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Non-erotic पूस की रात
#4
हल्कू ने आ कर अपनी बीवी से कहा, “शहना आया है लाओ जो रुपये रखे हैं उसे देदो किसी तरह गर्दन तो छूटे।”

मुन्नी बहू झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिर कर बोली, “तीन ही तो रुपये हैं दे दूं, तो कम्बल कहाँ से आएगा। माघ-पूस की रात खेत में कैसे कटेगी। उससे कह दो फ़सल पर रुपये देंगे। अभी नहीं है।”

हल्कू थोड़ी देर तक चुप खड़ा रहा। और अपने दिल में सोचता रहा पूस सर पर आगया है। बग़ैर कम्बल के खेत में रात को वो किसी तरह सो नहीं सकता। मगर शहना मानेगा नहीं; घुड़कियां देगा। ये सोचता हुआ वो अपना भारी जिस्म लिए हुए (जो उसके नॉम को ग़लत साबित कर रहा था) अपनी बीवी के पास गया। और ख़ुशामद कर के बोला, “ला दे दे गर्दन तो किसी तरह से बचे कम्बल के लिए कोई दूसरी तद्बीर सोचूँगा।”

मुन्नी उसके पास से दूर हट गई। और आँखें टेढ़ी करती हुई बोली, “कर चुके दूसरी तद्बीर। ज़रा सुनूँ कौन तद्बीर करोगे? कौन कम्बल ख़ैरात में देदेगा। न जाने कितना रुपया बाक़ी है जो किसी तरह अदा ही नहीं होता। मैं कहती हूँ तुम खेती क्यों नहीं छोड़ देते। मर मर कर काम करो। पैदावार हो तो उससे क़र्ज़ा अदा करो चलो छुट्टी हुई, क़र्ज़ा अदा करने के लिए तो हम पैदा ही हुए हैं। ऐसी खेती से बाज़ आए। मैं रुपय न दूँगी, न दूँगी।”

हल्कू रंजीदा हो कर बोला, “तो क्या गालियां खाऊं।”

मुन्नी ने कहा, “गाली क्यों देगा? क्या उस का राज है?” मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भवें ढीली पड़ गईं। हल्कू की बात में जो दिल दहलाने देनेवाली सदाक़त थी। मा’लूम होता था कि वो उसकी जानिब टकटकी बाँधे देख रही थी। उसने ताक़ पर से रुपये उठाए और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिए। फिर बोली, “तुम अब की खेती छोड़ दो। मज़दूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी। किसी की धौंस तो न रहेगी अच्छी खेती है, मज़दूरी कर के लाओ वो भी उस में झोंक दो। इस पर से धौंस।”

हल्कू ने रुपये लिये और इस तरह बाहर चला। मा’लूम होता था वो अपना कलेजा निकाल कर देने जा रहा है। उसने एक एक पैसा काट कर तीन रुपये कम्बल के लिए जमा किए थे। वो आज निकले जा रहे हैं। एक एक क़दम के साथ उसका दिमाग़ अपनी नादारी के बोझ से दबा जा रहा था।

पूस की अँधेरी रात। आसमान पर तारे भी ठिठुरते हुए मा’लूम होते थे। हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पत्तों की एक छतरी के नीचे बाँस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढे की चादर ओढ़े हुए काँप रहा था। खटोले के नीचे उसका साथी कुत्ता, जबरा पेट में मुँह डाले सर्दी से कूँ कूँ कर रहा था। दो में से एक को भी नींद न आती थी।

हल्कू ने घुटनों को गर्दन में चिमटाते हुए कहा, “क्यों जबरा जाड़ा लगता है, कहा तो था घर में पियाल पर लेट रह। तू यहां क्या लेने आया था! अब खा सर्दी मैं क्या करूँ। जानता था। मैं हलवा पूरी खाने आरहा हूँ। दौड़ते हुए आगे चले आए। अब रोओ अपनी नानी के नाम को।” जबरा ने लेटे हुए दुम हिलाई और एक अंगड़ाई लेकर चुप हो गया शायद वो ये समझ गया था कि उसकी कूँ, कूँ की आवाज़ से उसके मालिक को नींद नहीं आरही है।

हल्कू ने हाथ निकाल कर जबरा की ठंडी पीठ सहलाते हुए कहा, “कल से मेरे साथ ना आना नहीं तो ठंडे हो जाओगे। ये रांड पछुवा हवा न जाने कहाँ से बर्फ़ लिये आरही है। उठूँ फिर एक चिलम भरूँ किसी तरह रात तो कटे। आठ चिलम तो पी चुका। ये खेती का मज़ा है और एक भागवान ऐसे हैं जिन के पास अगर जाड़ा जाये तो गर्मी से घबरा कर भागे। मोटे गद्दे लिहाफ़ कम्बल मजाल है कि जाड़े का गुज़र हो जाए। तक़दीर की ख़ूबी है मज़दूरी हम करें। मज़ा दूसरे लूटें।”

