26-12-2019, 01:36 PM
पत्नी की अदला-बदली - 05
अपर्णा निचे की बर्थ पर थी और जीतूजी उसकी ऊपर वाली बर्थ पर। श्रेया निचे वाली बर्थ पर और रोहित उसके ऊपर वाली बर्थ पर।
रात के साढ़े नौ बजे अपर्णा ने अपने कम्पार्टमेंट की बत्तियां बुझा दीं। उसे पता था की आजकी रात कुछ ना कुछ तो होगा ही। कोई ना कोई नयी कहानी जरूर बनेगी। अपर्णा को पति को किये हुए वादे की याद आयी। अपर्णा को तो अपने पति से किये हुए वादे को पूरा करना था। रोहित जी अपनी पत्नी से लिए हुए ट्रैन में रात को अपर्णा का डिनर करने के वादे को पूरा जरूर करना चाहेंगे। उसे पता था की अंकिता को रात को निचे की बर्थ में गौरव के पास आना ही था। जरूर उस रात को ट्रैन में कुछ ना कुछ तो होना ही था। क्या होगा उस विचार मात्र के रोमांच से अपर्णा के रोंगटे खड़े होगये। पर अपर्णा भी राजपूतानी मानिनी जो थी। उसने अपने रोमांच को शांत करना ही ठीक समझा और बत्ती बुझाकर एक अच्छी औरत की तरह अपने बिस्तर में जा लेटी।
कम्पार्टमेंट में सब कुछ शांत हो चुका था। जरूर प्रेमी प्रेमिकाओं के ह्रदय में कामाग्नि की धधकती आग छुपी हुई थी। पर फिर भी कम्पार्टमेंट में वासना की लपटोँ में जलते हुए बदनोंकी कामाग्नि भड़के उसके पहले छायी शान्ति की तरह सब कुछ शांत था। कुछ शोर तब होता था जब दो गाड़ियाँ आमने सामने से गुजरती थीं। वरना वातानुकूलित वातावरण में एक सौम्य सी शान्ति छायी हुई थी। जब ट्रैन कोई स्टेशन पर रूकती तो कहीं दूर कोई यात्री के चढ़ने उतर ने की धीमी आवाज के सिवाय कहीं किसीके खर्राटे की तो कहीं किसी की हलकी लयमय साँसे सुनाई दे रहीथीं। सारी बत्तियाँ बुझाने के कारण और सारे परदे से ढके होने के कारण पुरे कम्पार्टमेंट में घना अँधेरा छाया हुआ था। कहीं कुछ नजर नहीं आता था। एक कोने में टिमटिमाती रात्रि बत्ती कुछ कुछ प्रकाश देने में भी निसहाय सी लग रही थी। कभी कभी कोई स्टेशन गुजरता तब उसका प्रकाश परदे में रह गयी पतली सी दरार में से मुश्किल ही अँधेरे को हल्का करने में कामयाब होता था।
काम वासना से संलिप्त ह्रदय बाकी यात्रियों को गहरी नींद में खो जाने की जैसे प्रतीक्षा कर रहे थे। बिच बिचमें नींद का झोका आ जाने के कारण वह कुछ विवश सा महसूस कर रहे थे। अंकिता की आँखों में नींद कहाँ? उसे पता था की उसका प्रियतम गौरव जरूर उसके निचे उतर ने प्रतीक्षा में पागल हो रहा होगा। आज रात क्या होगा यह सोच कर अंकिता के ह्रदय की धड़कन तेज हो रही थीं और साँसे धमनी की तरह चल रहीं थीं। अंकिता की जाँघों के बिच उसकी चूत काफी समय से गीली ही हो रही थी। गौरव काफी चोटिल थे। तो क्या वह फिर भी अंकिता को वह प्यार दे पाएंगे जो पानेकी अंकिता के मन में ललक भड़क रही थी? पर अंकिता गौरव को इतना प्यार करती थी और गौरव की इतनी ऋणी थी की अपनी काम वासना की धधकती आग को वह छुपाकर तब तक रखेगी जब तक गौरव पूरी तरह स्वस्थ ना हो जाएँ। यह वादा अंकिता ने अपने आपसे किया था। उससे भी बड़ा प्रश्न यह था की क्या अंकिता को स्वयं निचे उतर कर गौरव के पास जाना चाहिए? चाहे गौरव ने अंकिता के लिए कितनी भी कुर्बानी ही क्यों ना दी हो, क्या अंकिता को अपना मानिनीपन अक्षत नहीं रखना चाहिए? पुरुष और स्त्री की प्रेम क्रीड़ा में पहल हमेशा पुरुष की ही होनी चाहिए इस मत में अंकिता पूरा विश्वास रखती थी।
स्त्रियां हमेशा मानिनी होती हैं और पुरुष को ही अपने घुटने जमीं पर टिका कर स्त्री को रिझाकर मनाना चाहिए जिससे स्त्री अपने बदन समेत अपनी काम वासना अपने प्रियतम पर न्योछावर करे यही संसार का दस्तूर है, यह अंकिता मानती थी। पर अंकिता की अपने बदन की आग भी तो इतनी तेज भड़क रही थी की क्या वह मानिनीपन को प्रधानता दे या अपने तन की आग बुझाने को? यह प्रश्न उसे खाये जा रहा था। क्या गौरव इतने चोटिल होते हुए अंकिता को मनाने के लिए बर्थ के निचे उतर कर खड़े हो पाएंगे? अंकिता के मन में यह भी एक प्रश्न था। वह करे तो क्या करे?
