी लेकिन मेरे मन में उसके लिये वैसी ही भावनायें थीं जैसे सोनिया के लिये हो सकती थीं। बहुत ज्यादा उसका अवलोकन करने की मुझे जरूरत न महसूस हुई और वह भी कम बोलने वाली लड़की ही साबित हुई। मेरे साथ वैसे ही सामान्य थी जैसे कोई बच्ची अपने फूफा जी के साथ हो सकती है।
बहरहाल, वह वहीं रहने लगी। उसके रहने से ऐसा भी नहीं था कि घर में बहुत हलचल होने लगी हो मगर शाम को जब ऑफिस से आता था तो इतना सुकून क्या कम था कि घर में कोई था जिससे मैं पूछ सकता था कि और बेटा.. आज दिन भर क्या किया। हालाँकि उसकी दिनचर्या भी साधारण ही थी। सुबह तैयार हो कर कालेज निकल जाती और वापस लौटती तो अपने कमरे में रह कर पढ़ाई में लगी रहती।
मैं आता तो जरूर बाहर आ जाती और खुद से चाय बना कर मुझे देती। मेरे साथ थोड़ी देर बैठ कर बातें करती… टीवी देखती। इस बहाने कम से कम थोड़ा मन तो मेरा भी बहल जाता।
पर एक दिन उसे ले कर मेरे विचार थोड़े बदलने शुरू हुए। उस दिन मैं घर पे ही था … मैं सबसे ऊपर एक ऐसे कमरे में था जहां से उस कमरे का एक हिस्सा दिखता था जिसमें वैदेही रहती थी। यानि वह कांच की स्लाइडिंग के किनारे अगर खड़ी हो तो उस जगह से देखा जा सकता था, जहां इस वक्त मैं था। जिस जगह वैदेही थी, वहां से बंगले के पीछे का वह हिस्सा दिखता था जहां खेम सिंह का क्वार्टर था और इस वक्त खेम सिंह को वहीं होना चाहिये था।
गौर करने वाली बात यह नहीं थी कि वैदेही बस एक स्लीवलेस टीशर्ट और कैप्री में थी, बल्कि यह थी कि वह शीशे से चिपकी बाहर कुछ देख रही थी और देखते हुए एक हाथ से स्वंय अपने वक्ष मसल रही थी तो दूसरे हाथ से कैप्री में वहां रगड़ रही थी, जहां योनि होती है.. यह इस बात का संकेत था कि वह कुछ ऐसा देख रही थी जो उसे उत्तेजित कर रहा था। स्लाइडिंग के शीशे ऐसे थे जिससे अंदर से बाहर तो देखा जा सकता था लेकिन बाहर से अंदर नहीं तो जाहिर है कि यह सब करते हुए उसे अंदाजा होगा कि उसे कोई नहीं देख रहा था।
लेकिन जो उसके साईड में छोटी खिड़की थी, और खुली हुई थी, वहां से वह मुझे दिख रही थी और मुझे ले कर शायद वह निश्चिंत हो कि मैं अपने कमरे में होऊंगा।
पर वह देख क्या रही थी?
मैं तेजी से वहां से हटा और उस कमरे से हट कर नीचे दूसरी मंजिल के वैदेही वाले रूम से सटे उस दूसरे रूम में आ गया जहां से भी वैसे ही देखा जा सकता था, जैसे वैदेही देख रही थी।
खेम सिंह के क्वार्टर में ऊपर की तरफ रोशनी के लिये एक कांच लगा हुआ था जो सर्वेंट क्वार्टर के लिहाज से पारदर्शी ही था और उस जगह से अंदर कमरे का एक हिस्सा, या यूँ कहें कि सामने वाली दीवार देखी जा सकती थी, अगर अंदर अंधेरा न हो तो… और चूँकि निखरा हुआ दिन था तो मैं देख सकता था कि वह दीवार से सटा था और अपनी शर्ट ठुड्डी के नीचे दबाये, अपना लोअर नीचे किये अपना लिंग निकाले एक हाथ से उसे रगड़ रहा था। यह कोई क्रिस्टल क्लियर व्यू तो नहीं था पर फिर भी देखा तो जा ही सकता था।
मुझे एकदम से बड़ी तेज गुस्सा आया और जी चाहा कि अभी उसे बुला कर डंडे से उसकी पिटाई कर दूँ। मैं वहां से हट कर अपने कमरे में चला आया और ईजी चेयर पर पड़ कर हिलते हुए, अपने क्रोध को काबू में करने की कोशिश करने लगा।
जो भी मैंने देखा.. जो भी हो रहा था, उसमें गलत क्या था। क्या यह नैसर्गिक नहीं था? खेम सिंह का पिता पहले हमारे यहां काम करता था, फिर वह गाँव लौट गया तो खेम सिंह उसकी जगह नौकरी करने लगा। वह तेईस चौबीस साल का ही था और जवान था। उसमें भी वही अति सक्रिय हार्मोन्स होंगे जो जवानी के दिनों में मैं अपने साथियों में देखता था। वह भी अपने जिस्म की आग से परेशान होता होगा तो उसके पास भी विकल्प क्या था?
