15-01-2020, 12:22 PM
इतने में आहट हुई। मालती बाहर आयी, देखा कि माधो है। उसके साथ नंगे सिर एक मनुष्य है। माधो का कोट उसके गले में पड़ा है। पति के हाथों में कोई गठरी नहीं है, वह शर्म से सिर झुकाए खड़ा है। यह देखकर मालती का मन निराशा से व्याकुल हो गया। उसने समझा, कोई ठग है, त्योरी च़ाकर खड़ी हो देखने लगी कि वह क्या करता है।
माधो बोला—यदि भोजन तैयार हो तो ले आओ।
मालती जलकर राख हो गई, कुछ न बोली। चुपचाप वहीं खड़ी रही। माधो ताड़ गया कि स्त्री क्रोधग्नि में जल रही है।
माधो—क्या भोजन नहीं बनाया?
मालती—(क्रोध से) हां, बनाया है, परन्तु तुम्हारे वास्ते नहीं, तुम तो वस्त्र मोल लेने गए थे? यह क्या किया, अपना कोट भी दूसरे को दे दिया? इस ठग को कहां से लाए? यहां कोई सदाबरत थोड़े ही चलता है।
माधो—मालती, बसबस! बिना सोचेसमझे किसी को बुरा कहना उचित नहीं है। पहले पूछ तो लो कि यह कैसा....
मालती—पहले यह बताओ कि रुपये कहां फेंके?
माधो—यह लो अपने तीनों रुपये, गांव वालों ने कुछ नहीं दिया।
मालती—(रुपये लेकर) मेरे पास संसार भर के नंगेलुच्चों के लिए भोजन नहीं है।
माधो—फिर वही बात! पहले इससे पूछ तो लो, क्या कहता है।
मालती—बसबस! पूछ चुकी। मैं तो विवाह ही करना नहीं चाहती थी, तुम तो घरखोऊ हो।
माधो ने बहुतेरा समझाया वह एक न मानी। दस वर्ष के पुराने झगड़े याद करके बकवाद करने लगी, यहां तक कि क्रोध में आकर माधो की जाकेट फाड़ डाली और घर से बाहर जाने लगी। पर रास्ते में रुक गई और पति से बोली—अगर यह भलामानस होता तो नंगा न होता। भला तुम्हारी भेंट इससे कहां हुई?
माधो—बस, यही तो मैं तुमको बतलाना चाहता हूं। यह गांव के बाहर मन्दिर के पास नंगा बैठा था। भला विचार तो कर, यह ऋतु बाहर नंगा बैठने की है? दैवगति से मैं वहां जा पहुंचा, नहीं तो क्या जाने यह मरता या जीता। हम क्या जानते हैं कि इस पर क्या विपत्ति पड़ी है। मैं अपना कोट पहनाकर इसे यहां ले आया हूं। देख, क्रोध मत कर, क्रोध पाप का मूल है। एक दिन हम सबको यह संसार छोड़ना है।
मालती कुछ कहना चाहती थी, पर मनुष्य को देखकर चुप हो गई। वह आंखें मूंदे, घुटनों पर हाथ रखे, मौन धारण किए स्थिर बैठा था।
माधो—प्यारी! क्या तुममें ईश्वर का परेम नहीं?
यह वचन सुन, मनुष्य को देखकर मालती का चित्त तुरन्त पिघल गया, झट से उठी और भोजन लाकर उसके सामने रख दिया और बोली—खाइए।
मालती की यह दशा देखकर मनुष्य का मुखारविंद खिल गया और वह हंसा। भोजन कर लेने पर मालती बोली—तुम कहां से आये हो?
मनुष्य—मैं यहां का रहने वाला नहीं।
मालती—तुम मन्दिर के पास किस परकार पहुंचे?
मनुष्य—मैं कुछ नहीं बता सकता।
मालती—क्या किसी ने तुम्हारा माल चुरा लिया?
मनुष्य—किसी ने नहीं। परमेश्वर ने यह दंड दिया है!
मालती—क्या तुम वहां नंगे बैठे थे?
मनुष्य—हां, शीत के मारे ठिठुर रहा था। माधो ने देखकर दया की, कोट पहनाकर मुझे यहां ले आया, तुमने तरस खाकर मुझे भोजन खिला दिया। भगवान तुम दोनों का भला करे।
मालती ने एक कुरता और दे दिया। रात को जब वह अपने पति के पास जाकर लेटी तो यह बातें करने लगी—
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मालती—सुनते हो?
माधो—हां।
मालती—अन्न तो चुक गया। कल भोजन कहां से करेंगे? शायद पड़ोसिन से मांगना पड़े।
माधो—जिएंगे तो अन्न भी कहीं से मिल ही जाएगा।
मालती—वह मनुष्य अच्छा आदमी मालूम होता है। अपना पता क्यों नहीं बतलाता?
माधो—क्या जानूं। कोई कारण होगा।
मालती—हम औरों को देते हैं, पर हमको कोई नहीं देता?
माधे ने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया, मुंह फेरकर सो गया।
4
परातःकाल हो गया। माधो जागा, बच्चे अभी सोये पड़े थे। मालती पड़ोसिन से अन्न मांगने गयी थी। अजनबी मनुष्य भूमि पर बैठा आकाश की ओर देख रहा था, परन्तु उसका मुख अब परसन्न था।
माधो—मित्र, पेट रोटी मांगता है, शरीर वस्त्र; अतएव काम करना आवश्यक है। तुम कोई काम जानते हो?
