29-05-2020, 11:52 AM
(This post was last modified: 16-06-2020, 11:57 AM by neerathemall. Edited 2 times in total. Edited 2 times in total.
Edit Reason: सलवारकमीज
)
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मुझे पार्किंग से औफिस की तरफ जाते हुए ‘हाय’ की आवाज सुनाई दी, तो मैं ने उस दिशा में देखा जहां से वह आवाज आई थी. लेकिन उधर कोई नहीं दिखा तो मैं मुड़ कर वापस चलने लगी. फिर मुझे ‘हाय प्लाक्षा’ सुनाई दिया तो मैं रुक गई. पीछे मुड़ कर देखा तो विवान था. वह हाथ हिलाते हुए मेरी तरफ आ रहा था. ‘ये यहां क्या कर रहा है?’ मैं ने सोचा. फिर फीकी सी मुसकान के बाद उस से पूछा, ‘‘हाय, कैसे हो?’’
‘‘मैं ठीक हूं. तुम यहां दिल्ली में क्या कर रही हो?’’ उस ने जिज्ञासा से पूछा.
‘‘मैं यहां काम करती हूं,’’ मैं ने जवाब दिया.
‘‘क्या सच में? कब से?’’ उस की आवाज में उत्साह था.
‘‘2 हफ्ते हो गए. क्या तुम्हारा औफिस भी इसी बिल्डिंग में है?’’ मैं ने पूछा.
‘‘नहीं, मैं तो यहां औफिस के काम से किसी से मिलने आया था,’’ उस ने जवाब दिया.
‘‘अच्छा चलो हम बाद में बात करते हैं. मुझे देर हो रही है,’’ यह कह कर मैं आगे बढ़ने लगी. जबकि आज मैं थोड़ा जल्दी आ गई थी, क्योंकि घर पर कुछ करने को ही नहीं था. औफिस में रोज सुबह 10 बजे मीटिंग होती थी. अभी उस में आधा घंटा बाकी था. मैं तो बस जल्दी से जल्दी उस से दूर जाना चाहती थी.
z
‘‘चलो चलतेचलते बात करते हैं,’’ उस ने आगे बढ़ते हुए कहा.
‘‘तो तुम किस कंपनी में काम करती हो?’’ लिफ्ट में उस ने फिर से बात शुरू की.
‘‘द न्यूज ग्रुप में.’’
‘‘तो तुम टीवी पर आती हो?’’ उस ने आंखें बड़ी कर के पूछा. मुझे मन ही मन हंसी आ गई. पता नहीं क्यों सब को ऐसा लगता है कि न्यूज चैनल में काम करने वाले सभी लोग टीवी पर आते हैं.
‘‘नहीं, मैं अभी डैस्क पर काम करती हूं.’’ मैं ने उस की तरफ देखे बिना कहा.
मैं बेसब्री से अपना फ्लोर आने का इंतजार कर रही थी. लिफ्ट खुलते ही जल्दी से उसे ‘बाय’ कह कर मैं बाहर निकल गई. ऐसा नहीं था कि मैं उस से चिढ़ती थी, बल्कि एक वक्त तो ऐसा था जब मैं उस से मिलने, बात करने के लिए घंटों इंतजार करती थी. मेरी जिंदगी में उस के अलावा और कुछ नहीं था. दूसरे शब्दों में कहूं तो वही मेरी जिंदगी था.
विवान मेरा ऐक्स बौयफ्रैंड है. हम इंजीनियरिंग में एक ही क्लास में थे और उन 4 साल के बाद भी हम साथ थे. लेकिन धीरेधीरे सब फीका पड़ गया. मुझे लगने लगा कि मैं अकेली ही इस रिश्ते को संवारने में लगी हूं. उस वक्त विवान ने मुझे काफी हद तक बदल दिया था और एक बार मैं डिप्रैशन में चली गई थी. तब मैं ने निश्चय किया कि अब मुझे इस रिश्ते से बाहर आने की जरूरत है और हम अलग हो गए.
आज हम 2 साल बाद मिले थे. मेरे लिए आगे बढ़ना आसान नहीं था. लेकिन मैं ने कोशिश की और आज मुझे खुद पर गर्व था कि मैं ऐसा कर पाई. लेकिन आज जब मैं ने उसे इतने वक्त बाद देखा तो ऐसा लगा जैसे कुछ देर के लिए मेरा दिल धड़कना भूल गया हो.
औफिस में आई तो देखा कि वह लगभग खाली था. वैसे तो किसी न्यूज चैनल का औफिस कभी भी बिलकुल खाली नहीं होता पर सुबह की शिफ्ट के लोग 10 बजने पर ही आते थे. अपने लिए कौफी ले कर मैं कुरसी पर बैठ गई. दिमाग में फिर वही पुरानी बातें घूमने लगीं…
‘‘क्या हम हमेशा ऐसे दोस्त ही रहेंगे?’’ उस ने पूछा था.
‘‘हां, क्यों? क्या तुम नहीं चाहते?’’ मैं जानती थी कि उस के मन में क्या चल रहा था पर मैं उस के मुंह से सुनना चाहती थी.
‘‘नहीं, मेरा मतलब है कि कभी उस से ज्यादा नहीं?’’ उस ने झिझकते हुए कहा.
‘‘तुम क्या चाहते हो?’’ मैं ने पूछा.