वैदेही भी ताजी-ताजी युवा हुई थी, वह भी सामान्य स्त्री की तरह अपने अंदर उन सेक्सुअल हार्मोन्स की सक्रियता को अनुभव करती ही होगी। क्या वह वीणा से अलग होगी? वीणा का ख्याल आते ही पता नहीं कितने दृश्य मेरी आंखों के आगे नाच गये जब वह बेहद कामुक अवस्था में मेरे आगे तड़पती थी, गिड़गिड़ाती थी, हिंसक भी हो जाती थी और मैं बस एक बोदा मर्द ही साबित होता था जो उसकी भूख भी ठीक से नहीं मिटा सकता था। क्या उस भूख में वाकई वीणा का दोष था?
मुझे वैदेही में दूसरी वीणा दिखीं… मुझे खेम सिंह में अपने से उलट एक सामान्य मर्द दिखा। जो वह कर रहे थे, सामाजिक दायरे में रह कर हम उसे कितना भी वर्जनाओं में कैद करें लेकिन वह था तो प्राकृतिक, नैसर्गिक। क्या दोष था खेम सिंह का जो अपने एकांत में अपने अंदर उबलती ज्वाला को अपने ही हाथ से अंजाम तक पहुंचा रहा था। कैसे गलत था यह… और यह गलत था तो वैदेही कैसे सही हो गयी, फिर वह भी तो वही कर रही थी। खेम सिंह शायद अपनी कल्पना में किसी को भोग रहा था और वैदेही उसे देखती शायद अपनी कल्पना में भोग्या बनी हुई होगी। सबकुछ प्राकृतिक ही तो था।
मैं कहां फिट होता था उसमें … मैं क्या अधिकार रखता था उन्हें टोकने या मना करने का। वह उनकी स्त्रीसुलभ, पुरुष सुलभ सहज स्वाभाविक शारीरिक डिमांड थी… जिससे एक हद तक मैं महरूम रहा था और यही वजह थी कि मुझे इसे स्वीकारने में दिक्कत हो रही थी।
दिन यूँ ही गुजर गया. वे आगे पीछे मेरे सामने आये भी तो ऐसे कि जैसे कोई बात ही न हुई हो। सबकुछ उनके लिये नार्मल था.. बस मुझ उल्लू के पट्ठे के लिये ही एब्नार्मल था।
खैर जैसे-तैसे करके उस बात को मन से निकाला। हालाँकि जब भी वे नजर के सामने आते तो मानसपटल पर वही दृश्य पुनः जीवित हो उठते लेकिन फिर भी अपने व्यवहार से ऐसा कुछ जताने की कोशिश नहीं की, कि मैंने उन्हें कुछ असामान्य करते भी देखा है।
उसी हफ्ते एक चीज और हुई। वैदेही उस दिन थोड़ा जल्दी ही कालेज के लिये निकल गयी थी और खेमू डस्टिंग कर रहा था। वैदेही के कमरे से आगे गुजरते वक्त अचानक मुझे थमकना पड़ गया। हालाँकि दरवाजा बंद ही था और बस इतना ही खुला था कि झिरी सी बनी हुई थी और उस झिरी से मुझे उस कमरे मौजूद खेम सिंह दिख रहा था।
वह बाथरूम के दरवाजे के पास खड़ा था और उसने एक पैंटी अपने मुंह से लगा रखी थी और दोनों आंखें बंद करके उसे सूंघता हुआ शायद किसी और दुनिया में खोया हुआ था। पैंटी जरूर वैदेही की थी और वह उसकी खुश्बू सूंघ रहा था।
आकस्मिक और स्वाभाविक रूप से मेरे अंदर गुस्से की तेज लहर उठी और जी चाहा कि अभी फटकारूं उसे … लेकिन हिम्मत न पड़ी। खुद को एकदम कमजोर महसूस किया मैंने। क्या यह एक नाकाम मर्द का गुस्सा नहीं था एक कामयाब मर्द पर? मुझे उसके यौनेत्तेजित हो कर उस पैंटी को सूंघने में अपने अंदर के मर्द की हार दिखी।
फिर उसने आंखें खोलीं और मैं आगे बढ़ लिया। नहीं सामना करने की हिम्मत कर पाया मैं। बस नैतिक और अनैतिक के झंझावात में उलझ कर रह गया। मुझे यह ठीक नहीं भी लगता था और इस पर मेरी तरफ से अंकुश लगाना भी ज्यादती लगती थी।
