31-12-2019, 03:33 PM
वसुधा बड़ी देर तक बैठी उदास आँखो से यह दृश्य देखती रही। फिर टेलीफोन पर आकर उसने रियासत के मैनेजर से पूछा,
"कुँवर साहब का कोई पत्र आया ?"
फोन ने जवाब दिया, "ज़ी हाँ, अभी खत आया है। कुँवर साहब ने एक बहुत बड़े शेर को मारा है।"
वसुधा ने जलकर कहा, "मैं यह नहीं पूछती ! आने को कब लिखा है ?"
''आने के बारे में तो कुछ नहीं लिखा।''
''यहाँ से उनका पड़ाव कितनी दूर है ?''
''यहाँ से ! दो सौ मील से कम न होगा। पीलीभीत के जंगलों में शिकार हो रहा है।''
''मेरे लिए दो मोटरों का इन्तजाम कर दीजिए। मैं आज वहाँ जाना चाहती हूँ।''
फोन ने कई मिनट बाद जवाब दिया, " एक मोटर तो वह साथ ले गये हैं। एक हाकिम जिला के बंगले पर भेज दी गयी, तीसरी बैंक के मैनेजर की सवारी में, चौथी की मरम्मत हो रही है।"
वसुधा का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। बोली, "क़िसके हुक्म से बैंक के मैनेजर और हाकिम जिला को मोटरें भेजी गयीं ? आप दोनों मँगवा लीजिए। मैं आज जरूर जाऊँगी।"
'उन दोनों साहबों के पास हमेशा मोटरें भेजी जाती रही हैं; इसलिए मैंने भेज दीं। अब आप हुक्म दे रही हैं, तो मँगवा लूँगा !'
वसुधा ने फोन से आकर सफर का सामान ठीक करना शुरू किया। उसने उसी आवेश में आकर अपना भाग्य-निर्णय करने का निश्चय कर लिया था। परित्यक्ता की भाँति पड़ी रहकर जीवन को समाप्त न करना चाहती थी। वह जाकर कुँवर साहब से कहेगी अगर आप समझते हैं कि मैं आपकी सम्पत्ति की लौंडी बनकर रहूँ, तो यह मुझसे न होगा। आपकी सम्पत्ति आपको मुबारक हो। मेरा अधिकार आपकी सम्पत्ति पर नहीं, आपके ऊपर है। अगर आप मुझसे जौ-भर हटना चाहते हैं, तो मैं आपसे हाथ-भर हट जाऊँगी ! इस तरह की और कितनी ही विराग-भरी बातें उसके मन में बगूलों की भाँति उठ रही थीं। डाक्टर साहब ने द्वार पर आकर पुकारा, " मैं अन्दर आऊँ ?"
वसुधा ने नम्रता से कहा, "आज क्षमा कीजिए, मैं जरा पीलीभीत जा रही हूँ।"
डाक्टर ने आश्चर्य से कहा, "आप पीलीभीत जा रही हैं ! आपका ज्वर चढ़ जायगा। इस दशा में मैं आपको जाने की सलाह न दूँगा।"
वसुधा ने विरक्त स्वर में कहा, " बढ़ जायगा, बढ़ जाय; मुझे इसकी चिन्ता नहीं है ! वृद्ध डाक्टर परदा उठाकर आ गया और वसुधा के चेहरे की ओर ताकता हुआ बोला लाइए मैं टेम्परेचर ले लूँ। अगर टेम्परेचर बढ़ा होगा, तो मैं आपको हरगिज न जाने दूँगा। 'टेम्परेचर लेने की जरूरत नहीं। मेरा इरादा पक्का हो गया है।'
'स्वास्थ्य पर ध्यान रखना आपका पहला कर्तव्य है।'
वसुधा ने मुस्कराकर कहा, "आप निश्चिन्त रहिए, मैं इतनी जल्द मरी नहीं जा रही हूँ ! फिर अगर किसी बीमारी की दवा मौत ही हो, तो आप क्या करेंगे ?"
