21-05-2020, 12:25 PM
लगभग दो घंटे के अथक परिश्रम के बाद रेखा ने दीनदयाल जी को नाश्ता कराकर, खाने का डब्बा पकडाया और दीनदयाल जी चलने के लिए रवाना होने लगे। दरवाजे तक पहुचते तक रेखा की सुरीली आवाज उसके कान में घुली।
रेखा- "जी सुनिए !!!"
दीन दयाल- "हाँ बोलिए, क्या बात है रेखा जी!!!"
दीनदयाल रेखा से ऐसे ही इज्जत देकर बात करता है। क्युकी रेखा की सुन्दरता और कम उम्र होने के बावजूद उसके साथ शादी होने से वो शायद हमेशा थोडा ग्लानी और हीन भावना से दबा रहता था।
रेखा- "वो, आते आते कुछ किराने का सामान लेते आइयेगा। मैंने इस पर्ची में सब लिख दिया है।" अपने कमल के फूलो जैसे हाथ में एक कागज की पर्ची आगे बढाती रेखा बोली। "और साथ ही मेरे लिए दो जोड़ी ब्रा और पेंटी लेते आना शहर से।" नज़रे निचे करके झिझकते हुए आगे बोली।
दीनदयाल- "क.. क... किराने का सामान तो ठीक है, पर तुम्हारी वो ब्र...ब्र...,वो तुम्हारे कपडे, वो तुम खुद ही ले आना यहाँ की दुकान से। वो महिलाओ के सामान की दुकान में, मुझे जाना थोडा ठीक नहीं लगता।" दीनदयाल जैसे साधू इन्सान से रेखा कुछ ज्यादा ही मांग बैठी शायद।
रेखा- "पर यहाँ तो गिन चुनकर दो तीन दुकाने ही है, और वहां पर कपडे अच्छी क्वालिटी के नहीं मिलते, इसीलिए आपको परेशान कर रही हूँ इस बार। अभी एक महीने पहले ही लायी थी यहाँ से, पर लगता है हफ्ते भर से ज्यादा नहीं चलेगी। प्लीज लेते आइयेगा ना।" मिन्नत भरे लहजे में रेखा ने दीनदयाल की आँखों में देखते कहा, मानो कह रही हो बुद्धू तुम नहीं लाओगे अपनी पत्नी के अंतर्वस्त्र, तो क्या पडोसी लायेगा।
दीनदयाल- "रेखा जी, आप जो कहे मुझे मंजूर है, पर ये काम मुझसे नहीं होगा। अरे हां, याद आया!!! अभी पिछले महीने ही तो जाकिर भाई ने भी कपडे की दुकान खोली है। उनके यहाँ जाकर देख लेना, वो तो अपने घर की ही दुकान है। कह रहे थे अच्छी क्वालिटी के कपडे लाते है शहर से खुद खरीद्कर। पसंद आये तो साड़ी या सूट भी लेती आना अपने लिए।" दीनदयाल ने अपनी बला टालते हुए रेखा को साड़ी की रिश्वत भी दे डाली।
जाकिर का नाम सुनते ही रेखा की आंखे चमकने लगी और साँस के इंजन ने गियर बदलकर अपनी गति बढाई। पर अपनी उत्सुकता को दबाते हुए उसने जानबूझ कर अनमने ढंग से कहा।
रेखा- "वो भी क्या लाते होंगे? आखिर है तो गाँव की ही दुकान ना। खरीदने वाले ही जब देहाती हो, तो शहरी सामान कोई रखकर करेगा भी क्या। और वैसे भी, आपके दोस्त है उनके सामने मै कैसे उन कपड़ो के बारे में पुुछूुंगी और खरीद पाऊँगी। नहीं नहीं, मुझसे नहीं होगा। आप ही ला देना।" ऐसा बोलते हुए रेखा के मन में तो लड्डू फुट रहे थे और वो दुआ मांग रही थी की दीनदयाल फिर से मना करे, ताकि उसका रास्ता साफ हो जाये।
दीनदयाल- "अरे भई, वो भी तो हमारे परिवार की तरह है, मेरे बड़े भाई जैसे। फिर तुम्हारे भी तो भैया ही हुए। तुम एक बार उनकी दुकान में जाकर देख तो आओ, अगर उचित न लगे, तो बाद में मै चलूँगा तुम्हारे साथ। जो चाहिए होगा ले आना, मै बाद में उनसे हिसाब कर लूँगा। अब मै जाता हूँ, देर हो जएगी नहीं तो।