यही संडे को हुआ जब मैंने किसी काम से खेम सिंह को बाहर भेजा और खुद ऊपर अपने कमरे में चला आया। मुझे ऊपर से वैदेही घर से बाहर निकलती दिखी तो मेरी दिलचस्पी जाग उठी। घर में ज्यादातर शीशों का इस्तेमाल था तो यूँ नजरों से बच पाना मुश्किल ही था। वह पीछे ही गयी थी।
मैंने खुद में नैतिक बल पैदा किया और नीचे उतर कर बाहर आ गया। हर तरफ दोपहर वाला सन्नाटा था तो भी थोड़ी एहतियात बरतते मैं पीछे आ गया। खेम सिंह के क्वार्टर का दरवाजा बाहर से खुला और अंदर से बंद था, जिसका मतलब था कि वैदेही अंदर थी।
क्वार्टर के साईड में खिड़की थी, जिसके पल्ले काफी पुराने हो चुके थे और उनसे अंदर देखा जा सकता था। तो मैंने वही किया… अंदर चूँकि उसने कोई रोशनी तो नहीं की थी पर ऊपर रोशनदान से पहुंचती रोशनी भी पर्याप्त थी और मैं देख सकता था कि वैदेही उस तख्त के सिरे पर बैठी थी जो खेम सिंह के सोने के लिये था।
यहां वह भी वही कर रही थी जो तीन दिन पहले खेम सिंह कर रहा था। एक हाथ से खेम सिंह के उतारे अंडरवियर को पकड़े, चेहरे से सटाये सूंघ रही थी और दूसरे हाथ को नीचे चला रही थी… शायद अपनी योनि को सहला रही थी।
फिर मेरे देखते-देखते उसके चलते हुए हाथ की गति तेज होती गयी और एक वक्त वह भी आया जब वह अकड़ कर बिस्तर पर फैल गयी।
अब मेरे रुकने का मतलब नहीं था, मैं वहां से हट आया।
उम्र के इस पड़ाव पर मेरे लिये यह नया तजुर्बा था, नया रोमांच था। मैं तो एक ठंडा आदमी था… ब्लू फिल्में, मस्तराम का साहित्य मुझमें उत्तेजना नहीं जगा पाता था तो अब वह चीज मुझे क्यों महसूस हो रही है? सेक्स को ले कर जो उलझन मुझे जवानी में कभी नहीं महसूस हुई, वह अब दौर में मुझे क्यों बेचैन कर रही है?
अब सवाल यह भी था कि यह सब देख कर मेरा दायित्व क्या होना चाहिये… क्या मुझे उन पर रोक लगाने की कोशिश करनी चाहिये या सब ऐसे ही चलने देना चाहिये? उन दोनों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण था, यह दिख रहा था लेकिन क्या यह दीर्घकालिक सम्बंधों की बुनियाद बन सकता था? ऐसा था तो मुझे इस पर रोक लगानी चाहिये.. लेकिन वैदेही एक बेहद समझदार लड़की थी तो मुझे उम्मीद नहीं कि एक घरेलू नौकर में वह अपना भावी पति स्वीकार कर पाये।
यह अल्पकालिक और दैहिक आकर्षण था जो इस खतरनाक उम्र और उफनते यौवन के साथ एक डिफाॅल्ट फंक्शन होता है। वह बस अपनी शारीरिक जरूरतों तक ही सीमित रहने वाली थी… जाने क्यों मुझे इस बात पर यकीन था। अंततः मैंने तय किया कि जो जैसे चल रहा है, चलने दो। अश्लील साहित्य, नंगी फिल्में और बिस्तर पर नंगी पड़ी पत्नी मुझमें जो जवानी के दिनों में उत्तेजना नहीं पैदा कर पाती थीं, वे मैं खुद में इन दोनों की हरकतों से महसूस कर रहा था।
पुराने जमाने के अमीरों में से हूँ तो शानदार घर है और पहले तो काफी नौकर चाकर भी होते थे जब पूरा परिवार साथ होता था लेकिन मैंने एक जरूरी नौकर को छोड़ सभी को हटा दिया है, क्योंकि मैं अकेला हूँ.