‘‘तुम जानती हो कि मैं क्या चाहता हूं पर मैं कभी तुम्हें प्रपोज नहीं कर पाऊंगा,’’ वह कुछ ज्यादा ही अंतर्मुखी था. लेकिन मैं भी वही चाहती थी, इसलिए मैं ने ही प्रपोज करने की रस्म पूरी कर डाली. बचपन से ही मुंहफट जो थी.
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खैर, वक्त के साथ हम एकदूसरे के आदी हो गए. कालेज में तो 8 घंटे साथ रहते ही थे, आतेजाते भी साथ थे. इस के अलावा मोबाइल पर सारा दिन मैसेज होते रहते थे. कहते हैं, कभीकभी रिश्तों में ज्यादा नजदीकियां भी घातक हो जाती हैं. हम शायद जरूरत से ज्यादा ही साथ रहते थे. धीरेधीरे झगड़े बढ़ने लगे. वह मेरे लिए कुछ ज्यादा ही पजैसिव था.
‘‘वह लड़का तुम्हारी तरफ देख कर मुसकरा क्यों रहा है?’’ वह पूछता.
‘‘मुझे क्या पता,’’ मैं हैरान हो कर कहती.
‘‘मुझे बताओ तुम जानती हो उसे?’’ वह गुस्से से पूछता.
‘‘अरे हद है. मैं थोड़े ही देख रही हूं उसे. वह देख रहा है. पृछ लो जा कर उस से,’’ मैं तुनक कर कहती तो वह मुंह फुला कर चुप बैठ जाता.
मेरी जिंदगी मेरी रही ही नहीं थी और मुझे एहसास भी नहीं हुआ था कि कब और कैसे मैं उसे खुश करने के लिए अपनी जिंदगी से इनसानों और चीजों को बाहर निकालने लगी थी. मेरे जितने भी दोस्त लड़के थे, उन से तो बात करना छुड़वा ही दिया था, उस पर मजेदार बात यह थी कि जब मैं लड़कियों से बात करती तब भी न जाने क्यों उसे चिढ़ होती. इस तरह मैं एक कवच में चली गई. किसी से कोई मेलजोल नहीं, कोई बात नहीं. उस ने मेरे लिए कुछ नहीं छोड़ा था. न दोस्त, न जिम, न बाइक राइड्स.
जब वह इन सब में व्यस्त होता तब मैं अकेली बैठी यही सोचती रहती कि मैं क्या कर रही हूं खुद के साथ? मेरा आत्मविश्वास बिलकुल गिर चुका था. बहुत से लोगों के सामने बोलने में मुझे हिचक होती थी. शुरुआत में जब मैं क्लास में भी सब के सामने बोलती तो वह टोक देता. उसे लगता कि मैं ऐसा लोगों का ध्यान खींचने के लिए करती हूं.
उस की ऐसी बातें मुझ में खीज पैदा करने लगीं और मैं उस का विरोध करने लगी. बस वही वक्त था, जब हमारे बीच दूरियां बढ़ने लगीं. मैं ने उस के जासूसी भरे सवालों का जवाब देना बंद कर दिया. उसे अपना फोन चैक करने के लिए भी रोकने लगी. मुझे कभी समझ नहीं आया कि लोग रिश्तों में हमेशा शंकित क्यों रहते हैं. अगर कोई आप से प्यार करता है, तो वह आप के साथ धोखा करेगा ही नहीं और यदि वह धोखा करता है तो इस का मतलब वह आप के प्यार के काबिल ही नहीं था. यह बात विवान को कभी समझ नहीं आई और इसी चीज ने हमें अलग कर दिया.
अगले 2-3 दिन तक मैं औफिस आतेजाते इधरउधर देखती रहती कि कहीं वह है तो नहीं. पता नहीं उस से बचने के लिए या फिर उसे एक बार फिर से देखने के लिए. ठीक 1 हफ्ते के बाद फिर से सुबह के वक्त वह पार्किंग में मुझ से मिला.
‘‘गुड मौर्निंग,’’ उस ने मुसकराते हुए कहा.
‘‘गुड मौर्निंग,’’ मैं ने नजरें चुराते हुए कहा.
‘‘मुझे देर हो रही है,’’ कह कर मैं चलने लगी.
‘‘सुनो प्लाक्षा…पाशी सुनो,’’ उस ने पीछे से पुकारा तो मेरे कदम रुक गए. आज मुझे सच में देर हो रही थी, लेकिन उस के मुंह से पाशी सुन कर मेरे कदम आगे बढ़ ही नहीं पाए.
‘‘मुझे तुम से कुछ बात करनी है,’’ वह पास आ कर बोला.
‘‘बाद में विवान, अभी मुझे सच में बहुत देर हो रही है,’’ मैं ने जल्दी से कहा.
‘‘ओके, ओके. शाम को कब फ्री होगी?’’ उस ने पूछा.
‘‘6 बजे,’’ मैं ने धीमी आवाज में कहा.
‘‘ठीक है, फिर डिनर साथ में करते हैं.’’
‘‘पर.’’
‘‘कोई परवर नहीं. मुझे शाम को यहीं मिलना. मैं इंतजार करूंगा,’’ उस ने दृढ़ स्वर में कहा.
मैं ने चुपचाप सिर हिला दिया और खड़ी रही.
‘‘अरे अब खड़ी क्यों हो? देर नहीं हो रही?’’ उस ने हलकी सी मुसकान के साथ कहा. मैं चल दी यह सोचते हुए कि अब भी क्यों मैं उस के सामने इतनी कमजोर हूं? क्या मैं अब भी उस से..? नहींनहीं, फिर से नहीं… मैं ने अपना सिर झटक दिया.