डाक्टर ने दो-एक बार आग्रह किया फिर विस्मय से सिर हिलाता चला गया !
रेलगाड़ी से जाने में आखिरी स्टेशन से दस कोस तक जंगली सुनसान रास्ता तय करना पड़ता था, इसलिए कुँवर साहब बराबर मोटर ही पर जाते थे। वसुधा ने उसी से जाने का निश्चय किया। दस बजते-बजते दोनों मोटरें आयीं। वसुधा ने डन्नाइवरों पर गुस्सा उतारा अब मेरे हुक्म के बगैर कहीं मोटर ले गये, तो मोटर का किराया तुम्हारी तलब से काट लूँगी। अच्छी दिल्लगी है ! घर को रोयें, बन की गायें ! हमने अपने आराम के लिए मोटरें रखी हैं, किसी की खुशामद करने के लिए नहीं। जिसे मोटर पर सवार होने का शौक हो, मोटर खरीदे। यह नहीं कि हलवाई की दुकान देखी और दादे का फातिहा पढ़ने बैठ गये ! वह चली, तो दोनों बच्चे कुनमुनाये, मगर जब मालूम हुआ, कि अम्माँ बड़ी दूर हौआ को मारने जा रही हैं तो उनका यात्रा-प्रेम ठण्डा पड़ा। वसुधा ने आज सुबह से उन्हें प्यार न किया था। उसने जलन में सोचा मैं ही क्यों इन्हें प्यार करूँ, मैंने ही इनका ठेका लिया है ! वह तो वहाँ जाकर चैन करें और मैं यहाँ इन्हें छाती से लगाये बैठी रहूँ। लेकिन चलते समय माता का ह्रदय पुलक उठा। दोनों को बारी-बारी से गोद में लिया, चूमा, प्यार किया और घण्टे भर में लौट आने का वचन देकर वह सजल नेत्रों के साथ घर से निकली। मार्ग में भी उसे बच्चों की याद बार-बार आती रही। रास्ते में कोई गाँव आ जाता और छोटे-छोटे बालक मोटर की दौड़ देखने के लिए घरों से निकल आते, और सड़क पर खड़े होकर तालियाँ बजाते हुए मोटर का स्वागत करते, तो वसुधा का जी चाहता, इन्हें गोद में उठाकर प्यार कर लूँ। मोटर जितने वेग से आगे जा रही थी, उतने ही वेग से उसका मन सामने के वृक्ष-समूहों के पीछे की ओर उड़ा जा रहा था। कई बार इच्छा हुई, घर लौट चलूँ। जब उन्हें मेरी रत्ती भर परवाह नहीं है, तो मैं ही क्यों उनकी फिक्र में प्राण दूँ ? जी चाहे आवें या न आवें; लेकिन एक बार पति से मिलकर उनसे खरी-खरी बात करने के प्रलोभन को वह न रोक सकी। सारी देह थककर चूर-चूर हो रही थी, ज्वर भी हो आया था, सिर पीड़ा से फटा पड़ता था; पर वह संकल्प से सारी बाधाओं को दबाये आगे बढ़ती जाती थी। यहाँ तक कि जब वह दस बजे रात को जंगल के उस डाक-बंगले में पहुँची, तो उसे तन-बदन की सुधि न थी। जोर का ज्वर चढ़ा हुआ था। शोर की आवाज सुनते ही कुँवर साहब निकल आये और पूछा, "तुम यहाँ कैसे आये जी ? कुशल तो है ?"
शोफर ने समीप आकर कहा, "रानी साहब आयी हैं हुजूर ! रास्ते में बुखार हो आया। बेहोश पड़ी हुई हैं।
कुँवर साहब ने वहीं खड़े कठोर स्वर में पूछा, तो तुम उन्हें वापस क्यों न ले गये ? क्या तुम्हें मालूम नहीं था, यहाँ कोई वैद्य-हकीम नहीं है।
"कुँवर साहब का कोई पत्र आया ?"