एक खाना बनाने वाली है जो सुबह शाम आती है और खाना बना जाती है। बाकी साफ सफाई खेम सिंह देख लेता है जो शुरू से हमारे पास है। एक माली सप्ताह में एक बार आता है और लॉन आदि में रखे पौधों की देखभाल कर जाता है।
अब आते हैं इस मुद्दे पर कि मैं अकेला क्यों हूँ… दो साल पीछे तक इसी घर में पत्नी वीणा भी रहती थी और बेटा बेटी आर्यन और सोनिया भी। फिर कुछ ऐसा हुआ कि सब बिखर गया। यह सब बताने की नौबत भी इसलिये आई कि मैं किसी को कभी वह सब बातें बता ही नहीं पाया … आखिर मर्द था, और कदम कदम पे हार थी तो कहता भी किससे? यहां पहचान छुपा कर कह सकता हूँ तो मन का बोझ हल्का कर रहा हूं।
संसार में तरह-तरह के लोग हैं और ज्यादातर एक मर्द या एक औरत के रूप में संपूर्ण ही हैं लेकिन सभी संपूर्ण नहीं हैं। कुछ में कमियां भी रह जाती हैं … यह हार्मोनल असंतुलन के कारण होता है। जिसे साधारण पैमाने पर कहा जाये तो यूँ समझिये कि संभोग के लिये लगभग सभी योग्य होते हैं लेकिन मिजाजन कुछ पुरुष और स्त्री इस मामले में अति सक्रिय होते हैं, वहीं कुछ स्त्री पुरुष इस मामले में बेहद ठंडे होते हैं और इस ठंडेपन की शिकार ज्यादातर औरतें होती हैं, जिसका एक या मुख्य कारण शायद सामाजिक पालन पोषण होता हो… लेकिन कुछ पुरुष भी उसी तरह ठंडे स्वभाव के होते हैं, भले उनकी संख्या बेहद कम हो।
दुर्भाग्य से ऐसा ही एक पुरुष मैं हूँ। पच्चीस की उम्र में मेरी वीणा से शादी हुई थी, उससे पहले इस चीज की तरफ तो मेरा कभी ध्यान ही नहीं गया था। ऐसा नहीं था कि मुझमें कोई शारीरिक कमी थी। भरपूर मर्दाना बदन था, लिंग भी सामान्य पुरुष की तरह उत्तेजित और स्तंभन के पश्चात स्खलित होता था। किसी किस्म का कोई समलैंगिक आकर्षण भी नहीं था। बस सेक्सुअल हार्मोन्स अति सक्रिय नहीं थे बल्कि कहा जाये तो बहुत स्लो थे… सेक्स में मेरी दिलचस्पी बेहद कम थी।
कोई नारी शरीर मुझे उतना नहीं उत्तेजित करता था जितना बाकियों को। मैं साथी लड़कों के साथ मस्तराम वाला साहित्य भी पढ़ता था और ब्लू फिल्मों को भी देख लेता था लेकिन मैंने हमेशा महसूस किया कि उन्हें ले कर मुझमें वह रोमांच नहीं पैदा होता था जो बाकियों में होता था। वह सब मुझे उतना रूचिकर नहीं लगता था जितना साथ के दूसरे लड़कों को, या उस युवावस्था में लगना चाहिये था।
जबकि वीणा का स्वभाव बेहद उलट था… उसके सेक्सुअल हार्मोन्स आति सक्रिय थे; वह बेहद गर्म तबीयत की युवती थी। शादी के शुरुआती दौर में ऐसा लगता था जैसे उस पर चौबीस घंटे सेक्स का भूत सवार रहता हो। वह चाहती थी कि हम दिन रात सेक्स करें लेकिन मैं उस मिजाज का था ही नहीं। मैं बमुश्किल शुरु में दिन में एक बार और थोड़ा वक्त गुजरते ही हफ्ते में दो तीन बार तक ही कर पाता था।
यह उसके लिहाज से ऊंट के मुंह में जीरे जैसी स्थिति थी। शुरू में वह बर्दाश्त करती रही लेकिन फिर आगे चल कर यही अभाव चिड़चिड़ाहट में बदल गया और हममें इस बात को ले कर झगड़े होने लगे।
मेरे अंदर के मर्द को जगाने, उकसाने के लिये वह अपनी हास्टल लाईफ की कहानियाँ सुनाने लगी कि वह कितना और कैसे-कैसे सेक्स करती थी और एक मैं हूं। यह मेरे लिये शर्मिंदगी की बात थी कि मेरी पत्नी को इतने लोग पहले ही भोग चुके थे और मुझे इस बात पे गुस्सा आना चाहिये था लेकिन अपनी कमजोरी के चलते मैं वह गुस्सा भी पी जाता था। मैंने दवा इलाज करने की कोशिश की… उनका थोड़ा असर तो होता लेकिन अब इसके लिये जिंदगी भर भी दवायें तो नहीं खाई जा सकती थीं।
