26-01-2020, 07:52 AM
छत पर बना ये स्टोर रूम शादी की वजह से ठसा थस भरा हुवा था. घर का सारा बेकार समान यही रखवा दिए गये थे. टूटी हुई कुर्सियाँ, पुरानी आल्मिरा, पुराना बड़े वाला संदूक सब इसी कमरे में पड़े थे. मुझे ठीक तो नही लग रहा था ये सब करना मगर मैं क्या करती पेट दर्द से फटा जा रहा था. मैं दबे पाँव कमरे में घुस्स गयी. मगर जब दरवाजा बंद करने लगी तो मुझे बोहोत आश्चर्या हुआ.
दरवाजा भी स्टोर में रखे समान की तरह पुराना हो चुका था और उसकी कुण्डी टूटी हुई थी. मतलब की दरवाजा झुका तो सकती थी मगर अंदर से मुझे लॉक नही कर सकती थी. मेरी समझ मे कुछ नही आ रहा था कि क्या किया जाए क्यूकी अमित का घर पीछे ही था और वो काफ़ी देर से मुझे ही घूरे जा रहा था. मैने कमरे में चारो तरफ नज़र दौड़ाई. कमरे में पुरानी आल्मिरा थी. उसके साथ संदूक भी रखा था. संदूक को देख कर मुझको ख्याल आया कि इनके पीछे बैठ कर आराम से शुषु किया जा सकता है. ये ख्याल आते ही राहत की एक लहर मेरे तन बदन में दौड़ गयी. मैने चुपके से बाहर झाँक कर देखा. बाहर कोई नही था. मैने उस दरवाजे को पूरा झुका दिया और एक पुराना सा डब्बा उठा लिया जिसमें बैठ कर आराम से टाय्लेट किया जा सके. डिब्बे को लेकर मैं आल्मिरा के पीछे चली आई और अपनी सारी उपर उठाई, पेटिकोट को भी उपर सरकाया और ठीक डब्बे के उपर अपने नितंबो को झुका दिया. फिर मुझे वो राहत की साँस मिली जिसका कि अंदाज़ा भी नही लगाया जा सकता.
इतनी देर से रोके हुए टाय्लेट को करने मे मैं इतना खो गयी कि मुझे ध्यान ही नही रहा कि कोई कमरे में आ गया है. दरअसल मुझे अपने टाय्लेट की आवाज़ में कुछ सुनाई ही नही दिया और आने वाला वैसे भी दबे पाँव आया था.
“हाए रे क्या मस्त गांद है तेरी. कोन सा साबुन लगाती हो इस पर जो ये ऐसे दूध की तरह चमक रही है.” कमरे मे आई उस आवाज़ को सुन कर तो मेरे पैरो के नीचे से ज़मीन ही निकल गयी. समझ ही नही आ रहा था कि क्या करू क्या ना करू.
“त..त…तुम, तुम यहाँ क्या कर रहे हो.” मैने उस बुड्ढे मुकेश शर्मा को अपनी साडी नीचे करते हुए कहा. ये वही मुकेश शर्मा था जो मेरे गाँव मे आए हुए पहले ही दिन मुझे वासना भरी थर्कि नज़रो से देख रहा था.
“मैं तो हुस्न का दीदार कर रहा हूँ मेरी रानी, पर ये बताओ कि तुम यहाँ क्या कर रही हो. तुम्हारा मूत स्टोर में ही निकलता है क्या.” उस बुड्ढे ने अपने दाँत निकाल कर दिखाते हुए कहा.
मुझसे ये बर्दास्त नही हुआ और मैं अब कोई भी इस तरह का ख़तरा मोल नही लेना चाहती थी जैसा मेरे और अमित के बीच हुआ वो सब मैं दोहराना नही चाहती थी इस लिए मैने आगे बढ़ कर एक तमाचा जड़ दिया मुकेश शर्मा के मूह पर. “तुम समझते क्या हो खुद को. दफ़ा हो जाओ यहाँ से. उमर देखी है अपनी पैर कबार मे लटक रहे है. और यहाँ पर इस तरह की बात कर रहे हो.”
एक पल को तो शर्मा की आँखो के आगे तारे घूम गये. फिर कुछ संभाल कर वो बोला, “जितनी ज़ोर से तूने ये तमाचा मारा है ना, उतनी ही ज़ोर से तेरी गांद ना मारी तो मेरा नाम मुकेश शर्मा नही.”