सिर झटकने से विचार नहीं रुके. पूरा दिन मैं उसी के बारे में सोचती रही. क्यों मिलना चाहता है मुझ से? क्या बात करनी होगी? क्या वह भी मुझ से? नहींनहीं… इसी पसोपेश में सारा दिन निकल गया. शाम को मैं जानबूझ कर 6 बजने के बाद भी औफिस में बैठी रही. सवा 6 बजे शिखा ने चलने के लिए कहा तो उस को जाने को कह कर खुद बैठी रही. जब साढ़े 6 बजे तो सोचने लगी कि जाऊं? घर जाने के लिए तो निकलना ही पड़ेगा और यह भी तो हो सकता है वह अभी तक इंतजार ही न कर रहा हो. अगर कर भी रहा हो तो कोई जबरदस्ती थोड़े ही है, मना कर दूंगी. खुद को यही समझातेसमझाते मैं नीचे तक चली आई. वह वहीं था. इंतजार कर रहा था.
‘‘क्या हुआ, क्यों देर हो गई?’’ उस ने पूछा.
‘‘काम ज्यादा था इसलिए…’’ मैं इतना ही कह पाई.
‘‘ओके. कोई बात नहीं, चलें?’’ यह कह कर वह अपनी गाड़ी की तरफ चलने लगा.
मेरे मुंह से चूं तक नहीं निकली. शायद मैं भी उस के साथ जाना चाहती थी. रास्ते में मैं पूरे वक्त खिड़की से बाहर ही देखती रही. उस की नजरें मुझे अपने चेहरे पर महसूस हो रही थीं, लेकिन मैं ने उस की ओर नहीं देखा.
‘‘क्या लोगी?’’ रैस्टोरैंट में मेन्यू बढ़ाते हुए उस ने पूछा.
‘‘कुछ भी…तुम देख लो,’’ मैं ने बिना मेन्यू देखे कहा. बैरे को और्डर देने के बाद हम चुपचाप खाने का इंतजार करने लगे. जब काफी देर तक वह कुछ नहीं बोला तो मैं ने ही चुप्पी तोड़ी.
‘‘क्या बात करनी है विवान? क्यों ले कर आए हो मुझे यहां?’’
‘‘मुझे तुम्हारी एक मदद चाहिए,’’ वह झिझकते हुए बोला.
‘‘कैसी मदद?’’
‘‘तुम मेरे मम्मीपापा से मिल सकती हो?’’ वह बोला.
‘‘क्या? पर क्यों? मुझे नहीं लगता कि वे मुझे जानते हैं,’’ मैं ने असमंजस में कहा.
‘‘यार देखो मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं तुम्हें कैसे समझाऊं,’’ वह अचानक परेशान नजर आने लगा.
‘‘बोलो क्या बात है?’’
‘‘वे मेरी शादी के पीछे पड़े हैं. मैं अभी शादी नहीं कर सकता.’’
‘‘तो तुम मुझ से क्या चाहते हो?’’ मैं ने हैरानी से पूछा.
‘‘मैं चाहता हूं कि तुम उन से मेरी गर्लफ्रैंड की तरह मिलो. मैं उन से कहने वाला हूं कि तुम अभी 6 महीने शादी नहीं कर सकतीं और मैं सिर्फ और सिर्फ तुम से शादी करूंगा,’’ वह समझाते हुए बोला.
‘‘तुम पागल हो गए हो? मैं ऐसा क्यों करूंगी? और तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? कभी न कभी किसी न किसी से तो शादी करनी है न. प्रौब्लम क्या है?’’ मैं ने तीखे स्वर में पूछा.
‘‘प्लाक्षा, तुम करोगी या नहीं?’’
‘‘नहीं, और जब तक तुम कारण नहीं बताते तब तक तो बिलकुल भी नहीं.’’ वह कुछ देर तक चुपचाप मेरी तरफ देखता रहा. खाना आ चुका था. हम बिना कुछ बोले खाना खाने लगे.
‘‘प्लाक्षा, तुम सच में मेरी मदद नहीं करोगी?’’ खामोशी तोड़ कर उस ने कहा.
‘‘तुम मुझे कारण भी नहीं बता रहे हो, विवान. क्या उम्मीद करते हो मुझ से? और मैं तुम्हारे लिए कुछ भी क्यों करूंगी? इतना सब होने के बाद भी?’’ मेरी आवाज में चिढ़ थी. पता नहीं क्यों हर कोई मुझ से इतनी उम्मीदें रखता है. कभीकभी लगता है कि इनसान को इतना भी कमजोर नहीं होना चाहिए कि सब उस का फायदा ही उठाते रहें.
मेरा घर आ चुका था. ‘‘डिनर के लिए थैंक्स,’’ कह कर मैं कार का दरवाजा खोलने लगी.
‘‘प्लाक्षा सुनो, रुको.’’ मैं रुक गई.
‘‘प्लीज मेरी हैल्प कर दो. मैं तुम्हें सब कुछ बताता हूं.’’ उस के बाद उस ने जो कहानी बताई वह कुछ इस तरह थी-
उस की एक गर्लफ्रैंड थी, साक्षी. उसे कंपनी की तरफ से अमेरिका जाने का मौका मिला था और वह 6 महीने से पहले वापस नहीं आ सकती थी. विवान उसी से शादी करना चाहता था और मुझे उस के घर वालों से साक्षी बन कर मिलना था. उस के घर वाले उस पर शादी का बहुत ज्यादा दबाव बना रहे थे और उसे इस के अलावा कोई और विकल्प नहीं दिख रहा था.
