08-01-2020, 11:27 AM
अगले चौबीस घंटे पंकज पर बहुत भारी पड़े. उन्हें एक-एक पल एक साल के बराबर लग रहा था. वे निराली की कल्पना में डूबे रहे. उनकी हालत सुहागरात को दुल्हन की प्रतीक्षा करते दूल्हे जैसी थी. किसी तरह अगली सुबह आई. रोज की तरह सुबह आठ बजे निराली भी आ गई. जब वो अन्दर जाने लगी तो पंकज ने पीछे से उसे अपनी बांहों में जकड़ लिया. वे उसे तुरंत बैडरूम में ले जाना चाहते थे लेकिन निराली ने उनकी पकड़ से छूट कर कहा, “ये क्या, बाबूजी? मैं कहीं भागी जा रही हूँ? पहले मुझे अपना काम तो कर लेने दो.”
“काम की क्या जल्दी है? वो तो बाद में भी हो सकता है!” पंकज ने बेसब्री से कहा.
“नहीं, मैं पहले घर का काम करूंगी. आपने कहा था ना कि आप मेरी हर शर्त मानेंगे.”
अब बेचारे पंकज के पास कोई जवाब नहीं था. उन्हें एक घंटे और इंतजार करना था. वे अपने बैडरूम में चले गए और निराली अपने रोजाना के काम में लग गई. पंकज ने कितनी कल्पनाएं कर रखी थीं कि वे आज निराली के साथ क्या-क्या करेंगे! एक घंटे तक वही कल्पनाएं उनके दिमाग में घूमती रहीं. बीच-बीच में उन्हें यह भी लग रहा था कि निराली आज काम में ज्यादा ही वक़्त लगा रही है! पंकज का एक घंटा बड़ी बेचैनी से बीता. कभी वे बिस्तर पर लेट जाते तो कभी कुर्सी पर बैठते … कभी उठ कर खिड़की से बाहर झांकते तो कभी अपनी तैय्यारियों का जायज़ा लेते (उन्होंने तकिये के नीचे एक लग्जरी कन्डोम का पैकेट और जैली की एक ट्यूब रख रखी थी.)
नौ बज चुके थे. धूप तेज हो गई थी. पंखा चलने और खिड़की खुली होने के बावजूद कमरे में गर्मी बढ़ गई थी. पर पंकज को इस गर्मी का कोई एहसास नहीं था. उन्हें एहसास था सिर्फ अपने अन्दर की गर्मी का. वे खिड़की के पर्दों के बीच से बाहर की तरफ देख रहे थे कि उन्हें अचानक कमरे का दरवाजा बंद होने की आवाज सुनाई दी. उन्होंने मुड़ कर देखा. निराली दरवाजे के पास खड़ी थी. उसकी नज़रें शर्म से झुकी हुई थीं.
निराली के कपडे हमेशा जैसे ही थे पर पंकज को लाल रंग की साडी और ब्लाउज में वो नयी नवेली दुल्हन जैसी लग रही थी. वे कामातुर हो कर निराली की तरफ बढे. उनकी कल्पना आज हकीकत में बदलने वाली थी. पास पहुँच कर उन्होने निराली को अपने सीने से लगा लिया और उसे बेसब्री से चूमने लगे. उन्होने अब तक अपनी पत्नी के अलावा किसी स्त्री को नहीं चूमा था. निराली को चूमने में उन्हें एक अलग तरह का मज़ा आ रहा था. जैसे ही उनका चुम्बन ख़त्म हुआ, निराली थोड़ा पीछे हट कर बोली, “ऐसी क्या जल्दी है, बाबूजी? … खिड़की से किसी ने देख लिया तो?”
“खिड़की के बाहर तो सुनसान है. वहां से कौन देखेगा?”
“मर्द लोग ऐसी ही लापरवाही करते हैं. उनका क्या बिगड़ता है? बदनाम तो औरत होती है. … हटिये, मैं देखती हूँ.”
निराली खिड़की के पास गई. उसने पर्दों के बीच से बाहर झाँका. इधर-उधर देखने के बाद जब उसे तसल्ली हो गई तो उसने पर्दों को एडजस्ट किया और पंकज के पास वापस आ कर बोली, “सब ठीक है. अब कर लीजिये जो करना है.”
“करना तो बहुत कुछ है. पर पहले मैं तुम्हे अच्छी तरह देखना चाहता हूँ.”
“देख तो रहे हैं मुझे, अब अच्छी तरह कैसे देखेंगे?”