मेरा मन किया की इसके मुँह पर एक तमाचा और मारु और यही सोच कर मैं उसे कुछ बोलने ही वाली थी कि मुझे स्टोर के बाहर कुछ लोगो की आवाज़ सुनाई दी. बाहर से आती हुई आवाज़ को सुन कर मेरी तो साँस ही अटक गयी.
“लगता है कुछ लोग टहलने के लिए उपर आ गये हैं.” उस बूढ़े शर्मा ने मेरी तरफ देख कर मुस्कुराते हुए कहा.
“श्ह्ह चुप रहो तुम कोई सुन लेगा.” मैने उस बूढ़े से धीरे से कहा. मेरे चेहरे पर चिंता की लकीरे सॉफ देखी जा सकती थी. मैने थोड़ा आगे आकर झाँक कर देखा. दरवाजा बंद था. ऐसे महॉल मे मैं बाहर जाउन्गि तो लोग पता नही क्या समझेंगे. यही सोच कर मैं बुरी तरह से घबरा रही थी पर वो बूढ़ा मुकेश शर्मा तो सीना ताने खड़ा था जैसे कि उसे कोई डर ही ना हो.
“हुम्हे यही रहना होगा कुछ देर, जब तक कि ये लोग ना चले जायें.” मैने उम्मीद भरी नज़रो से उस बुड्ढे की तरफ देखते हुए धीरे से कहा.
“पर मुझे जाना होगा. मुझे पेसाब करना है.” उस बूढ़े ने बाहर की तरफ देखते हुए कहा.
“थोड़ी देर रुक नही सकते तुम. देखते नही बाहर लोग है. किसी ने मुझे यहा देख लिया तो पता नही क्या क्या सोचेंगे मेरे बारे में.” मैने रिक्वेस्ट करते हुए कहा.
“ऐसा क्या ग़लत सोचेंगे, ठीक ही सोचेंगे तुम्हारे बारे में.” बुढहे ने मेरी तरफ देखा और अपनी बत्तीसी निकाल दी.
“क्या मतलब है तुम्हारा?” मैने चोन्क्ते हुए कहा.
“क्या तुमने पीनू से गांद नही मरवाई थी… सच सच बताना क्या उसने तुम्हारी गांद मे अपना लंड नही डाला था.” वो बुड्ढ़ा बोलते हुए थोड़ा सा मेरे नज़दीक आ गया था.
उसके मुँह से ये सब सुन कर मैं एक दम हैरान रह गयी. मेरी समझ मे नही आ रहा था कि क्या जवाब दू. फिर भी मैने अपनी लड़खड़ती हुई आवाज़ को संभालते हुए कहा कि “ये सब झूठ है.”
दरवाजा भी स्टोर में रखे समान की तरह पुराना हो चुका था और उसकी कुण्डी टूटी हुई थी. मतलब की दरवाजा झुका तो सकती थी मगर अंदर से मुझे लॉक नही कर सकती थी. मेरी समझ मे कुछ नही आ रहा था कि क्या किया जाए क्यूकी अमित का घर पीछे ही था और वो काफ़ी देर से मुझे ही घूरे जा रहा था. मैने कमरे में चारो तरफ नज़र दौड़ाई. कमरे में पुरानी आल्मिरा थी. उसके साथ संदूक भी रखा था. संदूक को देख कर मुझको ख्याल आया कि इनके पीछे बैठ कर आराम से शुषु किया जा सकता है. ये ख्याल आते ही राहत की एक लहर मेरे तन बदन में दौड़ गयी. मैने चुपके से बाहर झाँक कर देखा. बाहर कोई नही था. मैने उस दरवाजे को पूरा झुका दिया और एक पुराना सा डब्बा उठा लिया जिसमें बैठ कर आराम से टाय्लेट किया जा सके. डिब्बे को लेकर मैं आल्मिरा के पीछे चली आई और अपनी सारी उपर उठाई, पेटिकोट को भी उपर सरकाया और ठीक डब्बे के उपर अपने नितंबो को झुका दिया. फिर मुझे वो राहत की साँस मिली जिसका कि अंदाज़ा भी नही लगाया जा सकता.
इतनी देर से रोके हुए टाय्लेट को करने मे मैं इतना खो गयी कि मुझे ध्यान ही नही रहा कि कोई कमरे में आ गया है. दरअसल मुझे अपने टाय्लेट की आवाज़ में कुछ सुनाई ही नही दिया और आने वाला वैसे भी दबे पाँव आया था.