‘‘पर मैं ही क्यों विवान? तुम तो किसी भी लड़की को ले जा सकते हो,’’ मैं ने उस से कहा.
‘‘एक तो और कोई है ही नहीं. फिर कोई लड़की सच में गले पड़ गई तो?’’
‘‘अच्छा. और मैं ने ऐसा कुछ किया तो?’’
‘‘नहीं करोगी. मुझे विश्वास है तुम पर.’’
मैं व्यंग्य से हंस पड़ी. ‘‘तुम्हें मुझ पर विश्वास है? अच्छा लगा सुन कर.’’
वह असहज हो गया. कुछ देर की शांति के बाद बोला, ‘‘तो तुम करोगी?’’
‘‘सोच कर बताऊंगी,’’ कह कर मैं कार से उतर गई. मुझे पता था उस की नजरें मेरा पीछा कर रही थीं पर मैं ने मुड़ कर नहीं देखा.
सारी रात उस की बातें मेरे दिमाग में घूमती रहीं. कितनी कोशिश की थी मैं ने उन सब बातों और यादों से खुद को दूर रखने की, लेकिन आज जब फिर से वह मेरे सामने खड़ा था तो खुद को कमजोर ही पा रही थी मैं. मुझे ब्रेकअप के कुछ महीने बाद उस से हुई आखिरी मुलाकात याद आ गई.
‘‘तुम्हें मेरी याद आती है?’’ मैं ने उस से पूछा था.
‘‘नहीं, बिलकुल नहीं,’’ वह मेरी ओर देखे बिना बोला था. फिर पूरे वक्त वह अपनी जौब, कुलीग्स, घूमनेफिरने की ही बातें करता रहा. हालांकि मैं ने ही उसे मिलने के लिए बुलाया था, लेकिन मैं बिलकुल खामोश थी. बस, अलविदा कहते वक्त उस से पूछा था, ‘‘तुम क्या चाहते हो विवान मुझ से?’’
‘‘मतलब?’’ उस ने अचकचा कर पूछा.
‘‘हमारा ब्रेकअप हो चुका है न. फिर भी तुम जबतब मुझ से बात करने लगते हो और जब मैं बात करना चाहूं तो मुझे झिड़क देते हो. क्या चाहते हो? फिर से रिलेशनशिप में आना या फिर सच में बे्रकअप?’’ मैं ने उस से पूछा, क्योंकि पिछले कुछ महीनों से बहुत टैंशन में थी मैं. वह न तो मुझे खुद से जुड़े रहने देता और न ही पूरी तरह अलग करना चाहता था.
‘‘देखो, अब हम साथ तो नहीं रह सकते,’’ इतना ही बोला उस ने.
‘‘तो फिर मुझ से बात करना बिलकुल बंद कर दो. मुझे अकेला छोड़ दो. यह औनऔफ मुझ से बरदाश्त नहीं होता,’’ रो पड़ी थी मैं.
उस के बाद से अकेली ही थी मैं. कमजोर थी इसलिए कई लोगों ने भावनात्मक रूप से फायदा उठाने की कोशिश भी की. पर इन सब चीजों ने मुझे और मजबूत बना दिया. लोगों की थोड़ीबहुत पहचान भी मैं करने लगी थी अब. किसी पर आसानी से विश्वास नहीं करती थी. कुल मिला कर अपनी छोटी सी दुनिया में खुद को बचाए किसी तरह चैन से जी रही थी मैं. पर अब फिर से… नहीं. मैं अब किसी को अपनी अच्छाई का फायदा नहीं उठाने दूंगी. मैं मदद करूंगी लेकिन एक शर्त पर.
हम अगली बार एक कौफी शौप में बैठे थे. मेरे ‘हां’ कहने पर विवान बहुत खुश था. लेकिन मेरी शर्त की बात सुन कर वह थोड़ा परेशान हो गया.
‘‘क्या?’’ उस ने पूछा तो मैं ने कौफी पीते हुए कहा, ‘‘वह तुम्हें 6 महीने बाद बताऊंगी.’’
‘‘अरे, प्लीज बताओ न, तुम्हें पता है मुझे सस्पैंस बिलकुल पसंद नहीं है,’’ वह मेरा हाथ पकड़ कर जिद करने लगा. मैं ने झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया. उस की छुअन से अब भी…नहींनहीं, फिर से नहीं.
‘‘सौरी,’’ वह डरते हुए बोला, ‘‘बताओ न प्लीज.’’
‘‘विवान, तुम चाहते हो न कि मैं तुम्हारी हैल्प करूं?’’ मैं ने तल्ख स्वर में पूछा. ‘‘हां, लेकिन…’’ उस की बात पूरी होने से पहले ही मैं बोली, ‘‘बस तो फिर अब कुछ काम मेरी पसंद के भी करो और मुझे बताओ कि कब कैसे क्या करना है.’’
‘‘अगले दिन हम दोनों उस के घर के ड्राइंगरूम में बैठे थे. मैं उस के कहे अनुसार सलवारकमीज में थी और हमेशा की तरह उस ने असहज महसूस कर रही थी. उस में मम्मीपापा सामने बैठे मुझे ऊपर से नीचे तक देख रहे थे.