अपर्णा निचे की बर्थ पर थी और जीतूजी उसकी ऊपर वाली बर्थ पर। श्रेया निचे वाली बर्थ पर और रोहित उसके ऊपर वाली बर्थ पर।
रात के साढ़े नौ बजे अपर्णा ने अपने कम्पार्टमेंट की बत्तियां बुझा दीं। उसे पता था की आजकी रात कुछ ना कुछ तो होगा ही। कोई ना कोई नयी कहानी जरूर बनेगी। अपर्णा को पति को किये हुए वादे की याद आयी। अपर्णा को तो अपने पति से किये हुए वादे को पूरा करना था। रोहित जी अपनी पत्नी से लिए हुए ट्रैन में रात को अपर्णा का डिनर करने के वादे को पूरा जरूर करना चाहेंगे। उसे पता था की अंकिता को रात को निचे की बर्थ में गौरव के पास आना ही था। जरूर उस रात को ट्रैन में कुछ ना कुछ तो होना ही था। क्या होगा उस विचार मात्र के रोमांच से अपर्णा के रोंगटे खड़े होगये। पर अपर्णा भी राजपूतानी मानिनी जो थी। उसने अपने रोमांच को शांत करना ही ठीक समझा और बत्ती बुझाकर एक अच्छी औरत की तरह अपने बिस्तर में जा लेटी।
कम्पार्टमेंट में सब कुछ शांत हो चुका था। जरूर प्रेमी प्रेमिकाओं के ह्रदय में कामाग्नि की धधकती आग छुपी हुई थी। पर फिर भी कम्पार्टमेंट में वासना की लपटोँ में जलते हुए बदनोंकी कामाग्नि भड़के उसके पहले छायी शान्ति की तरह सब कुछ शांत था। कुछ शोर तब होता था जब दो गाड़ियाँ आमने सामने से गुजरती थीं। वरना वातानुकूलित वातावरण में एक सौम्य सी शान्ति छायी हुई थी। जब ट्रैन कोई स्टेशन पर रूकती तो कहीं दूर कोई यात्री के चढ़ने उतर ने की धीमी आवाज के सिवाय कहीं किसीके खर्राटे की तो कहीं किसी की हलकी लयमय साँसे सुनाई दे रहीथीं। सारी बत्तियाँ बुझाने के कारण और सारे परदे से ढके होने के कारण पुरे कम्पार्टमेंट में घना अँधेरा छाया हुआ था। कहीं कुछ नजर नहीं आता था। एक कोने में टिमटिमाती रात्रि बत्ती कुछ कुछ प्रकाश देने में भी निसहाय सी लग रही थी। कभी कभी कोई स्टेशन गुजरता तब उसका प्रकाश परदे में रह गयी पतली सी दरार में से मुश्किल ही अँधेरे को हल्का करने में कामयाब होता था।
काम वासना से संलिप्त ह्रदय बाकी यात्रियों को गहरी नींद में खो जाने की जैसे प्रतीक्षा कर रहे थे। बिच बिचमें नींद का झोका आ जाने के कारण वह कुछ विवश सा महसूस कर रहे थे। अंकिता की आँखों में नींद कहाँ? उसे पता था की उसका प्रियतम गौरव जरूर उसके निचे उतर ने प्रतीक्षा में पागल हो रहा होगा। आज रात क्या होगा यह सोच कर अंकिता के ह्रदय की धड़कन तेज हो रही थीं और साँसे धमनी की तरह चल रहीं थीं। अंकिता की जाँघों के बिच उसकी चूत काफी समय से गीली ही हो रही थी। गौरव काफी चोटिल थे। तो क्या वह फिर भी अंकिता को वह प्यार दे पाएंगे जो पानेकी अंकिता के मन में ललक भड़क रही थी? पर अंकिता गौरव को इतना प्यार करती थी और गौरव की इतनी ऋणी थी की अपनी काम वासना की धधकती आग को वह छुपाकर तब तक रखेगी जब तक गौरव पूरी तरह स्वस्थ ना हो जाएँ। यह वादा अंकिता ने अपने आपसे किया था। उससे भी बड़ा प्रश्न यह था की क्या अंकिता को स्वयं निचे उतर कर गौरव के पास जाना चाहिए? चाहे गौरव ने अंकिता के लिए कितनी भी कुर्बानी ही क्यों ना दी हो, क्या अंकिता को अपना मानिनीपन अक्षत नहीं रखना चाहिए? पुरुष और स्त्री की प्रेम क्रीड़ा में पहल हमेशा पुरुष की ही होनी चाहिए इस मत में अंकिता पूरा विश्वास रखती थी।
स्त्रियां हमेशा मानिनी होती हैं और पुरुष को ही अपने घुटने जमीं पर टिका कर स्त्री को रिझाकर मनाना चाहिए जिससे स्त्री अपने बदन समेत अपनी काम वासना अपने प्रियतम पर न्योछावर करे यही संसार का दस्तूर है, यह अंकिता मानती थी। पर अंकिता की अपने बदन की आग भी तो इतनी तेज भड़क रही थी की क्या वह मानिनीपन को प्रधानता दे या अपने तन की आग बुझाने को? यह प्रश्न उसे खाये जा रहा था। क्या गौरव इतने चोटिल होते हुए अंकिता को मनाने के लिए बर्थ के निचे उतर कर खड़े हो पाएंगे? अंकिता के मन में यह भी एक प्रश्न था। वह करे तो क्या करे?