“हाए रे क्या मस्त गांद है तेरी. कोन सा साबुन लगाती हो इस पर जो ये ऐसे दूध की तरह चमक रही है.” कमरे मे आई उस आवाज़ को सुन कर तो मेरे पैरो के नीचे से ज़मीन ही निकल गयी. समझ ही नही आ रहा था कि क्या करू क्या ना करू.
“त..त…तुम, तुम यहाँ क्या कर रहे हो.” मैने उस बुड्ढे मुकेश शर्मा को अपनी साडी नीचे करते हुए कहा. ये वही मुकेश शर्मा था जो मेरे गाँव मे आए हुए पहले ही दिन मुझे वासना भरी थर्कि नज़रो से देख रहा था.
“मैं तो हुस्न का दीदार कर रहा हूँ मेरी रानी, पर ये बताओ कि तुम यहाँ क्या कर रही हो. तुम्हारा मूत स्टोर में ही निकलता है क्या.” उस बुड्ढे ने अपने दाँत निकाल कर दिखाते हुए कहा.
मुझसे ये बर्दास्त नही हुआ और मैं अब कोई भी इस तरह का ख़तरा मोल नही लेना चाहती थी जैसा मेरे और अमित के बीच हुआ वो सब मैं दोहराना नही चाहती थी इस लिए मैने आगे बढ़ कर एक तमाचा जड़ दिया मुकेश शर्मा के मूह पर. “तुम समझते क्या हो खुद को. दफ़ा हो जाओ यहाँ से. उमर देखी है अपनी पैर कबार मे लटक रहे है. और यहाँ पर इस तरह की बात कर रहे हो.”
एक पल को तो शर्मा की आँखो के आगे तारे घूम गये. फिर कुछ संभाल कर वो बोला, “जितनी ज़ोर से तूने ये तमाचा मारा है ना, उतनी ही ज़ोर से तेरी गांद ना मारी तो मेरा नाम मुकेश शर्मा नही.”
मेरा मन किया की इसके मुँह पर एक तमाचा और मारु और यही सोच कर मैं उसे कुछ बोलने ही वाली थी कि मुझे स्टोर के बाहर कुछ लोगो की आवाज़ सुनाई दी. बाहर से आती हुई आवाज़ को सुन कर मेरी तो साँस ही अटक गयी.
“लगता है कुछ लोग टहलने के लिए उपर आ गये हैं.” उस बूढ़े शर्मा ने मेरी तरफ देख कर मुस्कुराते हुए कहा.
“श्ह्ह चुप रहो तुम कोई सुन लेगा.” मैने उस बूढ़े से धीरे से कहा. मेरे चेहरे पर चिंता की लकीरे सॉफ देखी जा सकती थी. मैने थोड़ा आगे आकर झाँक कर देखा. दरवाजा बंद था. ऐसे महॉल मे मैं बाहर जाउन्गि तो लोग पता नही क्या समझेंगे. यही सोच कर मैं बुरी तरह से घबरा रही थी पर वो बूढ़ा मुकेश शर्मा तो सीना ताने खड़ा था जैसे कि उसे कोई डर ही ना हो.
“हुम्हे यही रहना होगा कुछ देर, जब तक कि ये लोग ना चले जायें.” मैने उम्मीद भरी नज़रो से उस बुड्ढे की तरफ देखते हुए धीरे से कहा.
“पर मुझे जाना होगा. मुझे पेसाब करना है.” उस बूढ़े ने बाहर की तरफ देखते हुए कहा.
“थोड़ी देर रुक नही सकते तुम. देखते नही बाहर लोग है. किसी ने मुझे यहा देख लिया तो पता नही क्या क्या सोचेंगे मेरे बारे में.” मैने रिक्वेस्ट करते हुए कहा.
“ऐसा क्या ग़लत सोचेंगे, ठीक ही सोचेंगे तुम्हारे बारे में.” बुढहे ने मेरी तरफ देखा और अपनी बत्तीसी निकाल दी.
“क्या मतलब है तुम्हारा?” मैने चोन्क्ते हुए कहा.
“क्या तुमने पीनू से गांद नही मरवाई थी… सच सच बताना क्या उसने तुम्हारी गांद मे अपना लंड नही डाला था.” वो बुड्ढ़ा बोलते हुए थोड़ा सा मेरे नज़दीक आ गया था.
उसके मुँह से ये सब सुन कर मैं एक दम हैरान रह गयी. मेरी समझ मे नही आ रहा था कि क्या जवाब दू. फिर भी मैने अपनी लड़खड़ती हुई आवाज़ को संभालते हुए कहा कि “ये सब झूठ है.”