मनुष्य—मैं कोई काम नहीं जानता।
माधो बोला—यदि भोजन तैयार हो तो ले आओ।
मालती जलकर राख हो गई, कुछ न बोली। चुपचाप वहीं खड़ी रही। माधो ताड़ गया कि स्त्री क्रोधग्नि में जल रही है।
माधो—क्या भोजन नहीं बनाया?
मालती—(क्रोध से) हां, बनाया है, परन्तु तुम्हारे वास्ते नहीं, तुम तो वस्त्र मोल लेने गए थे? यह क्या किया, अपना कोट भी दूसरे को दे दिया? इस ठग को कहां से लाए? यहां कोई सदाबरत थोड़े ही चलता है।
माधो—मालती, बसबस! बिना सोचेसमझे किसी को बुरा कहना उचित नहीं है। पहले पूछ तो लो कि यह कैसा....
मालती—पहले यह बताओ कि रुपये कहां फेंके?
माधो—यह लो अपने तीनों रुपये, गांव वालों ने कुछ नहीं दिया।
मालती—(रुपये लेकर) मेरे पास संसार भर के नंगेलुच्चों के लिए भोजन नहीं है।
माधो—फिर वही बात! पहले इससे पूछ तो लो, क्या कहता है।
मालती—बसबस! पूछ चुकी। मैं तो विवाह ही करना नहीं चाहती थी, तुम तो घरखोऊ हो।
माधो ने बहुतेरा समझाया वह एक न मानी। दस वर्ष के पुराने झगड़े याद करके बकवाद करने लगी, यहां तक कि क्रोध में आकर माधो की जाकेट फाड़ डाली और घर से बाहर जाने लगी। पर रास्ते में रुक गई और पति से बोली—अगर यह भलामानस होता तो नंगा न होता। भला तुम्हारी भेंट इससे कहां हुई?
माधो—बस, यही तो मैं तुमको बतलाना चाहता हूं। यह गांव के बाहर मन्दिर के पास नंगा बैठा था। भला विचार तो कर, यह ऋतु बाहर नंगा बैठने की है? दैवगति से मैं वहां जा पहुंचा, नहीं तो क्या जाने यह मरता या जीता। हम क्या जानते हैं कि इस पर क्या विपत्ति पड़ी है। मैं अपना कोट पहनाकर इसे यहां ले आया हूं। देख, क्रोध मत कर, क्रोध पाप का मूल है। एक दिन हम सबको यह संसार छोड़ना है।
मालती कुछ कहना चाहती थी, पर मनुष्य को देखकर चुप हो गई। वह आंखें मूंदे, घुटनों पर हाथ रखे, मौन धारण किए स्थिर बैठा था।
माधो—प्यारी! क्या तुममें ईश्वर का परेम नहीं?
यह वचन सुन, मनुष्य को देखकर मालती का चित्त तुरन्त पिघल गया, झट से उठी और भोजन लाकर उसके सामने रख दिया और बोली—खाइए।
मालती की यह दशा देखकर मनुष्य का मुखारविंद खिल गया और वह हंसा। भोजन कर लेने पर मालती बोली—तुम कहां से आये हो?
मनुष्य—मैं यहां का रहने वाला नहीं।
मालती—तुम मन्दिर के पास किस परकार पहुंचे?
मनुष्य—मैं कुछ नहीं बता सकता।
मालती—क्या किसी ने तुम्हारा माल चुरा लिया?
मनुष्य—किसी ने नहीं। परमेश्वर ने यह दंड दिया है!
मालती—क्या तुम वहां नंगे बैठे थे?
मनुष्य—हां, शीत के मारे ठिठुर रहा था। माधो ने देखकर दया की, कोट पहनाकर मुझे यहां ले आया, तुमने तरस खाकर मुझे भोजन खिला दिया। भगवान तुम दोनों का भला करे।
मालती ने एक कुरता और दे दिया। रात को जब वह अपने पति के पास जाकर लेटी तो यह बातें करने लगी—
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मालती—सुनते हो?
माधो—हां।
मालती—अन्न तो चुक गया। कल भोजन कहां से करेंगे? शायद पड़ोसिन से मांगना पड़े।
माधो—जिएंगे तो अन्न भी कहीं से मिल ही जाएगा।
मालती—वह मनुष्य अच्छा आदमी मालूम होता है। अपना पता क्यों नहीं बतलाता?
माधो—क्या जानूं। कोई कारण होगा।
मालती—हम औरों को देते हैं, पर हमको कोई नहीं देता?
माधे ने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया, मुंह फेरकर सो गया।
4
परातःकाल हो गया। माधो जागा, बच्चे अभी सोये पड़े थे। मालती पड़ोसिन से अन्न मांगने गयी थी। अजनबी मनुष्य भूमि पर बैठा आकाश की ओर देख रहा था, परन्तु उसका मुख अब परसन्न था।
माधो—मित्र, पेट रोटी मांगता है, शरीर वस्त्र; अतएव काम करना आवश्यक है। तुम कोई काम जानते हो?
मनुष्य—मैं कोई काम नहीं जानता।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.