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Non-erotic पूस की रात
#21
सुधा के चेहरे पर हर्ष की ऐसी लाली हफ्तों से न दिखी थी, जैसे कोई बालक तमाशा देखकर मगन हो रहा हो। बीमारी के बाद हम बच्चों की तरह जिद्दी, उतने ही आतुर, उतने ही सरल हो जाते हैं। जिन किताबों में भी मन न लगा हो, वह बीमारी के बाद पढ़ी जाती हैं। वुसधा जैसे उल्लास की गोद में खेलने लगी। चीतों की खालें थीं, बाघों की, मृगों की, शेरों की। वसुधा हरेक खाल नयी उमंग से देखती, जैसे बायस्कोप के एक चित्र के बाद दूसरा चित्र आ रहा हो। कुँवर साहब एक-एक तोहफे का इतिहास सुनाने लगे। यह जानवर कैसे मारा गया, उसके मारने में क्या-क्या बाधाएँ पड़ीं, क्या-क्या उपाय करने पड़े, पहले कहाँ गोली लगी आदि। वसुधा हरेक की कथा आँखें फाड़-फाड़कर सुन रही थी। इतना सजीव, स्फूर्तिमय आनन्द उसे आज तक किसी कविता, संगीत या आमोद में भी न मिला था। सबसे सुन्दर एक सिंह की खाल थी। वही उसने छांटी। कुँवर साहब की यह सबसे बहुमूल्य वस्तु थी। उसे अपने कमरे में लटकाने को रखे हुए थे। बोले तुम बाघम्बरों में से कोई ले लो। यह तो कोई अच्छी चीज नहीं। वसुधा ने खाल को अपनी ओर खींचकर कहा, रहने दीजिए अपनीसलाह। मैं खराब ही लूँगी। कुँवर साहब ने जैसे अपनी आँखो से आँसू पोंछकर कहा, तुम वही ले लो, मैं तो तुम्हारे खयाल से कह रहा था। मैं फिर वैसा ही मार लूँगा।


'तो तुम मुझे चकमा क्यों देते थे ?'

'चकमा कौन देता था ?'


'अच्छा, खाओ मेरे सिर की कसम, कि यह सबसे सुन्दर खाल नहीं है ?' कुँवर साहब ने हार की हँसी हँस कर कहा,

"क़सम क्यों खायें, इस एक खाल के लिए ? ऐसी-ऐसी एक लाख खालें हों, तो तुम्हारे ऊपर न्योछावर कर दूँ।"

जब शिकारी सब खालें लेकर चला गया, तो कुँवर साहब ने कहा, मैं इस खाल पर काले ऊन से अपना समर्पण लिखूँगा।

वसुधा ने थकान से पलंग पर लेटते हुए कहा, अब मैं भी शिकार खेलने चलूँगी। फिर वह सोचने लगी, वह भी कोई शेर मारेगी और उसकी खाल

पतिदेव को भेंट करेगी। उस पर लाल ऊन से लिखा जायगा प्रियतम ! जिस ज्योति के मन्द पड़ जाने से हरेक व्यापार, हरेक व्यंजन पर अंधकार छा गया था, वह ज्योति अब प्रदीप्त होने लगी थी। शिकारों का वृत्तान्त सुनने की वसुधा को चाट-सी पड़ गयी। कुँवर साहब को कई-कई बार अपने अनुभव सुनाने पड़े। उसका सुनने से जी ही न भरता था। अब तक कुँवर साहब का संसार अलग था, जिसके दु:ख-सुख, हानि-लाभ, आशा-निराशा से वसुधा को कोई सरोकार न था। वसुधा को इस संसार के व्यापार से कोई रुचि न थी, बल्कि अरुचि थी। कुँवर साहब इस पृथक् संसार की बातें उससे छिपाते थे; पर अब वसुधा उनके इस संसार में एक उज्ज्वल प्रकाश, एक वरदानों वाली देवी के समान अवतरित हो गयी थी।


एक दिन वसुधा ने आग्रह किया "मुझे बन्दूक चलाना सिखा दो।"

डाक्टर साहब की अनुमति मिलने में विलम्ब न हुआ। वसुधा स्वस्थ हो गयी थी। कुँवर साहब ने शुभ मुहूर्त में उसे दीक्षा दी। उस दिन से जब देखो, वृक्षों की छांह में खड़ी निशाने का अभ्यास कर रही है, और कुँवर साहब खड़े उसकी परीक्षा ले रहे हैं। जिस दिन उसने पहली चिड़िया मारी, कुँवर साहब हर्ष से उछल पड़े। नौकरों को इनाम दिये; ब्राह्मणों को दान दिया गया। इस आनन्द की शुभ-स्मृति में उस पक्षी की ममी बनाकर रखी गयी। वसुधा के जीवन में अब एक नया उत्साह, एक नया उल्लास, एकनयी आशा थी। पहले की भाँति उसका वंचित ह्रदय अशुभ कल्पनाओं से त्रस्त न था। अब उसमें विश्वास था, बल था, अनुराग था। कई दिनों के बाद वसुधा की साधा पूरी हुई। कुँवर साहब उसे साथ लेकर शिकार खेलने पर राजी हुए और शिकार था शेर का और शेर भी वह जिसने इधर एक महीने से आसपास के गाँवों में तहलका मचा दिया था। चारों तरफ अन्धाकार था, ऐसा स
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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पूस की रात - by neerathemall - 31-12-2019, 03:09 PM
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RE: पूस की रात - by neerathemall - 31-12-2019, 03:15 PM
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