तो चार दिन की चांदनी होती और फिर अंधेरी रात वाली नौबत आ जाती।
इसी तरह लड़ते झगड़ते दो साल गुजर गये और उसने आर्यन और सोनिया के रूप में दो जुड़वां बच्चों को जन्म दिया। मैं खुश था कि इस बहाने उसका मिजाज बदलेगा। बच्चे दो काफी थे, मैंने अपना आप्रेशन भी करवा लिया।
अगले चार-पांच साल स्थिति थोड़ी सामान्य रही। एक साथ दो बच्चों की जिम्मेदारी में उलझे रहना ही उसे थका देता था और जितनी ऊर्जा फिर सेक्स के लिये बचती थी, उससे मैं निपट सकता था।
लेकिन जैसे ही बच्चे थोड़ा बड़े हुए, जिम्मेदारियाँ कम हुईं और उसे वक्त मिलने लगा… वह धीरे-धीरे फिर उसी आक्रामक रूप में आने लगी जिसे संभाल पाना एक मर्द के तौर पर मेरे बस से बाहर था।
मैंने जानबूझकर अपना तबादला दक्षिण भारत में करा लिया। मुझे अंदाजा था कि उसे साउथ का रहन सहन, खान पान पसंद नहीं था और वह शायद ही वहां जाना पसंद करे। वही हुआ… या शायद इसकी वजह मुझसे आजादी थी जो उसे चाहिये थी। मैं करीब बारह साल बाहर रहा और दो तीन महीने में हफ्ते भर के लिये घर आता था लेकिन उसे शिकायत नहीं होती थी।
क्यों नहीं होती थी, यह तब पता चला जब वापस मेरा तबादला दिल्ली हुआ।
उसने न सिर्फ उच्च सोसायटी में ही कई यार बना लिये थे बल्कि घर का ड्राइवर तक उसके काम आ रहा था। मुझे यह बातें इधर-उधर से पता चलीं थीं लेकिन मैंने पूछा तो उसने बड़ी आसानी से स्वीकार कर लिया। तब तक बच्चे बोर्डिंग के लायक हो चुके थे तो उन्हें देहरादून डाल दिया था और अब हम मियाँ बीवी अकेले ही रहते थे। मुझे लगा था कि वक्त के साथ उसकी भूख कमजोर पड़ जायेगी लेकिन यहां तो लक्षण उल्टे ही थे।
अब वह बेखौफ हो चुकी थी और मेरे होने की परवाह भी नहीं करती थी। मैंने भी उसकी परवाह करनी छोड़ दी थी। थोड़ा बच्चों में मन लगाने की कोशिश करता जो कभी कभार हम ले आते थे… अक्सर मैं ही उनके पास चला जाता था।
धीरे-धीरे बच्चों की बोर्डिंग की पढ़ाई पूरी हो गयी तो वे दिल्ली लौट आये। आगे वे इंग्लैंड जाना चाहते थे… मुझे एतराज नहीं था और उसे भी क्यों होता। उन्होंने अपनी कोशिशों से वहां एडमिशन ले लिया।
लेकिन उसी बीच वह घटना घट गयी… सभी घर पे थे लेकिन अचानक बेडरूम में छोटी सी बात से शुरू हुआ झगड़ा इतना विकराल हो गया कि सारा अतीत हम दोनों ने उधेड़ दिया। लड़ाई की आवाजें बाहर बच्चों ने भी सुनी थीं। झगड़े के बाद वह खुद कार ले कर बाहर निकल गयी … बच्चों ने रोकने की कोशिश की लेकिन उसके सर पर भूत सवार था।
और आधे घंटे बाद एक सिक्युरिटी वाले का फोन आया कि उसका एक्सीडेंट हो गया था और वह हास्पिटल में थी। हम दौड़ते भागते हास्पिटल पहुंचे तो वह जिंदा थी लेकिन हमारे देखते-देखते उसने दम तोड़ दिया।
हादसा हमारे लिये सदमे से कम नहीं था लेकिन इंसान उबरता ही है। बच्चे ज्यादातर मां के करीब होते हैं और फिर उन्होंने अक्सर ही मुझे बुजदिलों की तरह उससे दामन बचाते भी पाया था। भले वह सामने से न कहते हों लेकिन मुझे अहसास था कि वे माँ की मौत का जिम्मेदार मुझे ही समझते थे।
फिर वह वक्त भी आया जब वह आगे पढ़ाई के लिये इंग्लैंड चले गये और मैं अकेला रह गया उस बड़े से घर में। शायद यही मेरी नियति थी। मुझे नौकरों की जरूरत नहीं थी। खेम सिंह को छोड़ कर मैंने सबको विदा कर दिया. खाना बनाने के लिये एक उम्रदराज औरत रख ली जो सुबह शाम खाना बना जाये।
अब बच्चे वहीं रहते हैं; दो साल गुजर चुके; बस एक बार दस दिन के लिये आये थे। हां फोन पर नेट के माध्यम से जब तब बात हो जाती है।
