16-04-2020, 12:26 PM
(16-04-2020, 12:40 AM)Niharikasaree Wrote: "झुक के गुड्डी के कान में मैं बोली ,
" क्यों कैसा लग रहा है भैय्या का ,चल अब शर्म छोड़ और खुल के मस्ती कर।
है न खूब मोटा कडा कडा। सोच जब ऊपर ऊपर से इत्ता मजा दे रहा है तो अंदर घुसेगा कितना मजा देगा। ""
कोमल जी,
"आपने , वो बस वाले किस्से की याद दिला दी, मेरी "उसकी" रगड़ायी हो रही थी, मैं यह सोच रही थी , अगर पैंटी न होती तो कितना अच्छा होता , बस मैं रास्ते की धक्को मैं इनके "धक्के" सुर, ताल, लय सब बन जाती।
शर्म, ही तो ले डूबती है हम लड़कियों को , नहीं तो हम, "निचे वाली" के बरसते "सावन" मैं सबको कभी के बहा ले जाते,
अब तो यह "सावन" उनके लिए ही "बरसता" है.
कोमल जी, आपके तड़पाने और लिखने की तारीफ, और साथ ही एकदम जानमारु , सटीक कहानी मैं रस भरते हुए पिक। क्या बताऊ , रस वहां भरते हैं , गीली हम होती हैं. - सच्ची।
अभी आगे और पढ़ना था, पर लिखे बिना रहा नहीं गया, इस ब्लाउज डिज़ाइन की वजह से.
मुझे बहुत अच्छी लगी, एकदम कातिलाना , जैसे आपकी - लेखनी।
निहारिका जी कोमल जी एक नारी बदन में आग लगा ही देती है
ओर ये भी सीखा देती है हम कैसे उन के बदन में आग लगा सकती है
प्रेम शास्त्र की अदित्य हस्ताक्षर है कोमल जी
साथ में आप की उपस्थिति क्या कहूँ ऊफ़्फ़
आप ने बिल्कुल सही कहा है हम यहां रोज " गीली "हो रही है
अगर उस समय पेंटी ना होती तो सफर यादगार हो जाता
वेसे वो घर मे पैंटी कहाँ पहनने देते है हम को
जब चाहें निहुराके के...
निहारिका जी बस इसी तरह साथ बनाएं रखें
आप सब की कुसुम सोनी