31-12-2019, 03:16 PM
हल्कू ने कहा कैसी अच्छी महक आई जबरा। तुम्हारी नाक में भी कुछ ख़ुशबू आरही है?
जबरा को कहीं ज़मीन पर एक हड्डी पड़ी मिल गई थी। वो उसे चूस रहा था।
हल्कू ने आग ज़मीन पर रख दी और पत्तियाँ बटोरने लगा। थोड़ी देर में पत्तों का एक ढेर लग गया। हाथ ठिठुरते जाते थे। नंगे-पाँव गले जाते थे और वो पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था। उसी अलाव में वो सर्दी को जला कर ख़ाक कर देगा।
थोड़ी देर में अलाव जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले दरख़्त की पत्तियों को छू छू कर भागने लगी। इस मुतज़लज़ल रोशनी में बाग़ के आलीशान दरख़्त ऐसे मा’लूम होते थे कि वो इस ला-इंतिहा अंधेरे को अपनी गर्दन पर सँभाले हों। तारीकी के इस अथाह समुंदर में ये रोशनी एक नाव के मानिंद मा’लूम होती थी।
हल्कू अलाव के सामने बैठा हुआ आग ताप रहा था। एक मिनट में उसने अपनी चादर बग़ल में दबा ली और दोनों पांव फैला दिये। गोया वो सर्दी को ललकार कर कह रहा था “तेरे जी में आए वो कर।” सर्दी की इस बेपायाँ ताक़त पर फ़तह पा कर वो ख़ुशी को छुपा न सकता था।
उसने जबरा से कहा, क्यों जबरा। अब तो ठंड नहीं लग रही है?
जबरा ने कूँ कूँ करके गोया कहा, अब क्या ठंड लगती ही रहेगी।
“पहले ये तद्बीर नहीं सूझी नहीं तो इतनी ठंड क्यों खाते?”
जबरा ने दुम हिलाई।
“अच्छा आओ, इस अलाव को कूद कर पार करें। देखें कौन निकल जाये है अगर जल गए बच्चा तो मैं दवा न करूँगा।”
जबरा ने ख़ौफ़-ज़दा निगाहों से अलाव की जानिब देखा।
“मुन्नी से कल ये न जड़ देना कि रात ठंड लगी और ताप-ताप कर रात काटी। वर्ना लड़ाई करेगी।”
ये कहता हुआ वो उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ़ निकल गया पैरों में ज़रा सी लिपट लग गई पर वो कोई बात न थी। जबरा अलाव के गिर्द घूम कर उस के पास खड़ा हुआ।
हल्कू ने कहा चलो चलो, इसकी सही नहीं। ऊपर से कूद कर आओ वो फिर कूदा और अलाव के उस पार आगया। पत्तियाँ जल चुकी थीं। बाग़ीचे में फिर अंधेरा छा गया था। राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाक़ी थी। जो हवा का झोंका आने पर ज़रा जाग उठती थी पर एक लम्हा में फिर आँखें बंद कर लेती थी।
हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा। उसके जिस्म में गर्मी आगई थी। पर जूं जूं सर्दी बढ़ती जाती थी उसे सुस्ती दबा लेती थी।
दफ़अ’तन जबरा ज़ोर से भौंक कर खेत की तरफ़ भागा। हल्कू को ऐसा मा’लूम हुआ कि जानवर का एक ग़ोल उसके खेत में आया। शायद नीलगाय का झुण्ड था। उनके कूदने और दौड़ने की आवाज़ें साफ़ कान में आरही थीं। फिर ऐसा मा’लूम हुआ कि खेत में चर रही हैं...... उसने दिल में कहा हुँह जबरा के होते हुए कोई जानवर खेत में नहीं आसकता। नोच ही डाले, मुझे वहम हो रहा है। कहाँ अब तो कुछ सुनाई नहीं देता मुझे भी कैसा धोका हुआ।
उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई जबरा, जबरा।
जबरा भौंकता रहा। उसके पास न आया।
जानवरों के चरने की आवाज़ चर चर सुनाई देने लगी। हल्कू अब अपने को फ़रेब न दे सका मगर उसे उस वक़्त अपनी जगह से हिलना ज़हर मा’लूम होता था। कैसा गर्माया हुआ मज़े से बैठा हुआ था। इस जाड़े पाले में खेत में जाना जानवरों को भगाना उनका तआ’क़ुब करना उसे पहाड़ मा’लूम होता था। अपनी जगह से न हिला। बैठे-बैठे जानवरों को भगाने के लिए चिल्लाने लगा। लिहो लिहो, हो, हो। हा,हा।
मगर जबरा फिर भौंक उठा। अगर जानवर भाग जाते तो वो अब तक लौट आया होता। नहीं भागे अभी तक चर रहे हैं। शायद वो सब भी समझ रहे हैं कि इस सर्दी में कौन बीधा है जो उनके पीछे दौड़ेगा। फ़सल तैयार है कैसी अच्छी खेती थी। सारा गांव देख देखकर जलता था उसे ये अभागे तबाह किए डालते हैं।
अब हल्कू से न रहा गया वो पक्का इरादा कर के उठा और दो-तीन क़दम चला। फिर यका-य़क हवा का ऐसा ठंडा चुभने वाला, बिच्छू के डंक का सा झोंका लगा वो फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेद कुरेद कर अपने ठंडे जिस्म को गरमाने लगा।
जबरा अपना गला फाड़े डालता था नील-गाएँ खेत का सफ़ाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास बेहिस बैठा हुआ था। अफ़्सुर्दगी ने उसे चारों तरफ़ से रस्सी की तरह जकड़ रखा था।
आख़िर वहीँ चादर ओढ़ कर सो गया।
सवेरे जब उसकी नींद खुली तो देखा चारों तरफ़ धूप फैल गई है। और मुन्नी खड़ी कह रही है, क्या आज सोते ही रहोगे तुम यहां मीठी नींद सो रहे हो और उधर सारा खेत चौपट हो गया। सारा खेत का सत्यानास हो गया भला कोई ऐसा भी सोता है ।तुम्हारे यहां मंडिया डालने से क्या हुआ।
जबरा को कहीं ज़मीन पर एक हड्डी पड़ी मिल गई थी। वो उसे चूस रहा था।
हल्कू ने आग ज़मीन पर रख दी और पत्तियाँ बटोरने लगा। थोड़ी देर में पत्तों का एक ढेर लग गया। हाथ ठिठुरते जाते थे। नंगे-पाँव गले जाते थे और वो पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था। उसी अलाव में वो सर्दी को जला कर ख़ाक कर देगा।
थोड़ी देर में अलाव जल उठा। उसकी लौ ऊपर वाले दरख़्त की पत्तियों को छू छू कर भागने लगी। इस मुतज़लज़ल रोशनी में बाग़ के आलीशान दरख़्त ऐसे मा’लूम होते थे कि वो इस ला-इंतिहा अंधेरे को अपनी गर्दन पर सँभाले हों। तारीकी के इस अथाह समुंदर में ये रोशनी एक नाव के मानिंद मा’लूम होती थी।
हल्कू अलाव के सामने बैठा हुआ आग ताप रहा था। एक मिनट में उसने अपनी चादर बग़ल में दबा ली और दोनों पांव फैला दिये। गोया वो सर्दी को ललकार कर कह रहा था “तेरे जी में आए वो कर।” सर्दी की इस बेपायाँ ताक़त पर फ़तह पा कर वो ख़ुशी को छुपा न सकता था।
उसने जबरा से कहा, क्यों जबरा। अब तो ठंड नहीं लग रही है?
जबरा ने कूँ कूँ करके गोया कहा, अब क्या ठंड लगती ही रहेगी।
“पहले ये तद्बीर नहीं सूझी नहीं तो इतनी ठंड क्यों खाते?”