सलवारकमीज
मुझे पार्किंग से औफिस की तरफ जाते हुए ‘हाय’ की आवाज सुनाई दी, तो मैं ने उस दिशा में देखा जहां से वह आवाज आई थी. लेकिन उधर कोई नहीं दिखा तो मैं मुड़ कर वापस चलने लगी. फिर मुझे ‘हाय प्लाक्षा’ सुनाई दिया तो मैं रुक गई. पीछे मुड़ कर देखा तो विवान था. वह हाथ हिलाते हुए मेरी तरफ आ रहा था. ‘ये यहां क्या कर रहा है?’ मैं ने सोचा. फिर फीकी सी मुसकान के बाद उस से पूछा, ‘‘हाय, कैसे हो?’’
‘‘मैं ठीक हूं. तुम यहां दिल्ली में क्या कर रही हो?’’ उस ने जिज्ञासा से पूछा.
‘‘मैं यहां काम करती हूं,’’ मैं ने जवाब दिया.
‘‘क्या सच में? कब से?’’ उस की आवाज में उत्साह था.
‘‘2 हफ्ते हो गए. क्या तुम्हारा औफिस भी इसी बिल्डिंग में है?’’ मैं ने पूछा.
‘‘नहीं, मैं तो यहां औफिस के काम से किसी से मिलने आया था,’’ उस ने जवाब दिया.
‘‘अच्छा चलो हम बाद में बात करते हैं. मुझे देर हो रही है,’’ यह कह कर मैं आगे बढ़ने लगी. जबकि आज मैं थोड़ा जल्दी आ गई थी, क्योंकि घर पर कुछ करने को ही नहीं था. औफिस में रोज सुबह 10 बजे मीटिंग होती थी. अभी उस में आधा घंटा बाकी था. मैं तो बस जल्दी से जल्दी उस से दूर जाना चाहती थी.
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‘‘चलो चलतेचलते बात करते हैं,’’ उस ने आगे बढ़ते हुए कहा.
‘‘तो तुम किस कंपनी में काम करती हो?’’ लिफ्ट में उस ने फिर से बात शुरू की.
‘‘द न्यूज ग्रुप में.’’
‘‘तो तुम टीवी पर आती हो?’’ उस ने आंखें बड़ी कर के पूछा. मुझे मन ही मन हंसी आ गई. पता नहीं क्यों सब को ऐसा लगता है कि न्यूज चैनल में काम करने वाले सभी लोग टीवी पर आते हैं.
‘‘नहीं, मैं अभी डैस्क पर काम करती हूं.’’ मैं ने उस की तरफ देखे बिना कहा.
मैं बेसब्री से अपना फ्लोर आने का इंतजार कर रही थी. लिफ्ट खुलते ही जल्दी से उसे ‘बाय’ कह कर मैं बाहर निकल गई. ऐसा नहीं था कि मैं उस से चिढ़ती थी, बल्कि एक वक्त तो ऐसा था जब मैं उस से मिलने, बात करने के लिए घंटों इंतजार करती थी. मेरी जिंदगी में उस के अलावा और कुछ नहीं था. दूसरे शब्दों में कहूं तो वही मेरी जिंदगी था.
विवान मेरा ऐक्स बौयफ्रैंड है. हम इंजीनियरिंग में एक ही क्लास में थे और उन 4 साल के बाद भी हम साथ थे. लेकिन धीरेधीरे सब फीका पड़ गया. मुझे लगने लगा कि मैं अकेली ही इस रिश्ते को संवारने में लगी हूं. उस वक्त विवान ने मुझे काफी हद तक बदल दिया था और एक बार मैं डिप्रैशन में चली गई थी. तब मैं ने निश्चय किया कि अब मुझे इस रिश्ते से बाहर आने की जरूरत है और हम अलग हो गए.
आज हम 2 साल बाद मिले थे. मेरे लिए आगे बढ़ना आसान नहीं था. लेकिन मैं ने कोशिश की और आज मुझे खुद पर गर्व था कि मैं ऐसा कर पाई. लेकिन आज जब मैं ने उसे इतने वक्त बाद देखा तो ऐसा लगा जैसे कुछ देर के लिए मेरा दिल धड़कना भूल गया हो.
औफिस में आई तो देखा कि वह लगभग खाली था. वैसे तो किसी न्यूज चैनल का औफिस कभी भी बिलकुल खाली नहीं होता पर सुबह की शिफ्ट के लोग 10 बजने पर ही आते थे. अपने लिए कौफी ले कर मैं कुरसी पर बैठ गई. दिमाग में फिर वही पुरानी बातें घूमने लगीं…
‘‘क्या हम हमेशा ऐसे दोस्त ही रहेंगे?’’ उस ने पूछा था.
‘‘हां, क्यों? क्या तुम नहीं चाहते?’’ मैं जानती थी कि उस के मन में क्या चल रहा था पर मैं उस के मुंह से सुनना चाहती थी.
‘‘नहीं, मेरा मतलब है कि कभी उस से ज्यादा नहीं?’’ उस ने झिझकते हुए कहा.
‘‘तुम क्या चाहते हो?’’ मैं ने पूछा.
‘‘तुम जानती हो कि मैं क्या चाहता हूं पर मैं कभी तुम्हें प्रपोज नहीं कर पाऊंगा,’’ वह कुछ ज्यादा ही अंतर्मुखी था. लेकिन मैं भी वही चाहती थी, इसलिए मैं ने ही प्रपोज करने की रस्म पूरी कर डाली. बचपन से ही मुंहफट जो थी.
