04-03-2019, 12:24 PM
ससुराल में मची पहली होली का धमाल, एक साली की जुबानी, कैसे खेली जीजा ने होली? कैसे खोली जीजा ने चोली? और फिर क्या-क्या खुला?
थैंक्स, और अब शुरू होती है कहानी, होली जीजा साली की।
***** *****साली की जुबानी : संगीता
जब मैं जवानी की दहलीज पर कदम रख ही रही थी की तब से ही भाभी मुझे छेड़ती थीं कि तुमने अब तक चुदवाना नहीं शुरू किया। ठीक है अगर इंटर पास होने के पहले तूने इंटरकोर्स नहीं किया, तब तक तुमने नहीं चुदवाया तो तुम्हारी चूत का उद्घाटन मुझे अपने सैंयां यानी तुम्हारे भैय्या से करवाना पड़ेगा।
लेकिन इसकी नौबत नहीं आई।
मैं बारहवें में जाने वाली थी।
जो कहते हैं न जवानी की रातें मुरादों के दिन, बस वही दिन। लम्बी, गोरी, गालों पर गुलाब खिल रहे थे, और चोली के उभार… बस यूँ कहूं कि सारी सहेलियां मुझे देखकर जलती थीं, और सारे लड़के मरते थे।
और वह मेरी पहली होली थी, जीजा के साथ।
बसन्त की बयार, बाहर पलाश दहक रहे थे
और अन्दर मेरी चोली के…
बस बिना बात कि अन्गड़ाई लेती थी, बार-बार शीशे के सामने खड़ी होती थी। कभी जोबन के उभार अच्छे लगते, कभी खुद शर्मा जाती, कभी मन करता कि बस कोई कस के पकड़कर दबा ले, दबोच ले।
कुछ दिन पहले जब मेरी बड़ी दीदी की शादी हुई थी तो हम लोगों ने खूब जमकर गालियां सुनायीं और मैंने जीजाजी से कोहबर मैं शर्त मनवा ली कि वोह होली में जरूर आयेगें, और दो-चार दिन रहेंगे। पर होली के कुछ दिन पहले उनका फोन आया कि उन्हें होली कि शाम को ही कहीं बाहर जाना है। इसलिये उनका आना थोड़ा मुश्किल है।
मैंने उनसे रिक्वेस्ट की, कि कम से कम थोड़ी देर के लिये दीदी के साथ आ जायें। फिर यह तय हुआ कि, वह होली को सुबह आ जायेंगे और होली खेलकर दोपहर को वापस चले जायेंगे।
होली के एक दिन पहले से ही हम लोग तैयारियां कर रहे थे।
ढेर सारा गुलाल, अबीर और रंग, जीजा को रंगने के लिये एकदम पक्के पेंट,
भांग वाली गुझिया, ठन्डाई और सारा इन्तजाम मैंने किया।
होली के पहले वाली रात मैं और भाभी देर रात तक किचेन में ही लगे रहे, जिससे कि होली वाले दिन के लिये कोई काम बाकी न रहे।
होली की सुबह कपड़े खराब हो जाने के डर से मैंने हल्के रंग की एक पुरानी फ्राक पहनी, पर पुरानी होने के कारण वह थोड़ी छोटी और बहुत टाईट थी जिससे मेरे उभार और उभरकर सामने आ रहे थे। रंग से बचने के लिए मैं हाथ पैर पर वैसलीन लगा रही थी।
तभी भाभी ने मुझे चिढ़ाते हुए कहा-
“नन्द रानी, जरा नीचे वाले इलाके में भी, अन्दर तक उंगली डालकर लगा लो और अगर शर्म लग रही हो तो मैं लगा दूं…”
भाभी कि सलाह मानकर, पैन्टी सरकाकर मैंने वहां भी वैसलीन लगा ली। झांटें तो मैंने कल रात ही साफ-सूफ कर ली थी। मेरी कोई प्लानिगं नहीं थी, पर क्या पता? अपनी कुँवारी गुलाबी टाईट चूत देखकर तो एक बार मैं भी शर्मा गई।
पर धीरे से मैंने लैबिया को फैलाकर खूब वैसलीन लगायी।
एक प्लास्टीक के पाउच में मैंने सारे रंग रख लिये और दो रंग से भरी बाल्टी छत पर रख ली। वहीं मैं और भाभी ईंतजार करने लगे। होली का हुड़दंग शुरू हो गया था।