जबरा ने दुम हिलाई।
“अच्छा आओ, इस अलाव को कूद कर पार करें। देखें कौन निकल जाये है अगर जल गए बच्चा तो मैं दवा न करूँगा।”
जबरा ने ख़ौफ़-ज़दा निगाहों से अलाव की जानिब देखा।
“मुन्नी से कल ये न जड़ देना कि रात ठंड लगी और ताप-ताप कर रात काटी। वर्ना लड़ाई करेगी।”
ये कहता हुआ वो उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ़ निकल गया पैरों में ज़रा सी लिपट लग गई पर वो कोई बात न थी। जबरा अलाव के गिर्द घूम कर उस के पास खड़ा हुआ।
हल्कू ने कहा चलो चलो, इसकी सही नहीं। ऊपर से कूद कर आओ वो फिर कूदा और अलाव के उस पार आगया। पत्तियाँ जल चुकी थीं। बाग़ीचे में फिर अंधेरा छा गया था। राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाक़ी थी। जो हवा का झोंका आने पर ज़रा जाग उठती थी पर एक लम्हा में फिर आँखें बंद कर लेती थी।
हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा। उसके जिस्म में गर्मी आगई थी। पर जूं जूं सर्दी बढ़ती जाती थी उसे सुस्ती दबा लेती थी।
दफ़अ’तन जबरा ज़ोर से भौंक कर खेत की तरफ़ भागा। हल्कू को ऐसा मा’लूम हुआ कि जानवर का एक ग़ोल उसके खेत में आया। शायद नीलगाय का झुण्ड था। उनके कूदने और दौड़ने की आवाज़ें साफ़ कान में आरही थीं। फिर ऐसा मा’लूम हुआ कि खेत में चर रही हैं...... उसने दिल में कहा हुँह जबरा के होते हुए कोई जानवर खेत में नहीं आसकता। नोच ही डाले, मुझे वहम हो रहा है। कहाँ अब तो कुछ सुनाई नहीं देता मुझे भी कैसा धोका हुआ।
उसने ज़ोर से आवाज़ लगाई जबरा, जबरा।
जबरा भौंकता रहा। उसके पास न आया।
जानवरों के चरने की आवाज़ चर चर सुनाई देने लगी। हल्कू अब अपने को फ़रेब न दे सका मगर उसे उस वक़्त अपनी जगह से हिलना ज़हर मा’लूम होता था। कैसा गर्माया हुआ मज़े से बैठा हुआ था। इस जाड़े पाले में खेत में जाना जानवरों को भगाना उनका तआ’क़ुब करना उसे पहाड़ मा’लूम होता था। अपनी जगह से न हिला। बैठे-बैठे जानवरों को भगाने के लिए चिल्लाने लगा। लिहो लिहो, हो, हो। हा,हा।
मगर जबरा फिर भौंक उठा। अगर जानवर भाग जाते तो वो अब तक लौट आया होता। नहीं भागे अभी तक चर रहे हैं। शायद वो सब भी समझ रहे हैं कि इस सर्दी में कौन बीधा है जो उनके पीछे दौड़ेगा। फ़सल तैयार है कैसी अच्छी खेती थी। सारा गांव देख देखकर जलता था उसे ये अभागे तबाह किए डालते हैं।
अब हल्कू से न रहा गया वो पक्का इरादा कर के उठा और दो-तीन क़दम चला। फिर यका-य़क हवा का ऐसा ठंडा चुभने वाला, बिच्छू के डंक का सा झोंका लगा वो फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेद कुरेद कर अपने ठंडे जिस्म को गरमाने लगा।
जबरा अपना गला फाड़े डालता था नील-गाएँ खेत का सफ़ाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास बेहिस बैठा हुआ था। अफ़्सुर्दगी ने उसे चारों तरफ़ से रस्सी की तरह जकड़ रखा था।
आख़िर वहीँ चादर ओढ़ कर सो गया।
सवेरे जब उसकी नींद खुली तो देखा चारों तरफ़ धूप फैल गई है। और मुन्नी खड़ी कह रही है, क्या आज सोते ही रहोगे तुम यहां मीठी नींद सो रहे हो और उधर सारा खेत चौपट हो गया। सारा खेत का सत्यानास हो गया भला कोई ऐसा भी सोता है ।तुम्हारे यहां मंडिया डालने से क्या हुआ।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.