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खैर, वक्त के साथ हम एकदूसरे के आदी हो गए. कालेज में तो 8 घंटे साथ रहते ही थे, आतेजाते भी साथ थे. इस के अलावा मोबाइल पर सारा दिन मैसेज होते रहते थे. कहते हैं, कभीकभी रिश्तों में ज्यादा नजदीकियां भी घातक हो जाती हैं. हम शायद जरूरत से ज्यादा ही साथ रहते थे. धीरेधीरे झगड़े बढ़ने लगे. वह मेरे लिए कुछ ज्यादा ही पजैसिव था.
‘‘वह लड़का तुम्हारी तरफ देख कर मुसकरा क्यों रहा है?’’ वह पूछता.
‘‘मुझे क्या पता,’’ मैं हैरान हो कर कहती.
‘‘मुझे बताओ तुम जानती हो उसे?’’ वह गुस्से से पूछता.
‘‘अरे हद है. मैं थोड़े ही देख रही हूं उसे. वह देख रहा है. पृछ लो जा कर उस से,’’ मैं तुनक कर कहती तो वह मुंह फुला कर चुप बैठ जाता.
मेरी जिंदगी मेरी रही ही नहीं थी और मुझे एहसास भी नहीं हुआ था कि कब और कैसे मैं उसे खुश करने के लिए अपनी जिंदगी से इनसानों और चीजों को बाहर निकालने लगी थी. मेरे जितने भी दोस्त लड़के थे, उन से तो बात करना छुड़वा ही दिया था, उस पर मजेदार बात यह थी कि जब मैं लड़कियों से बात करती तब भी न जाने क्यों उसे चिढ़ होती. इस तरह मैं एक कवच में चली गई. किसी से कोई मेलजोल नहीं, कोई बात नहीं. उस ने मेरे लिए कुछ नहीं छोड़ा था. न दोस्त, न जिम, न बाइक राइड्स.
जब वह इन सब में व्यस्त होता तब मैं अकेली बैठी यही सोचती रहती कि मैं क्या कर रही हूं खुद के साथ? मेरा आत्मविश्वास बिलकुल गिर चुका था. बहुत से लोगों के सामने बोलने में मुझे हिचक होती थी. शुरुआत में जब मैं क्लास में भी सब के सामने बोलती तो वह टोक देता. उसे लगता कि मैं ऐसा लोगों का ध्यान खींचने के लिए करती हूं.
उस की ऐसी बातें मुझ में खीज पैदा करने लगीं और मैं उस का विरोध करने लगी. बस वही वक्त था, जब हमारे बीच दूरियां बढ़ने लगीं. मैं ने उस के जासूसी भरे सवालों का जवाब देना बंद कर दिया. उसे अपना फोन चैक करने के लिए भी रोकने लगी. मुझे कभी समझ नहीं आया कि लोग रिश्तों में हमेशा शंकित क्यों रहते हैं. अगर कोई आप से प्यार करता है, तो वह आप के साथ धोखा करेगा ही नहीं और यदि वह धोखा करता है तो इस का मतलब वह आप के प्यार के काबिल ही नहीं था. यह बात विवान को कभी समझ नहीं आई और इसी चीज ने हमें अलग कर दिया.
अगले 2-3 दिन तक मैं औफिस आतेजाते इधरउधर देखती रहती कि कहीं वह है तो नहीं. पता नहीं उस से बचने के लिए या फिर उसे एक बार फिर से देखने के लिए. ठीक 1 हफ्ते के बाद फिर से सुबह के वक्त वह पार्किंग में मुझ से मिला.
‘‘गुड मौर्निंग,’’ उस ने मुसकराते हुए कहा.
‘‘गुड मौर्निंग,’’ मैं ने नजरें चुराते हुए कहा.
‘‘मुझे देर हो रही है,’’ कह कर मैं चलने लगी.
‘‘सुनो प्लाक्षा…पाशी सुनो,’’ उस ने पीछे से पुकारा तो मेरे कदम रुक गए. आज मुझे सच में देर हो रही थी, लेकिन उस के मुंह से पाशी सुन कर मेरे कदम आगे बढ़ ही नहीं पाए.
‘‘मुझे तुम से कुछ बात करनी है,’’ वह पास आ कर बोला.
‘‘बाद में विवान, अभी मुझे सच में बहुत देर हो रही है,’’ मैं ने जल्दी से कहा.
‘‘ओके, ओके. शाम को कब फ्री होगी?’’ उस ने पूछा.
‘‘6 बजे,’’ मैं ने धीमी आवाज में कहा.
‘‘ठीक है, फिर डिनर साथ में करते हैं.’’
‘‘पर.’’
‘‘कोई परवर नहीं. मुझे शाम को यहीं मिलना. मैं इंतजार करूंगा,’’ उस ने दृढ़ स्वर में कहा.
मैं ने चुपचाप सिर हिला दिया और खड़ी रही.
‘‘अरे अब खड़ी क्यों हो? देर नहीं हो रही?’’ उस ने हलकी सी मुसकान के साथ कहा. मैं चल दी यह सोचते हुए कि अब भी क्यों मैं उस के सामने इतनी कमजोर हूं? क्या मैं अब भी उस से..? नहींनहीं, फिर से नहीं… मैं ने अपना सिर झटक दिया.