मैं एक ठंडा और सेक्स में एक हद तक नाकाम पुरुष रहा हूँ, अब यह स्वीकारने में मुझे कोई संकोच नहीं और यही वजह थी कि इस बड़े से घर में मैं आज अकेला था। खेम सिंह घर की साफ सफाई के साथ मेरा ध्यान रखता था लेकिन उसका क्वार्टर बाहर था तो ज्यादातर वहीं रहता था।
यहां से मेरी सिंपल, बोरिंग जिंदगी में एक रोमांचक मोड़ आया। दरअसल मेरे एक साले यानि वीणा के भाई, जो कि बिहार के एक शहर में रहते थे… उनकी तरफ से एक बात आई थी कि उनकी बेटी वैदेही ने दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कालेज में एडमिशन लिया है और वह अब दिल्ली ही रहेगी। वे उसे किन्हीं कारणों से हास्टल में नहीं रखना चाहते थे तो उनकी राय थी कि मैं कोई ऐसा सुरक्षित ठिकाना देख दूं जहां वह घर की तरह ही रह कर पढ़ाई कर सके।
मेरी समझ में तो यही आया कि मेरा घर क्या बुरा था … मेरा अकेलापन भी कुछ हद तक दूर हो जायेगा और उसे भी भला क्या परेशानी होगी। उसका कालेज भी यहां से पास ही पड़ता। वे भी शायद यही कहना चाहते थे लेकिन डायरेक्ट कहने से हिचकिचा रहे थे। बहरहाल बात तय हो गयी तो अगले हफ्ते वैदेही को वे खुद आ कर मेरे पास छोड़ गये।
वह इक्कीस बाईस की वय की आकर्षक लड़की थी जो किसी भी युवा के लिये सहज आकर्षण की चीज हो सकती थी लेकिन मेरे मन में उसके लिये वैसी ही भावनायें थीं जैसे सोनिया के लिये हो सकती थीं। बहुत ज्यादा उसका अवलोकन करने की मुझे जरूरत न महसूस हुई और वह भी कम बोलने वाली लड़की ही साबित हुई। मेरे साथ वैसे ही सामान्य थी जैसे कोई बच्ची अपने फूफा जी के साथ हो सकती है।
बहरहाल, वह वहीं रहने लगी। उसके रहने से ऐसा भी नहीं था कि घर में बहुत हलचल होने लगी हो मगर शाम को जब ऑफिस से आता था तो इतना सुकून क्या कम था कि घर में कोई था जिससे मैं पूछ सकता था कि और बेटा.. आज दिन भर क्या किया। हालाँकि उसकी दिनचर्या भी साधारण ही थी। सुबह तैयार हो कर कालेज निकल जाती और वापस लौटती तो अपने कमरे में रह कर पढ़ाई में लगी रहती।
मैं आता तो जरूर बाहर आ जाती और खुद से चाय बना कर मुझे देती। मेरे साथ थोड़ी देर बैठ कर बातें करती… टीवी देखती। इस बहाने कम से कम थोड़ा मन तो मेरा भी बहल जाता।
पर एक दिन उसे ले कर मेरे विचार थोड़े बदलने शुरू हुए। उस दिन मैं घर पे ही था … मैं सबसे ऊपर एक ऐसे कमरे में था जहां से उस कमरे का एक हिस्सा दिखता था जिसमें वैदेही रहती थी। यानि वह कांच की स्लाइडिंग के किनारे अगर खड़ी हो तो उस जगह से देखा जा सकता था, जहां इस वक्त मैं था। जिस जगह वैदेही थी, वहां से बंगले के पीछे का वह हिस्सा दिखता था जहां खेम सिंह का क्वार्टर था और इस वक्त खेम सिंह को वहीं होना चाहिये था।
गौर करने वाली बात यह नहीं थी कि वैदेही बस एक स्लीवलेस टीशर्ट और कैप्री में थी, बल्कि यह थी कि वह शीशे से चिपकी बाहर कुछ देख रही थी और देखते हुए एक हाथ से स्वंय अपने वक्ष मसल रही थी तो दूसरे हाथ से कैप्री में वहां रगड़ रही थी, जहां योनि होती है.. यह इस बात का संकेत था कि वह कुछ ऐसा देख रही थी जो उसे उत्तेजित कर रहा था। स्लाइडिंग के शीशे ऐसे थे जिससे अंदर से बाहर तो देखा जा सकता था लेकिन बाहर से अंदर नहीं तो जाहिर है कि यह सब करते हुए उसे अंदाजा होगा कि उसे कोई नहीं देख रहा था।
लेकिन जो उसके साईड में छोटी खिड़की थी, और खुली हुई थी, वहां से वह मुझे दिख रही थी और मुझे ले कर शायद वह निश्चिंत हो कि मैं अपने कमरे में होऊंगा।
पर वह देख क्या रही थी?