“अभी तो मैं तुम्हे कम और तुम्हारे कपड़ों को ज्यादा देख रहा हूँ. अगर तुम अपने कपडों से बाहर निकलो तो मैं तुम्हे देख पाऊंगा.” पंकज ने कहा.
“मुझे शर्म आ रही है, बाबूजी. पहले आप उतारिये,” निराली ने सर झुका कर कहा.
“काम की क्या जल्दी है? वो तो बाद में भी हो सकता है!” पंकज ने बेसब्री से कहा.
“नहीं, मैं पहले घर का काम करूंगी. आपने कहा था ना कि आप मेरी हर शर्त मानेंगे.”
अब बेचारे पंकज के पास कोई जवाब नहीं था. उन्हें एक घंटे और इंतजार करना था. वे अपने बैडरूम में चले गए और निराली अपने रोजाना के काम में लग गई. पंकज ने कितनी कल्पनाएं कर रखी थीं कि वे आज निराली के साथ क्या-क्या करेंगे! एक घंटे तक वही कल्पनाएं उनके दिमाग में घूमती रहीं. बीच-बीच में उन्हें यह भी लग रहा था कि निराली आज काम में ज्यादा ही वक़्त लगा रही है! पंकज का एक घंटा बड़ी बेचैनी से बीता. कभी वे बिस्तर पर लेट जाते तो कभी कुर्सी पर बैठते … कभी उठ कर खिड़की से बाहर झांकते तो कभी अपनी तैय्यारियों का जायज़ा लेते (उन्होंने तकिये के नीचे एक लग्जरी कन्डोम का पैकेट और जैली की एक ट्यूब रख रखी थी.)
नौ बज चुके थे. धूप तेज हो गई थी. पंखा चलने और खिड़की खुली होने के बावजूद कमरे में गर्मी बढ़ गई थी. पर पंकज को इस गर्मी का कोई एहसास नहीं था. उन्हें एहसास था सिर्फ अपने अन्दर की गर्मी का. वे खिड़की के पर्दों के बीच से बाहर की तरफ देख रहे थे कि उन्हें अचानक कमरे का दरवाजा बंद होने की आवाज सुनाई दी. उन्होंने मुड़ कर देखा. निराली दरवाजे के पास खड़ी थी. उसकी नज़रें शर्म से झुकी हुई थीं.
निराली के कपडे हमेशा जैसे ही थे पर पंकज को लाल रंग की साडी और ब्लाउज में वो नयी नवेली दुल्हन जैसी लग रही थी. वे कामातुर हो कर निराली की तरफ बढे. उनकी कल्पना आज हकीकत में बदलने वाली थी. पास पहुँच कर उन्होने निराली को अपने सीने से लगा लिया और उसे बेसब्री से चूमने लगे. उन्होने अब तक अपनी पत्नी के अलावा किसी स्त्री को नहीं चूमा था. निराली को चूमने में उन्हें एक अलग तरह का मज़ा आ रहा था. जैसे ही उनका चुम्बन ख़त्म हुआ, निराली थोड़ा पीछे हट कर बोली, “ऐसी क्या जल्दी है, बाबूजी? … खिड़की से किसी ने देख लिया तो?”
“खिड़की के बाहर तो सुनसान है. वहां से कौन देखेगा?”
“मर्द लोग ऐसी ही लापरवाही करते हैं. उनका क्या बिगड़ता है? बदनाम तो औरत होती है. … हटिये, मैं देखती हूँ.”
निराली खिड़की के पास गई. उसने पर्दों के बीच से बाहर झाँका. इधर-उधर देखने के बाद जब उसे तसल्ली हो गई तो उसने पर्दों को एडजस्ट किया और पंकज के पास वापस आ कर बोली, “सब ठीक है. अब कर लीजिये जो करना है.”
“करना तो बहुत कुछ है. पर पहले मैं तुम्हे अच्छी तरह देखना चाहता हूँ.”
“देख तो रहे हैं मुझे, अब अच्छी तरह कैसे देखेंगे?”
“अभी तो मैं तुम्हे कम और तुम्हारे कपड़ों को ज्यादा देख रहा हूँ. अगर तुम अपने कपडों से बाहर निकलो तो मैं तुम्हे देख पाऊंगा.” पंकज ने कहा.
“मुझे शर्म आ रही है, बाबूजी. पहले आप उतारिये,” निराली ने सर झुका कर कहा.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.