चर्चा को वही समाप्त कर वो झटपट बाहर निकल गया मानो किसी चक्रव्यूह से निकला हो। पर जिस चर्चा को वो समाप्त कर आया था वो एक बहुत बड़े अध्याय का आरंभ करने वाली थी ये वो सपने में भी नहीं सोच सकता था।
दीनदयाल बाहर निकलते हुए दरवाजा भिड़ा गया, पर बंद होते दरवाजे के पीछे अपनी बीवी को ऐसी दुविधा के बीच छोड़ गया, जहाँ एक तरफ तो उसका चंचल मन और जवान बदन मौके का फायदा उठाने को प्रेरित कर रहा था, और दूसरी तरफ उसका दिमाग उसे सही गलत का फर्क समझाते हुए पीछे हटने को कह रहा था।
दीनदयाल को गए लगभग आधा घंटा हो चुका था, और रेखा अब भी दरवाजे की तरफ मुह किये, आंगन के बीचोबीच खड़ी थी, और अब भी उसके अन्दर उठा तूफान थमा नहीं था। तभी फोन की तेज बजने वाली घंटी ने उसे जैसे जगा दिया, और सब कुछ भूल के वो अपने कमरे में फोन के लिए लपकी।
रेखा- "हेलो... कौन बोल रहा है?" ऐसे लहजे में उसकी आवाज निकली, मानो अभी अभी ही बोलना सिखा हो उसने। अभी भी सोच के घोड़े दौड़ने शांत नहीं हुए थे।
जाकिर- "मेरी जान... मेरे अलावा और कौन हो सकता है? अब तो तू मेरी आवाज की आदत ही डाल ले। ही...ही...ही..."जाकिर की हमेशा की तरह छिछोरो जैसी हंसी फोन पर गूंजी। "क्या कर रही थी? चला गया दीनू?"
रेखा जैसे सुबह की सारी बाते ही भूल गयी, और अपने नए आशिक की आवाज के नशे से उसके पुरे शरीर में एक नए उत्साह का संचार हुआ। होठो पर मायूसी की जगह मुस्कान, दिल में असमंजस की जगह उमंग और दिमाग में संशय की जगह शरारत ने कब्ज़ा कर लिया।
रेखा- "ओफ्फो.... आप सुबह सुबह फिर से शुरू हो गए। आपको कोई काम नहीं होगा, पर मुझे तो है।" मन ही मन खुश होने के बावजूद भी रेखा जाकिर को छेड़ कर मजा ले रही थी।
रेखा- "जी सुनिए !!!"
दीन दयाल- "हाँ बोलिए, क्या बात है रेखा जी!!!"
दीनदयाल रेखा से ऐसे ही इज्जत देकर बात करता है। क्युकी रेखा की सुन्दरता और कम उम्र होने के बावजूद उसके साथ शादी होने से वो शायद हमेशा थोडा ग्लानी और हीन भावना से दबा रहता था।
रेखा- "वो, आते आते कुछ किराने का सामान लेते आइयेगा। मैंने इस पर्ची में सब लिख दिया है।" अपने कमल के फूलो जैसे हाथ में एक कागज की पर्ची आगे बढाती रेखा बोली। "और साथ ही मेरे लिए दो जोड़ी ब्रा और पेंटी लेते आना शहर से।" नज़रे निचे करके झिझकते हुए आगे बोली।
दीनदयाल- "क.. क... किराने का सामान तो ठीक है, पर तुम्हारी वो ब्र...ब्र...,वो तुम्हारे कपडे, वो तुम खुद ही ले आना यहाँ की दुकान से। वो महिलाओ के सामान की दुकान में, मुझे जाना थोडा ठीक नहीं लगता।" दीनदयाल जैसे साधू इन्सान से रेखा कुछ ज्यादा ही मांग बैठी शायद।
रेखा- "पर यहाँ तो गिन चुनकर दो तीन दुकाने ही है, और वहां पर कपडे अच्छी क्वालिटी के नहीं मिलते, इसीलिए आपको परेशान कर रही हूँ इस बार। अभी एक महीने पहले ही लायी थी यहाँ से, पर लगता है हफ्ते भर से ज्यादा नहीं चलेगी। प्लीज लेते आइयेगा ना।" मिन्नत भरे लहजे में रेखा ने दीनदयाल की आँखों में देखते कहा, मानो कह रही हो बुद्धू तुम नहीं लाओगे अपनी पत्नी के अंतर्वस्त्र, तो क्या पडोसी लायेगा।