मैं तेजी से वहां से हटा और उस कमरे से हट कर नीचे दूसरी मंजिल के वैदेही वाले रूम से सटे उस दूसरे रूम में आ गया जहां से भी वैसे ही देखा जा सकता था, जैसे वैदेही देख रही थी।
खेम सिंह के क्वार्टर में ऊपर की तरफ रोशनी के लिये एक कांच लगा हुआ था जो सर्वेंट क्वार्टर के लिहाज से पारदर्शी ही था और उस जगह से अंदर कमरे का एक हिस्सा, या यूँ कहें कि सामने वाली दीवार देखी जा सकती थी, अगर अंदर अंधेरा न हो तो… और चूँकि निखरा हुआ दिन था तो मैं देख सकता था कि वह दीवार से सटा था और अपनी शर्ट ठुड्डी के नीचे दबाये, अपना लोअर नीचे किये अपना लिंग निकाले एक हाथ से उसे रगड़ रहा था। यह कोई क्रिस्टल क्लियर व्यू तो नहीं था पर फिर भी देखा तो जा ही सकता था।
मुझे एकदम से बड़ी तेज गुस्सा आया और जी चाहा कि अभी उसे बुला कर डंडे से उसकी पिटाई कर दूँ। मैं वहां से हट कर अपने कमरे में चला आया और ईजी चेयर पर पड़ कर हिलते हुए, अपने क्रोध को काबू में करने की कोशिश करने लगा।
जो भी मैंने देखा.. जो भी हो रहा था, उसमें गलत क्या था। क्या यह नैसर्गिक नहीं था? खेम सिंह का पिता पहले हमारे यहां काम करता था, फिर वह गाँव लौट गया तो खेम सिंह उसकी जगह नौकरी करने लगा। वह तेईस चौबीस साल का ही था और जवान था। उसमें भी वही अति सक्रिय हार्मोन्स होंगे जो जवानी के दिनों में मैं अपने साथियों में देखता था। वह भी अपने जिस्म की आग से परेशान होता होगा तो उसके पास भी विकल्प क्या था?
वैदेही भी ताजी-ताजी युवा हुई थी, वह भी सामान्य स्त्री की तरह अपने अंदर उन सेक्सुअल हार्मोन्स की सक्रियता को अनुभव करती ही होगी। क्या वह वीणा से अलग होगी? वीणा का ख्याल आते ही पता नहीं कितने दृश्य मेरी आंखों के आगे नाच गये जब वह बेहद कामुक अवस्था में मेरे आगे तड़पती थी, गिड़गिड़ाती थी, हिंसक भी हो जाती थी और मैं बस एक बोदा मर्द ही साबित होता था जो उसकी भूख भी ठीक से नहीं मिटा सकता था। क्या उस भूख में वाकई वीणा का दोष था?
मुझे वैदेही में दूसरी वीणा दिखीं… मुझे खेम सिंह में अपने से उलट एक सामान्य मर्द दिखा। जो वह कर रहे थे, सामाजिक दायरे में रह कर हम उसे कितना भी वर्जनाओं में कैद करें लेकिन वह था तो प्राकृतिक, नैसर्गिक। क्या दोष था खेम सिंह का जो अपने एकांत में अपने अंदर उबलती ज्वाला को अपने ही हाथ से अंजाम तक पहुंचा रहा था। कैसे गलत था यह… और यह गलत था तो वैदेही कैसे सही हो गयी, फिर वह भी तो वही कर रही थी। खेम सिंह शायद अपनी कल्पना में किसी को भोग रहा था और वैदेही उसे देखती शायद अपनी कल्पना में भोग्या बनी हुई होगी। सबकुछ प्राकृतिक ही तो था।
मैं कहां फिट होता था उसमें … मैं क्या अधिकार रखता था उन्हें टोकने या मना करने का। वह उनकी स्त्रीसुलभ, पुरुष सुलभ सहज स्वाभाविक शारीरिक डिमांड थी… जिससे एक हद तक मैं महरूम रहा था और यही वजह थी कि मुझे इसे स्वीकारने में दिक्कत हो रही थी।
दिन यूँ ही गुजर गया. वे आगे पीछे मेरे सामने आये भी तो ऐसे कि जैसे कोई बात ही न हुई हो। सबकुछ उनके लिये नार्मल था.. बस मुझ उल्लू के पट्ठे के लिये ही एब्नार्मल था।
खैर जैसे-तैसे करके उस बात को मन से निकाला। हालाँकि जब भी वे नजर के सामने आते तो मानसपटल पर वही दृश्य पुनः जीवित हो उठते लेकिन फिर भी अपने व्यवहार से ऐसा कुछ जताने की कोशिश नहीं की, कि मैंने उन्हें कुछ असामान्य करते भी देखा है।
उसी हफ्ते एक चीज और हुई। वैदेही उस दिन थोड़ा जल्दी ही कालेज के लिये निकल गयी थी और खेमू डस्टिंग कर रहा था। वैदेही के कमरे से आगे गुजरते वक्त अचानक मुझे थमकना पड़ गया। हालाँकि दरवाजा बंद ही था और बस इतना ही खुला था कि झिरी सी बनी हुई थी और उस झिरी से मुझे उस कमरे मौजूद खेम सिंह दिख रहा था।