फोन ने जवाब दिया, "ज़ी हाँ, अभी खत आया है। कुँवर साहब ने एक बहुत बड़े शेर को मारा है।"
वसुधा ने जलकर कहा, "मैं यह नहीं पूछती ! आने को कब लिखा है ?"
''आने के बारे में तो कुछ नहीं लिखा।''
''यहाँ से उनका पड़ाव कितनी दूर है ?''
''यहाँ से ! दो सौ मील से कम न होगा। पीलीभीत के जंगलों में शिकार हो रहा है।''
''मेरे लिए दो मोटरों का इन्तजाम कर दीजिए। मैं आज वहाँ जाना चाहती हूँ।''
फोन ने कई मिनट बाद जवाब दिया, " एक मोटर तो वह साथ ले गये हैं। एक हाकिम जिला के बंगले पर भेज दी गयी, तीसरी बैंक के मैनेजर की सवारी में, चौथी की मरम्मत हो रही है।"
वसुधा का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। बोली, "क़िसके हुक्म से बैंक के मैनेजर और हाकिम जिला को मोटरें भेजी गयीं ? आप दोनों मँगवा लीजिए। मैं आज जरूर जाऊँगी।"
'उन दोनों साहबों के पास हमेशा मोटरें भेजी जाती रही हैं; इसलिए मैंने भेज दीं। अब आप हुक्म दे रही हैं, तो मँगवा लूँगा !'
वसुधा ने फोन से आकर सफर का सामान ठीक करना शुरू किया। उसने उसी आवेश में आकर अपना भाग्य-निर्णय करने का निश्चय कर लिया था। परित्यक्ता की भाँति पड़ी रहकर जीवन को समाप्त न करना चाहती थी। वह जाकर कुँवर साहब से कहेगी अगर आप समझते हैं कि मैं आपकी सम्पत्ति की लौंडी बनकर रहूँ, तो यह मुझसे न होगा। आपकी सम्पत्ति आपको मुबारक हो। मेरा अधिकार आपकी सम्पत्ति पर नहीं, आपके ऊपर है। अगर आप मुझसे जौ-भर हटना चाहते हैं, तो मैं आपसे हाथ-भर हट जाऊँगी ! इस तरह की और कितनी ही विराग-भरी बातें उसके मन में बगूलों की भाँति उठ रही थीं। डाक्टर साहब ने द्वार पर आकर पुकारा, " मैं अन्दर आऊँ ?"
वसुधा ने नम्रता से कहा, "आज क्षमा कीजिए, मैं जरा पीलीभीत जा रही हूँ।"
डाक्टर ने आश्चर्य से कहा, "आप पीलीभीत जा रही हैं ! आपका ज्वर चढ़ जायगा। इस दशा में मैं आपको जाने की सलाह न दूँगा।"
वसुधा ने विरक्त स्वर में कहा, " बढ़ जायगा, बढ़ जाय; मुझे इसकी चिन्ता नहीं है ! वृद्ध डाक्टर परदा उठाकर आ गया और वसुधा के चेहरे की ओर ताकता हुआ बोला लाइए मैं टेम्परेचर ले लूँ। अगर टेम्परेचर बढ़ा होगा, तो मैं आपको हरगिज न जाने दूँगा। 'टेम्परेचर लेने की जरूरत नहीं। मेरा इरादा पक्का हो गया है।'
'स्वास्थ्य पर ध्यान रखना आपका पहला कर्तव्य है।'
वसुधा ने मुस्कराकर कहा, "आप निश्चिन्त रहिए, मैं इतनी जल्द मरी नहीं जा रही हूँ ! फिर अगर किसी बीमारी की दवा मौत ही हो, तो आप क्या करेंगे ?"