दीनदयाल- "रेखा जी, आप जो कहे मुझे मंजूर है, पर ये काम मुझसे नहीं होगा। अरे हां, याद आया!!! अभी पिछले महीने ही तो जाकिर भाई ने भी कपडे की दुकान खोली है। उनके यहाँ जाकर देख लेना, वो तो अपने घर की ही दुकान है। कह रहे थे अच्छी क्वालिटी के कपडे लाते है शहर से खुद खरीद्कर। पसंद आये तो साड़ी या सूट भी लेती आना अपने लिए।" दीनदयाल ने अपनी बला टालते हुए रेखा को साड़ी की रिश्वत भी दे डाली।
जाकिर का नाम सुनते ही रेखा की आंखे चमकने लगी और साँस के इंजन ने गियर बदलकर अपनी गति बढाई। पर अपनी उत्सुकता को दबाते हुए उसने जानबूझ कर अनमने ढंग से कहा।
रेखा- "वो भी क्या लाते होंगे? आखिर है तो गाँव की ही दुकान ना। खरीदने वाले ही जब देहाती हो, तो शहरी सामान कोई रखकर करेगा भी क्या। और वैसे भी, आपके दोस्त है उनके सामने मै कैसे उन कपड़ो के बारे में पुुछूुंगी और खरीद पाऊँगी। नहीं नहीं, मुझसे नहीं होगा। आप ही ला देना।" ऐसा बोलते हुए रेखा के मन में तो लड्डू फुट रहे थे और वो दुआ मांग रही थी की दीनदयाल फिर से मना करे, ताकि उसका रास्ता साफ हो जाये।
दीनदयाल- "अरे भई, वो भी तो हमारे परिवार की तरह है, मेरे बड़े भाई जैसे। फिर तुम्हारे भी तो भैया ही हुए। तुम एक बार उनकी दुकान में जाकर देख तो आओ, अगर उचित न लगे, तो बाद में मै चलूँगा तुम्हारे साथ। जो चाहिए होगा ले आना, मै बाद में उनसे हिसाब कर लूँगा। अब मै जाता हूँ, देर हो जएगी नहीं तो।
चर्चा को वही समाप्त कर वो झटपट बाहर निकल गया मानो किसी चक्रव्यूह से निकला हो। पर जिस चर्चा को वो समाप्त कर आया था वो एक बहुत बड़े अध्याय का आरंभ करने वाली थी ये वो सपने में भी नहीं सोच सकता था।
दीनदयाल बाहर निकलते हुए दरवाजा भिड़ा गया, पर बंद होते दरवाजे के पीछे अपनी बीवी को ऐसी दुविधा के बीच छोड़ गया, जहाँ एक तरफ तो उसका चंचल मन और जवान बदन मौके का फायदा उठाने को प्रेरित कर रहा था, और दूसरी तरफ उसका दिमाग उसे सही गलत का फर्क समझाते हुए पीछे हटने को कह रहा था।
दीनदयाल को गए लगभग आधा घंटा हो चुका था, और रेखा अब भी दरवाजे की तरफ मुह किये, आंगन के बीचोबीच खड़ी थी, और अब भी उसके अन्दर उठा तूफान थमा नहीं था। तभी फोन की तेज बजने वाली घंटी ने उसे जैसे जगा दिया, और सब कुछ भूल के वो अपने कमरे में फोन के लिए लपकी।
रेखा- "हेलो... कौन बोल रहा है?" ऐसे लहजे में उसकी आवाज निकली, मानो अभी अभी ही बोलना सिखा हो उसने। अभी भी सोच के घोड़े दौड़ने शांत नहीं हुए थे।
जाकिर- "मेरी जान... मेरे अलावा और कौन हो सकता है? अब तो तू मेरी आवाज की आदत ही डाल ले। ही...ही...ही..."जाकिर की हमेशा की तरह छिछोरो जैसी हंसी फोन पर गूंजी। "क्या कर रही थी? चला गया दीनू?"
रेखा जैसे सुबह की सारी बाते ही भूल गयी, और अपने नए आशिक की आवाज के नशे से उसके पुरे शरीर में एक नए उत्साह का संचार हुआ। होठो पर मायूसी की जगह मुस्कान, दिल में असमंजस की जगह उमंग और दिमाग में संशय की जगह शरारत ने कब्ज़ा कर लिया।
रेखा- "ओफ्फो.... आप सुबह सुबह फिर से शुरू हो गए। आपको कोई काम नहीं होगा, पर मुझे तो है।" मन ही मन खुश होने के बावजूद भी रेखा जाकिर को छेड़ कर मजा ले रही थी।