वह बाथरूम के दरवाजे के पास खड़ा था और उसने एक पैंटी अपने मुंह से लगा रखी थी और दोनों आंखें बंद करके उसे सूंघता हुआ शायद किसी और दुनिया में खोया हुआ था। पैंटी जरूर वैदेही की थी और वह उसकी खुश्बू सूंघ रहा था।
आकस्मिक और स्वाभाविक रूप से मेरे अंदर गुस्से की तेज लहर उठी और जी चाहा कि अभी फटकारूं उसे … लेकिन हिम्मत न पड़ी। खुद को एकदम कमजोर महसूस किया मैंने। क्या यह एक नाकाम मर्द का गुस्सा नहीं था एक कामयाब मर्द पर? मुझे उसके यौनेत्तेजित हो कर उस पैंटी को सूंघने में अपने अंदर के मर्द की हार दिखी।
फिर उसने आंखें खोलीं और मैं आगे बढ़ लिया। नहीं सामना करने की हिम्मत कर पाया मैं। बस नैतिक और अनैतिक के झंझावात में उलझ कर रह गया। मुझे यह ठीक नहीं भी लगता था और इस पर मेरी तरफ से अंकुश लगाना भी ज्यादती लगती थी।
यही संडे को हुआ जब मैंने किसी काम से खेम सिंह को बाहर भेजा और खुद ऊपर अपने कमरे में चला आया। मुझे ऊपर से वैदेही घर से बाहर निकलती दिखी तो मेरी दिलचस्पी जाग उठी। घर में ज्यादातर शीशों का इस्तेमाल था तो यूँ नजरों से बच पाना मुश्किल ही था। वह पीछे ही गयी थी।
मैंने खुद में नैतिक बल पैदा किया और नीचे उतर कर बाहर आ गया। हर तरफ दोपहर वाला सन्नाटा था तो भी थोड़ी एहतियात बरतते मैं पीछे आ गया। खेम सिंह के क्वार्टर का दरवाजा बाहर से खुला और अंदर से बंद था, जिसका मतलब था कि वैदेही अंदर थी।
क्वार्टर के साईड में खिड़की थी, जिसके पल्ले काफी पुराने हो चुके थे और उनसे अंदर देखा जा सकता था। तो मैंने वही किया… अंदर चूँकि उसने कोई रोशनी तो नहीं की थी पर ऊपर रोशनदान से पहुंचती रोशनी भी पर्याप्त थी और मैं देख सकता था कि वैदेही उस तख्त के सिरे पर बैठी थी जो खेम सिंह के सोने के लिये था।
यहां वह भी वही कर रही थी जो तीन दिन पहले खेम सिंह कर रहा था। एक हाथ से खेम सिंह के उतारे अंडरवियर को पकड़े, चेहरे से सटाये सूंघ रही थी और दूसरे हाथ को नीचे चला रही थी… शायद अपनी योनि को सहला रही थी।
फिर मेरे देखते-देखते उसके चलते हुए हाथ की गति तेज होती गयी और एक वक्त वह भी आया जब वह अकड़ कर बिस्तर पर फैल गयी।
अब मेरे रुकने का मतलब नहीं था, मैं वहां से हट आया।
उम्र के इस पड़ाव पर मेरे लिये यह नया तजुर्बा था, नया रोमांच था। मैं तो एक ठंडा आदमी था… ब्लू फिल्में, मस्तराम का साहित्य मुझमें उत्तेजना नहीं जगा पाता था तो अब वह चीज मुझे क्यों महसूस हो रही है? सेक्स को ले कर जो उलझन मुझे जवानी में कभी नहीं महसूस हुई, वह अब दौर में मुझे क्यों बेचैन कर रही है?
अब सवाल यह भी था कि यह सब देख कर मेरा दायित्व क्या होना चाहिये… क्या मुझे उन पर रोक लगाने की कोशिश करनी चाहिये या सब ऐसे ही चलने देना चाहिये? उन दोनों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण था, यह दिख रहा था लेकिन क्या यह दीर्घकालिक सम्बंधों की बुनियाद बन सकता था? ऐसा था तो मुझे इस पर रोक लगानी चाहिये.. लेकिन वैदेही एक बेहद समझदार लड़की थी तो मुझे उम्मीद नहीं कि एक घरेलू नौकर में वह अपना भावी पति स्वीकार कर पाये।
यह अल्पकालिक और दैहिक आकर्षण था जो इस खतरनाक उम्र और उफनते यौवन के साथ एक डिफाॅल्ट फंक्शन होता है। वह बस अपनी शारीरिक जरूरतों तक ही सीमित रहने वाली थी… जाने क्यों मुझे इस बात पर यकीन था। अंततः मैंने तय किया कि जो जैसे चल रहा है, चलने दो। अश्लील साहित्य, नंगी फिल्में और बिस्तर पर नंगी पड़ी पत्नी मुझमें जो जवानी के दिनों में उत्तेजना नहीं पैदा कर पाती थीं, वे मैं खुद में इन दोनों की हरकतों से महसूस कर रहा था।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.