सिर झटकने से विचार नहीं रुके. पूरा दिन मैं उसी के बारे में सोचती रही. क्यों मिलना चाहता है मुझ से? क्या बात करनी होगी? क्या वह भी मुझ से? नहींनहीं… इसी पसोपेश में सारा दिन निकल गया. शाम को मैं जानबूझ कर 6 बजने के बाद भी औफिस में बैठी रही. सवा 6 बजे शिखा ने चलने के लिए कहा तो उस को जाने को कह कर खुद बैठी रही. जब साढ़े 6 बजे तो सोचने लगी कि जाऊं? घर जाने के लिए तो निकलना ही पड़ेगा और यह भी तो हो सकता है वह अभी तक इंतजार ही न कर रहा हो. अगर कर भी रहा हो तो कोई जबरदस्ती थोड़े ही है, मना कर दूंगी. खुद को यही समझातेसमझाते मैं नीचे तक चली आई. वह वहीं था. इंतजार कर रहा था.
‘‘क्या हुआ, क्यों देर हो गई?’’ उस ने पूछा.
‘‘काम ज्यादा था इसलिए…’’ मैं इतना ही कह पाई.
‘‘ओके. कोई बात नहीं, चलें?’’ यह कह कर वह अपनी गाड़ी की तरफ चलने लगा.
मेरे मुंह से चूं तक नहीं निकली. शायद मैं भी उस के साथ जाना चाहती थी. रास्ते में मैं पूरे वक्त खिड़की से बाहर ही देखती रही. उस की नजरें मुझे अपने चेहरे पर महसूस हो रही थीं, लेकिन मैं ने उस की ओर नहीं देखा.
‘‘क्या लोगी?’’ रैस्टोरैंट में मेन्यू बढ़ाते हुए उस ने पूछा.
‘‘कुछ भी…तुम देख लो,’’ मैं ने बिना मेन्यू देखे कहा. बैरे को और्डर देने के बाद हम चुपचाप खाने का इंतजार करने लगे. जब काफी देर तक वह कुछ नहीं बोला तो मैं ने ही चुप्पी तोड़ी.
‘‘क्या बात करनी है विवान? क्यों ले कर आए हो मुझे यहां?’’
‘‘मुझे तुम्हारी एक मदद चाहिए,’’ वह झिझकते हुए बोला.
‘‘कैसी मदद?’’
‘‘तुम मेरे मम्मीपापा से मिल सकती हो?’’ वह बोला.
‘‘क्या? पर क्यों? मुझे नहीं लगता कि वे मुझे जानते हैं,’’ मैं ने असमंजस में कहा.
‘‘यार देखो मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं तुम्हें कैसे समझाऊं,’’ वह अचानक परेशान नजर आने लगा.
‘‘बोलो क्या बात है?’’
‘‘वे मेरी शादी के पीछे पड़े हैं. मैं अभी शादी नहीं कर सकता.’’
‘‘तो तुम मुझ से क्या चाहते हो?’’ मैं ने हैरानी से पूछा.
‘‘मैं चाहता हूं कि तुम उन से मेरी गर्लफ्रैंड की तरह मिलो. मैं उन से कहने वाला हूं कि तुम अभी 6 महीने शादी नहीं कर सकतीं और मैं सिर्फ और सिर्फ तुम से शादी करूंगा,’’ वह समझाते हुए बोला.
‘‘तुम पागल हो गए हो? मैं ऐसा क्यों करूंगी? और तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? कभी न कभी किसी न किसी से तो शादी करनी है न. प्रौब्लम क्या है?’’ मैं ने तीखे स्वर में पूछा.
‘‘प्लाक्षा, तुम करोगी या नहीं?’’
‘‘नहीं, और जब तक तुम कारण नहीं बताते तब तक तो बिलकुल भी नहीं.’’ वह कुछ देर तक चुपचाप मेरी तरफ देखता रहा. खाना आ चुका था. हम बिना कुछ बोले खाना खाने लगे.
‘‘प्लाक्षा, तुम सच में मेरी मदद नहीं करोगी?’’ खामोशी तोड़ कर उस ने कहा.
‘‘तुम मुझे कारण भी नहीं बता रहे हो, विवान. क्या उम्मीद करते हो मुझ से? और मैं तुम्हारे लिए कुछ भी क्यों करूंगी? इतना सब होने के बाद भी?’’ मेरी आवाज में चिढ़ थी. पता नहीं क्यों हर कोई मुझ से इतनी उम्मीदें रखता है. कभीकभी लगता है कि इनसान को इतना भी कमजोर नहीं होना चाहिए कि सब उस का फायदा ही उठाते रहें.
मेरा घर आ चुका था. ‘‘डिनर के लिए थैंक्स,’’ कह कर मैं कार का दरवाजा खोलने लगी.
‘‘प्लाक्षा सुनो, रुको.’’ मैं रुक गई.
‘‘प्लीज मेरी हैल्प कर दो. मैं तुम्हें सब कुछ बताता हूं.’’ उस के बाद उस ने जो कहानी बताई वह कुछ इस तरह थी-
उस की एक गर्लफ्रैंड थी, साक्षी. उसे कंपनी की तरफ से अमेरिका जाने का मौका मिला था और वह 6 महीने से पहले वापस नहीं आ सकती थी. विवान उसी से शादी करना चाहता था और मुझे उस के घर वालों से साक्षी बन कर मिलना था. उस के घर वाले उस पर शादी का बहुत ज्यादा दबाव बना रहे थे और उसे इस के अलावा कोई और विकल्प नहीं दिख रहा था.
