18-04-2020, 11:50 AM
(18-04-2020, 07:23 AM)Niharikasaree Wrote:फिर एक कुर्ती के नीचे, अपनी ब्रा और पैंटी डाली, और एक पेटिकोट के नीचे माँ की पैंटी डाल दी सूखेने , माँ को भी ऐसे ही देखा था , ब्रा - पैंटी ढक कर सूखाते हुए, सो मैंने भी वही किया।
अलग से सुखाते हुए शर्म आ रही थी, पड़ोस वाली भाभी देख लेंगी तो क्या सोचेंगी।फिर जल्दी से, अंदर आ गयी, सोचा अब नहा लेती हु,
क्या कहूं
शब्दहीन हूँ मैं।
जवानी की दहलीज पर कदम रखने के हर पलों के जो चित्र उकेरती हैं आप , ...एक एक पल , मन में चल रहा संघर्ष , लज्जा भी और मन भी करता है ,
बस प्रसाद जी की कामायनी की ये पंक्तिया याद आ जाती हैं
मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ मैं शालीनता सिखाती हूँ,
मतवाली सुन्दरता पग में नूपुर सी लिपट मनाती हूँ,
लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती,
कुंचित अलकों सी घुँघराली मन की मरोर बनकर जगती,
चंचल किशोर सुन्दरता की मैं करती रहती रखवाली,
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ जो बनती कानों की लाली।"
और फिर आगे का प्रश्न ,...
यह आज समझ तो पाई हूँ मैं दुर्बलता में नारी हूँ,
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सबसे हारी हूँ।
पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है?
सर्वस्व-समर्पण करने की विश्वास-महा-तरु-छाया में,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती हैं माया में?
आप की पोस्ट एक बार में पढ़ने की नहीं होती , बार बार और यादों से जोड़ जोड़ कर ,... और फिर कैसे दिन गुजर जाते हैं
गुड़िया की शादी रचाने वाली , उनकी डोली विदा करने वाली खुद डोली में बैठकर कैसे चली जाती हैं
अद्भुत