हल्कू उठा और गड्ढे में ज़रा सी आग निकाल कर चिलम भरी। जबरा भी उठ बैठा। हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा, “पिएगा चिलम? जाड़ा तो क्या जाता है, हाँ ज़रा मन बहल जाता है।”

जबरा ने उसकी जानिब मुहब्बत भरी निगाहों से देखा। हल्कू ने कहा, “आज और जाड़ा खाले। कल से मैं यहां पियाल बिछा दूं गा। उसमें घुस कर बैठना जाड़ा न लगेगा।”

जबरा ने अगले पंजे उसके घुटनों पर रख दिए और उसके मुँह के पास अपना मुँह ले गया। हल्कू को उसकी गर्म सांस लगी। चिलम पी कर हल्कू, फिर लेटा। और ये तय कर लिया कि चाहे जो कुछ हो अब की सो जाऊँगा। लेकिन एक लम्हे में उसका कलेजा काँपने लगा। कभी इस करवट लेटा कभी उस करवट। जाड़ा किसी भूत की मानिंद उसकी छाती को दबाए हुए था।

जब किसी तरह न रहा गया तो उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसके सर को थपथपा कर उसे अपनी गोद में सुला लिया। कुत्ते के जिस्म से मा’लूम नहीं कैसी बदबू आरही थी पर उसे अपनी गोद से चिमटाते हुए ऐसा सुख मा’लूम होता था जो इधर महीनों से उसे न मिला था। जबरा शायद ये ख़्याल कर रहा था कि बहिश्त यही है और हल्कू की रूह इतनी पाक थी कि उसे कुत्ते से बिल्कुल नफ़रत न थी। वो अपनी ग़रीबी से परेशान था जिसकी वजह से वो इस हालत को पहुंच गया था। ऐसी अनोखी दोस्ती ने उसकी रूह के सब दरवाज़े खोल दिए थे उसका एक-एक ज़र्रा हक़ीक़ी रोशनी से मुनव्वर हो गया था ।इसी अस्ना में जबरा ने किसी जानवर की आहट पाई, उसके मालिक की इस ख़ास रूहानियत ने उसके दिल में एक जदीद ताक़त पैदा कर दी थी जो हवा के ठंडे झोंकों को भी नाचीज़ समझ रही थी। वो झपट कर उठा और छप्परी से बाहर आकर भौंकने लगा। हल्कू ने उसे कई मर्तबा पुचकार कर बुलाया पर वो उसके पास न आया खेत में चारों तरफ़ दौड़-दौड़ कर भौंकता रहा। एक लम्हा के लिए आ भी जाता तो फ़ौरन ही फिर दौड़ता, फ़र्ज़ की अदायगी ने उसे बेचैन कर रखा था।

एक घंटा गुज़र गया सर्दी बढ़ने लगी। हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिला कर सर को छुपा लिया फिर भी सर्दी कम न हुई ऐसा मालूम होता था कि सारा ख़ून मुंजमिद हो गया है। उसने उठकर आसमान की जानिब देखा अभी कितनी रात बाक़ी है। वो सात सितारे जो क़ुतुब के गिर्द घूमते हैं। अभी अपना निस्फ़ दौरा भी ख़त्म नहीं कर चुके जब वो ऊपर आजाऐंगे तो कहीं सवेरा होगा।अभी एक घड़ी से ज़्यादा रात बाक़ी है।

हल्कू के खेत से थोड़ी देर के फ़ासले पर एक बाग़ था। पतझड़ शुरू हो गई थी। बाग़ में पत्तों का ढेर लगा हुआ था, हल्कू ने सोचा चल कर पत्तियाँ बटोरूं और उनको जला कर ख़ूब तापूँ रात को कोई मुझे पत्तियाँ बटोरते देखे तो समझे कि कोई भूत है कौन जाने कोई जानवर ही छुपा बैठा हो। मगर अब तो बैठे नहीं रहा जाता।

उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौदे उखाड़े और उसका एक झाड़ू बना कर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिए बाग़ की तरफ़ चला । जबरा ने उसे जाते देखा तो पास आया और दुम हिला ने लगा।

हल्कू ने कहा अब तो नहीं रहा जाता जब्रो, चलो बाग़ में पत्तियाँ बटोर कर तापें टाठे हो जाऐंगे तो फिर आकर सोएँगे। अभी तो रात बहुत है।

जबरा ने कूँ कूँ करते हुए अपने मालिक की राय से मुवाफ़क़त ज़ाहिर की और आगे-आगे बाग़ की जानिब चला। बाग़ में घटाटोप अंधेरा छाया हुआ था। दरख़्तों से शबनम की बूँदें टप टप टपक रही थीं यका-य़क एक झोंका मेहंदी के फूलों की ख़ुशबू लिये हुए आया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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पूस की रात - by neerathemall - 31-12-2019, 03:09 PM
RE: पूस की रात - by neerathemall - 31-12-2019, 03:14 PM
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