आज न छोडेगें हम हमजोली, खेलेगें हम होली,
चाहे भीगे तेरी चुनरिया चाहे भीगे रे चोली,
लाउडस्पीकर पर फिल्मी होली गानों की आवाज, चारों ओर रंग, गुलाल, पिचकारियां, टोली बना-बनाकर लड़के रंग, हुडदंग, मचा रहे थे, बीच-बीच में कबीर… कबीरा सा रा र… और नाम ले-लेकर गालियां, पर आज गालियां भी अच्छी लग रही थीं। तभी मैंने अपना नाम सुना-
नकबेसर कागा ले भागा, सैंयां अभागा ना जागा,
उड़-उड़ कागा संगीता की चोलिया पे बैठा…
भाभी ने इशारा किया, नन्द रानी देखो तुम्हारा ‘वह’ (वह मेरी गली के मोड़ पर रहता था और रोज वहां खड़ा रहना, मेरे कॉलेज के टाईम पर, अक्सर मेरे पीछे-पीछे जाना, छेड़ना, शायद उसी ने मुझे पहली बार जवानी आने का एहसास कराया था। मैं उसको लिफ्ट नहीं देती थी, पर सबको मालूम था कि वह मेरा दीवाना है)।
मैंने छिपने की कोशिश की पर भाभी ने मुझे धक्का देकर सामने कर दिया। उसने मुझे देखकर गाना पूरा किया…
उड़-उड़ कागा संगीता की चोलिया पे बैठा, अरे, जोबना का सब रस ले भागा।
और एक रंग भरा गुब्बारा सीधे मेरे ऊपर फेंका, जो ठीक मेरे बायें जोबन पर लगा और वह एकदम रंग से लाल हो गया।
मैं एकदम सिहर गई और उसने और उसके साथियों ने फिर जोर से गाया-
अरे, बुर वाली, बुरा न मानो होली है।
उड़-उड़ कागा संगीता की स्कर्ट पे बैठा,
अरे, बुरिया का सब रस ले भागा।
नकबेसर कागा ले भागा, सैंयां अभागा ना जाग।
भाभी ने मुझे रंग भरी बाल्टी पकड़ा दी और मैंने भी ठीक उसके ऊपर डाल दी। भाभी ने मेरे रंगे उरोज को कस के दबाया और चिढ़ाया-
“नन्द रानी शुरुआत तो अच्छी हो गई है…”
थैंक्स, और अब शुरू होती है कहानी, होली जीजा साली की।
***** *****साली की जुबानी : संगीता
जब मैं जवानी की दहलीज पर कदम रख ही रही थी की तब से ही भाभी मुझे छेड़ती थीं कि तुमने अब तक चुदवाना नहीं शुरू किया। ठीक है अगर इंटर पास होने के पहले तूने इंटरकोर्स नहीं किया, तब तक तुमने नहीं चुदवाया तो तुम्हारी चूत का उद्घाटन मुझे अपने सैंयां यानी तुम्हारे भैय्या से करवाना पड़ेगा।
लेकिन इसकी नौबत नहीं आई।
मैं बारहवें में जाने वाली थी।
जो कहते हैं न जवानी की रातें मुरादों के दिन, बस वही दिन। लम्बी, गोरी, गालों पर गुलाब खिल रहे थे, और चोली के उभार… बस यूँ कहूं कि सारी सहेलियां मुझे देखकर जलती थीं, और सारे लड़के मरते थे।
और वह मेरी पहली होली थी, जीजा के साथ।
बसन्त की बयार, बाहर पलाश दहक रहे थे
और अन्दर मेरी चोली के…
बस बिना बात कि अन्गड़ाई लेती थी, बार-बार शीशे के सामने खड़ी होती थी। कभी जोबन के उभार अच्छे लगते, कभी खुद शर्मा जाती, कभी मन करता कि बस कोई कस के पकड़कर दबा ले, दबोच ले।
कुछ दिन पहले जब मेरी बड़ी दीदी की शादी हुई थी तो हम लोगों ने खूब जमकर गालियां सुनायीं और मैंने जीजाजी से कोहबर मैं शर्त मनवा ली कि वोह होली में जरूर आयेगें, और दो-चार दिन रहेंगे। पर होली के कुछ दिन पहले उनका फोन आया कि उन्हें होली कि शाम को ही कहीं बाहर जाना है। इसलिये उनका आना थोड़ा मुश्किल है।