‘‘पर मैं ही क्यों विवान? तुम तो किसी भी लड़की को ले जा सकते हो,’’ मैं ने उस से कहा.
‘‘एक तो और कोई है ही नहीं. फिर कोई लड़की सच में गले पड़ गई तो?’’
‘‘अच्छा. और मैं ने ऐसा कुछ किया तो?’’
‘‘नहीं करोगी. मुझे विश्वास है तुम पर.’’
मैं व्यंग्य से हंस पड़ी. ‘‘तुम्हें मुझ पर विश्वास है? अच्छा लगा सुन कर.’’
वह असहज हो गया. कुछ देर की शांति के बाद बोला, ‘‘तो तुम करोगी?’’
‘‘सोच कर बताऊंगी,’’ कह कर मैं कार से उतर गई. मुझे पता था उस की नजरें मेरा पीछा कर रही थीं पर मैं ने मुड़ कर नहीं देखा.
सारी रात उस की बातें मेरे दिमाग में घूमती रहीं. कितनी कोशिश की थी मैं ने उन सब बातों और यादों से खुद को दूर रखने की, लेकिन आज जब फिर से वह मेरे सामने खड़ा था तो खुद को कमजोर ही पा रही थी मैं. मुझे ब्रेकअप के कुछ महीने बाद उस से हुई आखिरी मुलाकात याद आ गई.
‘‘तुम्हें मेरी याद आती है?’’ मैं ने उस से पूछा था.
‘‘नहीं, बिलकुल नहीं,’’ वह मेरी ओर देखे बिना बोला था. फिर पूरे वक्त वह अपनी जौब, कुलीग्स, घूमनेफिरने की ही बातें करता रहा. हालांकि मैं ने ही उसे मिलने के लिए बुलाया था, लेकिन मैं बिलकुल खामोश थी. बस, अलविदा कहते वक्त उस से पूछा था, ‘‘तुम क्या चाहते हो विवान मुझ से?’’
‘‘मतलब?’’ उस ने अचकचा कर पूछा.
‘‘हमारा ब्रेकअप हो चुका है न. फिर भी तुम जबतब मुझ से बात करने लगते हो और जब मैं बात करना चाहूं तो मुझे झिड़क देते हो. क्या चाहते हो? फिर से रिलेशनशिप में आना या फिर सच में बे्रकअप?’’ मैं ने उस से पूछा, क्योंकि पिछले कुछ महीनों से बहुत टैंशन में थी मैं. वह न तो मुझे खुद से जुड़े रहने देता और न ही पूरी तरह अलग करना चाहता था.
‘‘देखो, अब हम साथ तो नहीं रह सकते,’’ इतना ही बोला उस ने.
‘‘तो फिर मुझ से बात करना बिलकुल बंद कर दो. मुझे अकेला छोड़ दो. यह औनऔफ मुझ से बरदाश्त नहीं होता,’’ रो पड़ी थी मैं.
उस के बाद से अकेली ही थी मैं. कमजोर थी इसलिए कई लोगों ने भावनात्मक रूप से फायदा उठाने की कोशिश भी की. पर इन सब चीजों ने मुझे और मजबूत बना दिया. लोगों की थोड़ीबहुत पहचान भी मैं करने लगी थी अब. किसी पर आसानी से विश्वास नहीं करती थी. कुल मिला कर अपनी छोटी सी दुनिया में खुद को बचाए किसी तरह चैन से जी रही थी मैं. पर अब फिर से… नहीं. मैं अब किसी को अपनी अच्छाई का फायदा नहीं उठाने दूंगी. मैं मदद करूंगी लेकिन एक शर्त पर.
हम अगली बार एक कौफी शौप में बैठे थे. मेरे ‘हां’ कहने पर विवान बहुत खुश था. लेकिन मेरी शर्त की बात सुन कर वह थोड़ा परेशान हो गया.
‘‘क्या?’’ उस ने पूछा तो मैं ने कौफी पीते हुए कहा, ‘‘वह तुम्हें 6 महीने बाद बताऊंगी.’’
‘‘अरे, प्लीज बताओ न, तुम्हें पता है मुझे सस्पैंस बिलकुल पसंद नहीं है,’’ वह मेरा हाथ पकड़ कर जिद करने लगा. मैं ने झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया. उस की छुअन से अब भी…नहींनहीं, फिर से नहीं.
‘‘सौरी,’’ वह डरते हुए बोला, ‘‘बताओ न प्लीज.’’
‘‘विवान, तुम चाहते हो न कि मैं तुम्हारी हैल्प करूं?’’ मैं ने तल्ख स्वर में पूछा. ‘‘हां, लेकिन…’’ उस की बात पूरी होने से पहले ही मैं बोली, ‘‘बस तो फिर अब कुछ काम मेरी पसंद के भी करो और मुझे बताओ कि कब कैसे क्या करना है.’’
‘‘अगले दिन हम दोनों उस के घर के ड्राइंगरूम में बैठे थे. मैं उस के कहे अनुसार सलवारकमीज में थी और हमेशा की तरह उस ने असहज महसूस कर रही थी. उस में मम्मीपापा सामने बैठे मुझे ऊपर से नीचे तक देख रहे थे.
सलवारकमीज
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.