डाक्टर ने दो-एक बार आग्रह किया फिर विस्मय से सिर हिलाता चला गया !
रेलगाड़ी से जाने में आखिरी स्टेशन से दस कोस तक जंगली सुनसान रास्ता तय करना पड़ता था, इसलिए कुँवर साहब बराबर मोटर ही पर जाते थे। वसुधा ने उसी से जाने का निश्चय किया। दस बजते-बजते दोनों मोटरें आयीं। वसुधा ने डन्नाइवरों पर गुस्सा उतारा अब मेरे हुक्म के बगैर कहीं मोटर ले गये, तो मोटर का किराया तुम्हारी तलब से काट लूँगी। अच्छी दिल्लगी है ! घर को रोयें, बन की गायें ! हमने अपने आराम के लिए मोटरें रखी हैं, किसी की खुशामद करने के लिए नहीं। जिसे मोटर पर सवार होने का शौक हो, मोटर खरीदे। यह नहीं कि हलवाई की दुकान देखी और दादे का फातिहा पढ़ने बैठ गये ! वह चली, तो दोनों बच्चे कुनमुनाये, मगर जब मालूम हुआ, कि अम्माँ बड़ी दूर हौआ को मारने जा रही हैं तो उनका यात्रा-प्रेम ठण्डा पड़ा। वसुधा ने आज सुबह से उन्हें प्यार न किया था। उसने जलन में सोचा मैं ही क्यों इन्हें प्यार करूँ, मैंने ही इनका ठेका लिया है ! वह तो वहाँ जाकर चैन करें और मैं यहाँ इन्हें छाती से लगाये बैठी रहूँ। लेकिन चलते समय माता का ह्रदय पुलक उठा। दोनों को बारी-बारी से गोद में लिया, चूमा, प्यार किया और घण्टे भर में लौट आने का वचन देकर वह सजल नेत्रों के साथ घर से निकली। मार्ग में भी उसे बच्चों की याद बार-बार आती रही। रास्ते में कोई गाँव आ जाता और छोटे-छोटे बालक मोटर की दौड़ देखने के लिए घरों से निकल आते, और सड़क पर खड़े होकर तालियाँ बजाते हुए मोटर का स्वागत करते, तो वसुधा का जी चाहता, इन्हें गोद में उठाकर प्यार कर लूँ। मोटर जितने वेग से आगे जा रही थी, उतने ही वेग से उसका मन सामने के वृक्ष-समूहों के पीछे की ओर उड़ा जा रहा था। कई बार इच्छा हुई, घर लौट चलूँ। जब उन्हें मेरी रत्ती भर परवाह नहीं है, तो मैं ही क्यों उनकी फिक्र में प्राण दूँ ? जी चाहे आवें या न आवें; लेकिन एक बार पति से मिलकर उनसे खरी-खरी बात करने के प्रलोभन को वह न रोक सकी। सारी देह थककर चूर-चूर हो रही थी, ज्वर भी हो आया था, सिर पीड़ा से फटा पड़ता था; पर वह संकल्प से सारी बाधाओं को दबाये आगे बढ़ती जाती थी। यहाँ तक कि जब वह दस बजे रात को जंगल के उस डाक-बंगले में पहुँची, तो उसे तन-बदन की सुधि न थी। जोर का ज्वर चढ़ा हुआ था। शोर की आवाज सुनते ही कुँवर साहब निकल आये और पूछा, "तुम यहाँ कैसे आये जी ? कुशल तो है ?"
शोफर ने समीप आकर कहा, "रानी साहब आयी हैं हुजूर ! रास्ते में बुखार हो आया। बेहोश पड़ी हुई हैं।
कुँवर साहब ने वहीं खड़े कठोर स्वर में पूछा, तो तुम उन्हें वापस क्यों न ले गये ? क्या तुम्हें मालूम नहीं था, यहाँ कोई वैद्य-हकीम नहीं है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.