मैंने उनसे रिक्वेस्ट की, कि कम से कम थोड़ी देर के लिये दीदी के साथ आ जायें। फिर यह तय हुआ कि, वह होली को सुबह आ जायेंगे और होली खेलकर दोपहर को वापस चले जायेंगे।
होली के एक दिन पहले से ही हम लोग तैयारियां कर रहे थे।
ढेर सारा गुलाल, अबीर और रंग, जीजा को रंगने के लिये एकदम पक्के पेंट,
भांग वाली गुझिया, ठन्डाई और सारा इन्तजाम मैंने किया।
होली के पहले वाली रात मैं और भाभी देर रात तक किचेन में ही लगे रहे, जिससे कि होली वाले दिन के लिये कोई काम बाकी न रहे।
होली की सुबह कपड़े खराब हो जाने के डर से मैंने हल्के रंग की एक पुरानी फ्राक पहनी, पर पुरानी होने के कारण वह थोड़ी छोटी और बहुत टाईट थी जिससे मेरे उभार और उभरकर सामने आ रहे थे। रंग से बचने के लिए मैं हाथ पैर पर वैसलीन लगा रही थी।
तभी भाभी ने मुझे चिढ़ाते हुए कहा-
“नन्द रानी, जरा नीचे वाले इलाके में भी, अन्दर तक उंगली डालकर लगा लो और अगर शर्म लग रही हो तो मैं लगा दूं…”
भाभी कि सलाह मानकर, पैन्टी सरकाकर मैंने वहां भी वैसलीन लगा ली। झांटें तो मैंने कल रात ही साफ-सूफ कर ली थी। मेरी कोई प्लानिगं नहीं थी, पर क्या पता? अपनी कुँवारी गुलाबी टाईट चूत देखकर तो एक बार मैं भी शर्मा गई।
पर धीरे से मैंने लैबिया को फैलाकर खूब वैसलीन लगायी।
एक प्लास्टीक के पाउच में मैंने सारे रंग रख लिये और दो रंग से भरी बाल्टी छत पर रख ली। वहीं मैं और भाभी ईंतजार करने लगे। होली का हुड़दंग शुरू हो गया था।
आज न छोडेगें हम हमजोली, खेलेगें हम होली,
चाहे भीगे तेरी चुनरिया चाहे भीगे रे चोली,
लाउडस्पीकर पर फिल्मी होली गानों की आवाज, चारों ओर रंग, गुलाल, पिचकारियां, टोली बना-बनाकर लड़के रंग, हुडदंग, मचा रहे थे, बीच-बीच में कबीर… कबीरा सा रा र… और नाम ले-लेकर गालियां, पर आज गालियां भी अच्छी लग रही थीं। तभी मैंने अपना नाम सुना-
नकबेसर कागा ले भागा, सैंयां अभागा ना जागा,
उड़-उड़ कागा संगीता की चोलिया पे बैठा…
भाभी ने इशारा किया, नन्द रानी देखो तुम्हारा ‘वह’ (वह मेरी गली के मोड़ पर रहता था और रोज वहां खड़ा रहना, मेरे कॉलेज के टाईम पर, अक्सर मेरे पीछे-पीछे जाना, छेड़ना, शायद उसी ने मुझे पहली बार जवानी आने का एहसास कराया था। मैं उसको लिफ्ट नहीं देती थी, पर सबको मालूम था कि वह मेरा दीवाना है)।
मैंने छिपने की कोशिश की पर भाभी ने मुझे धक्का देकर सामने कर दिया। उसने मुझे देखकर गाना पूरा किया…
उड़-उड़ कागा संगीता की चोलिया पे बैठा, अरे, जोबना का सब रस ले भागा।
और एक रंग भरा गुब्बारा सीधे मेरे ऊपर फेंका, जो ठीक मेरे बायें जोबन पर लगा और वह एकदम रंग से लाल हो गया।
मैं एकदम सिहर गई और उसने और उसके साथियों ने फिर जोर से गाया-
अरे, बुर वाली, बुरा न मानो होली है।
उड़-उड़ कागा संगीता की स्कर्ट पे बैठा,
अरे, बुरिया का सब रस ले भागा।
नकबेसर कागा ले भागा, सैंयां अभागा ना जाग।
भाभी ने मुझे रंग भरी बाल्टी पकड़ा दी और मैंने भी ठीक उसके ऊपर डाल दी। भाभी ने मेरे रंगे उरोज को कस के दबाया और चिढ़ाया-
“नन्द रानी शुरुआत तो अच्छी हो गई है…”